सर्वविदित है, कि .. किसी भी क्षेत्र विशेष में उसके संस्कार या उसकी संस्कृति पर उसके भौगोलिक परिवेश के साथ-साथ वैश्विक वैज्ञानिक अनुसंधानों व आविष्कारों का भी गहरा प्रभाव पड़ता आया है।
मसलन- मरणोपरांत जिस दाह संस्कार और दफ़नाने की अलग-अलग प्रक्रियाओं को धर्म विशेष से जोड़ कर लकीर के फ़कीर बने आज भी हम अकड़ रहे हैं या यूँ कहें कि उस से जकड़े हुए हैं, तो .. एक बार अगर हम इतिहास की खिड़की से झाँक कर इन धर्म-मज़हब के उद्गम स्थलों का मन से अवलोकन करें, तो प्रमाणिक निष्कर्ष यही निकलेगा कि .. दफ़नाये जाने वाले संस्कार का प्रचलन उन जगहों में पनपा होगा, जहाँ ना तो दाह संस्कार के लिए लकड़ियों को प्रदान करने वाली वन संपदाएँ थीं और ना ही अवशेष स्वरूप राख़ को बहा ले जाने वाली एक भी नदी थी .. वहाँ थे तो केवल रेत ही रेत .. शायद ...
दूसरी तरफ .. दाह संस्कार के चलनसार का प्रादुर्भाव वहीं सम्भव हो पाया होगा, जहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप .. वृक्षों से मिली लकड़ियों और नदियों के जल की उपलब्धता रही होंगी। परन्तु पुरखों के कालखण्ड में तत्कालीन परिस्थितिवश पनपे प्रचलनों को हम लोगों ने आज भी अलग-अलग धर्म-मज़हब से जोड़ कर मृत शरीर के निष्पादन के लिए जलाने और दफ़नाने जैसी दो भिन्न प्रक्रियाओं को क्रमशः श्मशान और क़ब्रिस्तान जैसे दो खेमों में बाँट कर रखा है .. शायद ...
प्रसंगवश .. वैसे तो आज हमारे बीच मृत शरीर के निष्पादन का देहदान नामक एक बेहतर और बहुउपयोगी विकल्प उपलब्ध तो है ही, पर हम अगर लकीर के फ़कीर वाली ज़ंजीर की जकड़न से बाहर निकल सकेंगे, तभी तो .. इस देहदान का औचित्य समझ पायेंगे और इसे अपनाने की हिम्मत जुटा पायेंगे, वर्ना .. तथाकथित मोक्ष की अपभ्रंश धारणा से प्रेरित हो कर, उन तमाम अंधपरम्पराओं को चिपकाए हुए .. हम स्वयं भी उनसे चिपके रहेंगे और भावी पीढ़ियों को भी उनसे चिपके रहने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी दबाव बनाते रहेंगे .. शायद ...
हालांकि हमारे संस्कार-संस्कृति की तरह हमारे खानपान के मामले में भी यही भौगोलिक प्रभाव ही प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। जैसे- पँजाबियों को रोटी-पराठे एवं बंगालियों को भात या फिर मूढ़ी या फरही जैसे चावल के अन्य उत्पाद अत्यधिक प्रिय होने की वज़ह दरसअल उनके राज्यों में खेती से क्रमशः गेहूँ और चावल के प्रचुर उत्पादन ही हैं .. शायद ...
अब बात बंगालियों की हो रही हो तो .. उनके कुछ विशेष व्यंजनों का नाम लिए बिना नहीं रहा जा रहा अभी तो, तो .. उनके कुछेक विशेष व्यंजनों के नाम लेने भर से ही मुँह में पानी आ जाता है। मसलन- शुक्तो (एक विशेष सुस्वादु शाकाहारी सब्जी), कच्चा गोला संदेश (छेने से बना मिठाई विशेष), मिष्टी दोई (विशेष स्वाद वाला मीठा दही), भापा दोई (भाप पर पका दही का विशेष मीठा व्यंजन) व भापा माछ (भाप से पकी मछली) और .. उनमें से एक भापा माछ .. एक ऐसा मांसाहारी व्यंजन है, जो मछली को सरसों के मसाले में 'मैरीनेट' करने के बाद केले के पत्ते में लपेट कर भाप पर पकाया जाता है। यूँ तो केले के पत्ते पर खाने का भी प्रचलन बंगाल में भी है और दक्षिण भारत में भी और .. कारण वही है .. उन क्षेत्रों में केले की अत्यधिक उपज का होना, जो वहाँ के भौगोलिक परिवेश पर ही निर्भर करता है .. शायद ...
यहाँ मुख्य रूप से गौर करने वाली बात ये है, कि इस "भापा माछ" के अनोखे स्वाद में मछली व मसाले के साथ-साथ केले के पत्ते का भी विशेष योगदान रहता है, जिनमें लपेट कर इसे भाप पर पकाया जाता है। बातों-बातों में पत्ते की बात निकली ही है तो .. अब "पत्ते वाली मिठाई" की बातें करते हुए आज की मूल बतकही की शुरुआत करते हैं .. बस यूँ ही ...
आज कमोबेश समस्त धरती के वैश्वीकरण / भूमंडलीकरण हो जाने के बावज़ूद भी कई स्थान विशेष के कुछेक व्यंजनों का वैश्वीकरण नहीं हो पाया है। मसलन- केवल अरवा चावल के आटे और गुड़ से विशेषतः जाड़े के मौसम में बनाया जाने वाला "भक्का या भक्खा" गर्म पानी के भाप से तैयार होता है; जो पौष्टिक और स्वादिष्ट होने के बावज़ूद भी बिहार के कुछ पूर्वोत्तर जिले- अररिया, किशनगंज, पूर्णिया व कटिहार के साथ-साथ झारखण्ड के पाकुड़ जिला, जो पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जैसे एतिहासिक जिला से सटा हुआ है, पश्चिमोत्तर पश्चिम बंगाल और दक्षिण-पूर्वी नेपाल के कुछ सीमांचल क्षेत्रों तक ही सीमित है .. शायद ...
अब मूल बतकही के रुख़ को उत्तराखंड के दो मुख्य भागों में बँटे हुए- गढ़वाल और कुमायूँ में से एक .. कुमायूँ की ओर मोड़ते हैं। वैसे तो तीसरा भाग भी है- जौनसार। ख़ैर ! .. फ़िलहाल हम बात कर रहे हैं .. कुमायूँ की और और उस के अल्मोड़ा जिला से जुड़ी ख़ास बातों में से एक "पत्ते वाली मिठाई" की। वैसे तो उपलब्ध आंकड़े की बात करें तो .. अल्मोड़ा इस राज्य का सबसे ग़रीब जिला है, पर दूसरी तरफ इसकी तमाम प्राकृतिक संपदाएँ इसे सम्पन्न और समृद्ध भी बनाती हैं।
यहाँ उपलब्ध उन्हीं प्राकृतिक संपदाओं में से एक है- मालू की बेलें, जिसे स्थानीय लोग लता कचनार भी कहते हैं .. क्योंकि इसके पत्तों का आकार भी कचनार के पत्तों की तरह ही दोमुँहा होता है और इसका स्पर्श भी खुरदुरा होता है, पर इसका माप उससे बड़ा होता है। वर्षों से स्थानीय क्षेत्रों में इन पत्तों से बने पत्तल और दोने का इस्तेमाल होता आ रहा है। यहाँ इस की फ़ली को "टांटी" कहते हैं। जहाँ ये बेलें प्राकृतिक रूप से सहज उपलब्ध है, वहाँ इस टांटी के पकने पर आग में भून कर उसके बीजों को, जिसे "मेले" कहते हैं, खाया जाता है। इस के पत्तों का काढ़ा बुखार या 'डायरिया' के बीमारों को दिया जाता है, क्योंकि इसमें 'एन्टीबैक्टीरियल' गुण होता है। यूँ तो यह कुमायूँ के अलावा पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, सिक्किम आदि राज्यों में भी उगता तो है, पर .. अल्मोड़ा जिला की तरह "पत्ते वाली मिठाई" नहीं मिलती है।
वैसे तो कुमाऊँ क्षेत्र में एक अन्य मिठाई .. "बाल मिठाई" भी लोकप्रिय है, जिसे भुने हुए खोवे (मावा) से बनाई जाती है और इसके हर टुकड़े की ऊपरी परत पर 'होम्योपैथिक' दवा वाली छोटी-छोटी गोलियों जैसी चीनी की गोलियों की परत चढ़ाई जाती है। सर्वविदित है, कि कुमाऊँ में गोरखों ने सन् 1790 ई से लेकर सन् 1815 ई तक लगभग 25 वर्षों तक शासन किया था और किवदंतियों के मुताबिक़ उन्हीं गोरखों द्वारा "बाल मिठाई" का पदार्पण कुमाऊँ में हुआ था। वैसे तो आज यह उत्तराखंड की राजकीय मिठाई भी हैI परन्तु "पत्ते वाली मिठाई" की तो बात .. मतलब स्वाद ही अलग है।
यूँ तो उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में 'स्ट्रीट फ़ूड' के तौर पर युवाओं में विशेष लोकप्रिय और प्रसिद्ध नमकीन व्यंजनों में बन टिक्की और कतलम्बे का नाम आता है। यहाँ की 'बेकरी' के उत्पाद भी प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं। इनके अलावा वयस्कों-वृद्धों में उत्तराखंड देवभूमि वाले अपने चार धामों के लिए, तो .. युवाओं के बीच 'एडवेंचर्स गेम' के अलावा प्राकृतिक पहाड़ी सौन्दर्य के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। पर .. इन सबसे परे .. "पत्ते वाली मिठाई" की तो बात ही निराली है।
अब इस मिठाई के लिए भी किवदंतियों की बात छेड़ें तो .. उत्तराखंड के कई सारे लोकप्रिय और प्रसिद्ध पहाड़ी पर्यटन स्थलों की ख़ोज के साथ-साथ वहाँ बसने व उसे बसाने का श्रेय अंग्रेज़ों को देने की तरह ही .. स्थानीय वृद्धजनों के अनुसार इस "पत्ते वाली मिठाई" का श्रेय भी एक अंग्रेज को दिया जाता है।
दरअसल अल्मोड़ा जाने के लिए वर्तमान में तो 127 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर में है और 90 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम है। परन्तु दशकों पहले अंग्रेजों की अवधि में ये दोनों ही यतायात के साधनों के नहीं होने पर एकमात्र साधन- सड़कमार्ग द्वारा देहरादून से अल्मोड़ा जाने के दरम्यान अल्मोड़ा से कुछ पहले ही नैनीताल ज़िले में कोसी नदी और खैरना नदी के संगम पर बने खैरना पुल के पास ही खैरना नाम की एक छोटी-सी बस्ती थी और आज भी है। वहीं पर एक चट्टी-बाज़ार भी है, जहाँ लम्बी दुर्गम पहाड़ी यात्रा करके आने वाले सैलानियों को ढाबेनुमा दुकानों से चाय-अल्पाहार करके तरोताज़ा होने का अवसर तो मिलता ही है .. साथ ही अपनों के लिए सौग़ात के रूप में यहाँ की बाल मिठाई और "पत्ते वाली मिठाई" ले जाने का भी मौका मिलता है।
स्थानीय वृद्धजनों का कहना है, कि अंग्रेजों के शासनकाल में एक अंग्रेज के पर्यटन के ख़्याल से अल्मोड़ा जाने के दौरान जब खैरना में उसकी गाड़ी रुकी तो वह एक ढाबे में कुछ जलपान करने के बाद .. उसके बगल की ही मिठाई की एक छोटी-सी दुकान से एक मिठाई ख़रीद लिया, जिसे गाढ़े दूध में खोवा, कम मात्रा में चीनी, नारियल-चूर्ण के अलावा छोटी इलायची के बीजों के चूर्ण, काजू, बादाम, केसर और किशमिश डालकर तैयार की जा रही थी। उस दुकानदार ने बन रहे ताज़ा-ताज़ा मिठाई को ग़ुलाब की पंखुड़ियों से सजाकर वहाँ उस वक्त सहज उपलब्ध मालू के हरे पत्ते में लपेट कर उस अंग्रेज पर्यटक ग्राहक को सौंप दिया था।
अब दिलचस्प बात ये हुई, कि उस अंग्रेज सज्जन को वह मिठाई इतनी अच्छी लगी, कि वे दूसरे दिन पुनः उसी दुकानदार से एक ही बार में एक किलो मिठाई खरीद कर ले गए। स्वाभाविक था कि .. मिठाई की मात्रा ज्यादा होने की वजह से दुकानदार ने उसे मालू के पत्ते की जगह गत्ते के डिब्बे में भर कर दे दिया था। उसको खाने के बाद अंग्रेज महोदय को स्वाद में अंतर महसूस हुआ। वे इसके बाद वापस उस दुकानदार के पास गए और स्वाद में कमी की शिकायत की। फिर कुछ क्षण बाद स्वयं ही उन्होंने दुकानदार से मिठाई को उसी मालू के पत्ते में लपेटकर देने की बात कही। कुछ ही देर बाद उस मालू के पत्ते में लिपटी मिठाई को खाने पर पूर्ववत स्वाद आने लगा।
फिर क्या था .. उसी अंग्रेज पर्यटक की नेक सलाह पर वह दुकानदार उस दिन से अपनी उस मिठाई को शंक्वाकार मालू के पत्ते में लपेट कर ही बेचने लगा और उसी पत्ते वाली मिठाई को सिंगोड़ी या सिंगौड़ी कहते हैं। कहते हैं कि .. वही सिलसिला आज भी प्रचलन में तो है ही, साथ ही .. इसी शंक्वाकार मालू के पत्ते में लिपटा होना .. इसके स्वाद की वज़ह भी है व पहचान भी है। मानो किसी प्रेमी के सानिध्य में आने पर उसकी प्रेमिका का तन आलिंगनबद्ध होकर महक उठता है, वैसे ही मालू के पत्ते की बाहों में सिमट कर सिंगोड़ी के स्वाद में भी चार चाँद लग जाता है .. शायद ...
इसके बारे में सुनने-जानने के पश्चात गत पौने दो वर्षों से देहरादून में मिठाई की कई प्रसिद्ध दुकानों में तलाशने के बाद कल यहाँ के एक मिष्ठान प्रतिष्ठान में यह दृष्टीगोचर होने के बाद मुझ-सा मधुमेह पीड़ित, पर किसी स्थान विशेष के व्यंजन विशेष को चखने के लिए बरबस लालायित प्राणी, भी कैसे मन संवरण कर पाता भला ? इस मिठाई विशेष के लिए अगर .. अब तक आपके मुँह में भी लार भर आयी है, तो आप सभी सपरिवार आमंत्रित है यहाँ आने के लिए और फिर तो .. आप सभी को मालू के पत्ते वाली विशेष मिठाई की दावत हमारी ओर से .. बस यूँ ही ...
आप सभी को मालू के पत्ते वाली विशेष मिठाई की दावत हमारी ओर से ..
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका और .. जी ! .. दावत अवश्य, यहाँ आने पर .. बस यूँ ही ...
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 05 मार्च 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ..अपनी बहुरंगी प्रस्तुति के पैरहन में हमारी बतकही के पैबन्द को पिरोने के लिए .. बस यूँ ही ...
ReplyDeleteबेहतरीन...
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह ! मालू के पत्ते वाली विशेष मिठाई के बारे में पहली बार पढ़ा, अति रोचक प्रस्तुति
ReplyDeleteजी .. नमन संग आभार आपका .. जी ! .. हम स्वयं भी पहली बार ही जान पाए और चख पाए देहरादून आने के पश्चात .. बहुत बड़ी है दुनिया और दुनिया की विविधता .. पर हम ही लोग हैं जो अपने आप को "बड़का वाला बुद्धिजीवी" समझते हुए अपनी गर्दन अकड़ाते फ़िरते हैं .. दुनिया की सारी विविधताओं को जानने, समझने और चखने के लिए हमारा एक मानव जन्म बहुत ही कम है .. शायद ...
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह! सुबोध जी ...बहुत सुन्दर..पहली बार जाना इस विशेष मिठाई के बारे में ।
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका .. जी ! .. परन्तु .. केवल जानने तक ही सीमित मत रहिए .. हमारा तो निवेदन व आमंत्रण भी (औपचारिक कतई नहीं) है, कि यहाँ आकर उसे चखिए भी .. वैसे भी सार्वजनिक "न्योता" भी हमने दिया हुआ है .. बस यूँ ही ...
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteरोचक वर्णन
लगता है आप तो उत्तराखंड पर काफी शोध कर रहे हैं ... खुशी की बात कि आपके जरिये उत्तराखंड की काफी चीजें बहुत से लोगों की जानकारी में आ रही हैं।
साधुवाद आपको 🙏🙏
जी ! .. नमन संग आभार आपका ... जी ! पर .. "शोध" जैसी कोई बात नहीं .. केवल रूचि की बात है .. पर अगर .. हमारी बतकही आपको ख़ुशी प्रदान कर पायी, तो ये हमारे लिए ख़ुशी की वज़ह बन जाती है .. बस यूँ ही ...
Delete(दरअसल उत्तराखंड के बुद्धिजीवी वर्ग को राजनीति में मशगूल होने के कारण, मेरे जिम्मे ये "शोध" वाली जिम्मेवारी मिली हुई है .. शायद ...)😀😀😀
गरीब जिला अल्मोड़ा | सुन्दर जानकारी | २०१४ से पहले का डाटा लगता है | वैसे सिंगौडी कहा जाता है इस मिष्ठान को | शायद ,,,,
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका .. 'डाटा' कब की है, ये तो बुद्धिजीवी जन ही बतला सकते हैं और वर्ष भी .. वैसे भी उदास होने की आवश्यकता नहीं है .. बिहार और झाड़खंड .. पहले और दूसरे पादान पर हैं ग़रीबी के मामले में .. अल्मोड़ा तो पन्द्रहवें पादान पर है साहिब !! ...
Deleteऔर रही बात मिठाई के नाम की तो .. नाम में "डी" तो कतई नहीं है, बल्कि "ड़ी" ही है और हमने इसकी चर्चा भी की है .. अपनी बतकही के १७ वें अनुच्छेद में .. " फिर क्या था .. उसी अंग्रेज पर्यटक की नेक सलाह पर वह दुकानदार उस दिन से अपनी उस मिठाई को शंक्वाकार मालू के पत्ते में लपेट कर ही बेचने लगा और उसी पत्ते वाली मिठाई को सिंगोड़ी या सिंगौड़ी कहते हैं। " .. आपने ध्यान दिया ही नहीं .. हम ग़रीब की बतकही पर .. शायद ... 🙄🤔
हजूर आप कब से गरीब हो गए ? सबसे जियादा आप ही चूसते हैं उन अमीरों का खून जो आज भी गांधी और नेहरू बोलने की कोशिश करते हैं |
Deleteये भी सही कहा आपने कि .. "अमीर" ही लोग "गाँधी और नेहरू" बोलने की कोशिश हैं, बाक़ी ग़रीब लोग तो .. सुभाष जी और आज़ाद जी को सोचते हैं .. शायद ...
Deleteआपने ये तो बताया ही नहीं कितने दिनों में खराब होगी सिगौड़ी इसको दूसरे राज्य पार्सल भी किया जा सकता है क्या?
ReplyDeleteवैसे बहुत रोचक लिखा है आपने...ताज़ी मिठाई का स्वाद सोचकर मुँह में पानी भर आया।
किसी भी स्थान पर रहना और उस स्थान को जीना दो अलग बात होती है आप जहाँ रहते हैं उस स्थान को उस परिवेश को जीते है। आपके देहरादून प्रवासकाल के दौरान अभी शायद बहुत सारी नयी जानकारी हमें मिलती रहेगी।
सादर।
जी ! .. नमन संग आभार आपका .. जी ! .. शायद नहीं भेजा जा सकता, क्योंकि ये मावा से बनने वाली मिठाई है।
Deleteहाँ .. वैसे तो अब तक के जिए हुए जीवन, जो मैदानी या पठारी क्षेत्रों में बीता है, उन सभी से इतर कुछ भी पहाड़ी सन्दर्भ में मन को छू जाता है, उसे अपनी बतकही में शामिल कर लेते हैं .. बस यूँ ही ...