यार! गैस सिलेंडर यार !!
तू इंसान तो नहीं पर
देता है सबक़ इंसानों से
बेहतर और बेशुमार ....
सबक़ पहली -
आग भी जलाते हो तुम
घर-घर के चूल्हे की तो ...
कई पेटों की आग बुझाने के लिए
काश! लगा पाता मैं भी
तुम्हारी तरह आग हर मन में
चहुँओर फैली भ्रष्टाचार को
जड़ से मिटाने के लिए...
सबक़ दूसरी -
रंग कर रंग एक ही में
सब के घर चले जाते हो तुम
कभी देखा नहीं तुम्हें कि
सोची भी हो तुमने
कभी भगवे या कभी हरे रंग में
रंग जाने के लिए ...
सबक़ तीसरी -
दरअसल मानता नहीं मैं तो
पर ... भला ये समाज ..!???
समाज हीं तय करती है ना ... कि
मंदिरों के गढ़े पत्थरों में
पंडालों में ... रात भर चलने वाले
जागरण के ध्वनिप्रदूषणों में
अपने भगवान हैं और ...
ये तथाकथित हमारा समाज
यानि गोरेपन की क्रीम वाला
हो विज्ञापन जैसे ... हाँ ... वही...
जिसने तय कर ही दिया ना कि
गोरापन हीं है मापदंड सफलता की
और काली-सांवली हैं सारी की सारी
बेचारी ... असफल ... बेकार ...
मानना पड़ता है ना ... यार !!!
इसी समाज के तय किये गए
तथाकथित अछूतों और
स्वर्णजनों का अंतर ...
और उसी अंतर को तुम
बारहा ठेंगा हो दिखाते
जाति, धर्म, सम्प्रदाय की
खोखली दीवार हो ढहाते
सभी भेदभाव के अंतर को मिटाते
जब एक के चौके से निकल कर
दूसरे के चौके में घुस जाते हो
बिंदास बिना भेद किये
जा-जा कर घर-घर ... बार-बार ...
यार! गैस सिलेंडर यार !!
तू इंसान तो नहीं पर
देता है सबक़ इंसानों से
बेहतर और बेशुमार ....
यार! गैस सिलेंडर यार !!...
तू इंसान तो नहीं पर
देता है सबक़ इंसानों से
बेहतर और बेशुमार ....
सबक़ पहली -
आग भी जलाते हो तुम
घर-घर के चूल्हे की तो ...
कई पेटों की आग बुझाने के लिए
काश! लगा पाता मैं भी
तुम्हारी तरह आग हर मन में
चहुँओर फैली भ्रष्टाचार को
जड़ से मिटाने के लिए...
सबक़ दूसरी -
रंग कर रंग एक ही में
सब के घर चले जाते हो तुम
कभी देखा नहीं तुम्हें कि
सोची भी हो तुमने
कभी भगवे या कभी हरे रंग में
रंग जाने के लिए ...
सबक़ तीसरी -
दरअसल मानता नहीं मैं तो
पर ... भला ये समाज ..!???
समाज हीं तय करती है ना ... कि
मंदिरों के गढ़े पत्थरों में
पंडालों में ... रात भर चलने वाले
जागरण के ध्वनिप्रदूषणों में
अपने भगवान हैं और ...
ये तथाकथित हमारा समाज
यानि गोरेपन की क्रीम वाला
हो विज्ञापन जैसे ... हाँ ... वही...
जिसने तय कर ही दिया ना कि
गोरापन हीं है मापदंड सफलता की
और काली-सांवली हैं सारी की सारी
बेचारी ... असफल ... बेकार ...
मानना पड़ता है ना ... यार !!!
इसी समाज के तय किये गए
तथाकथित अछूतों और
स्वर्णजनों का अंतर ...
और उसी अंतर को तुम
बारहा ठेंगा हो दिखाते
जाति, धर्म, सम्प्रदाय की
खोखली दीवार हो ढहाते
सभी भेदभाव के अंतर को मिटाते
जब एक के चौके से निकल कर
दूसरे के चौके में घुस जाते हो
बिंदास बिना भेद किये
जा-जा कर घर-घर ... बार-बार ...
यार! गैस सिलेंडर यार !!
तू इंसान तो नहीं पर
देता है सबक़ इंसानों से
बेहतर और बेशुमार ....
यार! गैस सिलेंडर यार !!...
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-08-2019) को " समाई हुई हैं इसी जिन्दगी में " (चर्चा अंक- 3430) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
जी अनीता जी! आभार आपका ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteजी! शुक्रिया !
Deleteबहुत चितन किया आपने आदरणीय कविवर सिलेंडर के साथ | एक और सबक देता है ये सिलेंडर कि-- जीवन में ना जाने कब ये साँस रूपी खजाना समाप्त हो जाए जैसे सिलेंडर खत्म होता है तो एक कप चाय भी आधी उबली रह जाया करती है | इसी तरह जीवन की ये प्राण - संपदा भी ना जाने किस दिन ??????????????????
ReplyDelete" एक कप चाय भी आधी उबली रह जाया करती है। " कविता की लड़ी में एक और कड़ी ... आभार आपका .. हम लाख बार भी ये प्रश्नवाचक चिन्ह लगा लें "किस दिन" का उत्तर नहीं मिलने वाला ...
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