(1)@
साहिब !
आप सूरज की
सभी किरणें
मुट्ठी में अपनी
समेट लेने की
ललक ओढ़े
जीते हैं ...
और ...हम हैं कि
चुटकी भर
नमक की तरह
ओसारे के
बदन भर
धूप में ही
गर्माहट चख लेते हैं ...
(2)@
यूँ तो रहते हैं लटके
सारे-सारे दिन बस्ती के
बुढ़े बरगद की शाखों पर
खामोश उलटे चमगादड़
पर बढ़ा देते हैं ना
रात होते हीं
तादाद में आसपास
अपनी चहलकदमियाँ .....
अब देखो ना !!
यादें भी ना तुम्हारी...
आजकल
चमगादड़ बन गईं हैं.....
(3)@
कई-कई कस्बों और
शहरों के किनारों को छूकर
अक़्सर मदमाने वाली
अल्हड़, मदमस्त नदी
कब जान पाती है भला
ताउम्र हो जाने वाली
बस किसी एक शहर की
किसी झील की फ़ितरत ...
तनिक बोलो ना !!!...
साहिब !
आप सूरज की
सभी किरणें
मुट्ठी में अपनी
समेट लेने की
ललक ओढ़े
जीते हैं ...
और ...हम हैं कि
चुटकी भर
नमक की तरह
ओसारे के
बदन भर
धूप में ही
गर्माहट चख लेते हैं ...
(2)@
यूँ तो रहते हैं लटके
सारे-सारे दिन बस्ती के
बुढ़े बरगद की शाखों पर
खामोश उलटे चमगादड़
पर बढ़ा देते हैं ना
रात होते हीं
तादाद में आसपास
अपनी चहलकदमियाँ .....
अब देखो ना !!
यादें भी ना तुम्हारी...
आजकल
चमगादड़ बन गईं हैं.....
(3)@
कई-कई कस्बों और
शहरों के किनारों को छूकर
अक़्सर मदमाने वाली
अल्हड़, मदमस्त नदी
कब जान पाती है भला
ताउम्र हो जाने वाली
बस किसी एक शहर की
किसी झील की फ़ितरत ...
तनिक बोलो ना !!!...
बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराधा जी !
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (21-08-2019) को "जानवर जैसा बनाती है सुरा" (चर्चा अंक- 3434) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आपका शास्त्री जी !
Deleteबहुत सुंदर अहसास समेटे अनुपम क्षणिकाएं।
ReplyDeleteशुक्रिया महोदया !
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर....
शुक्रिया सुधा जी !
Deleteरुमानी रचनाओं में खूबसूरत बिंब और कल्पनाशीलता आपकी लेखनी की विशिष्टता है।
ReplyDeleteएहसास से परिपूर्ण बहुत सुंदर क्षणिकायें।
विशिष्टता जैसी कोई बात नहीं, लाखो पड़े हैं स्थापित रचनाकार ... मेरी क्या बिसात .. बस रचनाएँ रच जाती हैं .. बस यूँ ही ... पर कैसे !? ..ये मुझे भी मालूम नहीं
ReplyDeleteवैसे रचना की आत्मा को छूने और सराहना के लिए आभार आपका ..
यादें चमगादड़ सी !बहुत खूब सुबोध जी | पर मुझे सबसे सुंदर तीसरी रचना बहुत अच्छी लगी | सचमुच दरबदर भटकने वाली नदी , एक शहर के साथ बंधने वाली झील के बंधन सुख को क्या समझ पायेगी | सुंदर पंक्तियाँ बस यूँ ही |
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार आपका रेणु जी ! सच में तीसरी रचना का मर्म ही कुछ ऐसा है। बंधन तो ऐसे है बुरी चीज .. चाहे कैसी भी हो ... पर कुछ बंधन झील सी सुकून देते हैं ... नदी हमेशा शोर कर के भटकती ही रहती है, पर झील मौन, शांत-चीत रहती है एक से बंध कर ...
Deleteसुंदर रचना.... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है
ReplyDeleteपर बंधन तो कोई भी हो बुरी होती है ना (बस यूँ ही .. कह रहा ये बात).. आभार आपका !
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