एक गुलाब पुष्पगुच्छों में बंधा
किसी वातानुकूलित सभागार के
सुसज्जित मंच के केंद्र में
एक क़ीमती मेज़ पर पड़े
किसी गुलदस्ते में था रखा
हिक़ारत भरी नज़रों से
घूरता दूर उस गुलाब को
जो था अब भी कड़ी धूप में
कई- कई काँटों के साथ ही
शाख़ों पर मायूसी से जकड़ा
सभा में आए ख़ास मंचासीन
और श्रोता सह दर्शक लोगबाग भी
बागों में कहाँ ... बस गुलदस्ते को ही
मन से निहार रहे थे...लिए हुए
उसे हाथ में पाने की लालसा
चुटकी के गिरफ़्त में ले
उस गुलाब को सूंघने की पिपासा
सभा ख़त्म हुई ... शाम गई
शाम बीती ... रात बीती ...
वातानुकूलित वातावरण में
कुम्हलाया गुलाब बेचारा
सिसक रहा था पड़ा अब
नगर-निगम के एक कूड़ेदान में
अगली सुबह ......
शाख़ से जुड़ा गुलाब
दूर वहीँ
अब भी था कड़ी धूप और
काँटो के बीच बस मौन खड़ा
सुगन्ध बिखेर रहा ..बस यूँ ही ...
किसी वातानुकूलित सभागार के
सुसज्जित मंच के केंद्र में
एक क़ीमती मेज़ पर पड़े
किसी गुलदस्ते में था रखा
हिक़ारत भरी नज़रों से
घूरता दूर उस गुलाब को
जो था अब भी कड़ी धूप में
कई- कई काँटों के साथ ही
शाख़ों पर मायूसी से जकड़ा
सभा में आए ख़ास मंचासीन
और श्रोता सह दर्शक लोगबाग भी
बागों में कहाँ ... बस गुलदस्ते को ही
मन से निहार रहे थे...लिए हुए
उसे हाथ में पाने की लालसा
चुटकी के गिरफ़्त में ले
उस गुलाब को सूंघने की पिपासा
सभा ख़त्म हुई ... शाम गई
शाम बीती ... रात बीती ...
वातानुकूलित वातावरण में
कुम्हलाया गुलाब बेचारा
सिसक रहा था पड़ा अब
नगर-निगम के एक कूड़ेदान में
अगली सुबह ......
शाख़ से जुड़ा गुलाब
दूर वहीँ
अब भी था कड़ी धूप और
काँटो के बीच बस मौन खड़ा
सुगन्ध बिखेर रहा ..बस यूँ ही ...
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 21 अगस्त 2019 को साझा की गई है........."सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद
दिग्विजय जी ! साभार नमन आपको ... हार्दिक धन्यवाद आपको मुझे आज के "सांध्य दैनिक मुखरित मौन" के मंच पर शब्दों के माध्यम से एक अभिव्यक्ति का मौका देने के लिए ...
Deleteज़रूरी है शाख़ से जुड़े रहना ताकि पोषक तत्त्व मिलते रहें और प्राकृतिक लावण्यता फ़ज़ा में बिखरती रहे. मनुष्य ने अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर प्रकृति को बर्बरता से मसल डाला है.
ReplyDeleteयथार्थपरक चिंतन प्रकृति को और अधिक सौंदर्यवान होने हेतु अच्छा लगा.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
लिखते रहिए.
रचना की आत्मा को स्पर्श करती हुई आपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका ... वैसे यह इस संदर्भ में भी है कि हम शोहरत की चकाचौंध में अक़्सर यथार्थ को नज़रअंदाज़ कर देते हैं ... उसकी चमक हमारी आँखों को यथार्थ प्रशंसा और बनावटी वाहवाही में फर्क करने के सामर्थ्य से वंचित कर देती है ..
Deleteआपके वैचारिक मंथन से अनमोल रचनाओं का सृजन होता है। अपनी जड़ से दूर कृत्रिमता की चकाचौंध के पल दो पल के सुख ढूँढने में अपनी शाखों से जुड़े रहकर सूखकर झड़ने तक खुशबू फैलाना ही श्रेयकर है।
ReplyDeleteसार्थक संदेश और सीख देती सराहनीय कृति आपकी।
वैचारिक मंथन जैसा कुछ भी नहीं , बस यूँ ही ... जीवन के हर दिन- हर पल एक छंद दे जाते हैं, हर इंसान एक सीख और एक पात्र दे जाता है। हर इंसान की ज़िंदगी एक उपन्यास होता है, जिसे पन्ना दर पना वो रोज जीता है
ReplyDeleteआपने सही मर्म छुआ है रचना की आत्मा की .. धन्यवाद ...
शाख से जुड़ा रहना गहन आत्मीयता का परिचायक है , इसके साथ मुरझाना हर फूल की नियति है |पर मुरझाने से भी शाख से जुड़कर सुगंध का सम्प्रेषण उसका मूल स्वभाव है | और वैसे भी चलती का नाम ज़िन्दगी | गुलाब भी इससे इतर नहीं |
ReplyDeleteसही कहा आपने .. गुलाब भी इस से इतर नहीं ... आभार आपका ...
Delete