प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२२)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-
गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-
रेशमा - " एक कमी को छोड़ दें, तो .. इसके अलावा सभी कुछ तो है हमारे पास .. रामवृक्ष बेनीपुरी जी की भाषा में पेट, हृदय और मस्तिष्क .. तीनों ही है हमारे पास, तो फिर .. समाज में हमारी उपेक्षा की वज़ह ? .. वो भी ब्राह्मणों द्वारा समाज को गलत ढंग से बरगलाने की परम्परागत तरीके से कि .. हमारी यह स्थिति हमारे किसी पूर्व जन्मों के पाप का प्रतिफल है। सच में ऐसा है क्या मयंक भईया .. ? "
गतांक के आगे :-
रेशमा के इस तथ्यात्मक सवाल से मयंक निरूत्तर होकर अपनी दोनों हथेलियों से जुड़ी दसों उंगलियों को चटकाते हुए, सामने बैठी रेशमा से लगभग अपनी नज़रें चुराते हुए समर, अमर और अजीत की ओर देखने का प्रयास भर कर रहा है .. जो फ़िलहाल यहाँ से वापस जाने की सोच रहे हैं और ऐसा बोल भी चुके हैं।
किसी भी इंसान के पास जब कभी भी किसी सवाल या समस्या का हल ना हो तो वह उससे अक़्सर निपटने के बजाए बचने का भरसक प्रयास करता ही नज़र आता है .. कभी अपनी हथेलियों की उंगलियों को चटका कर तो .. कभी पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदने का असफल प्रयास कर के .. शायद ...
तभी अचानक शशांक वर्तमान की वस्तुस्थिती समझते हुए .. रेशमा को ठहरने का इशारा करते हुए अजीत को सम्बोधित करके कह रहा है ...
शशांक - " अजीत .. ठीक है .. तुम लोग निकलो .. तुम लोगों को देर हो रही है .."
अजीत - " हाँ .. सही .. फिर आते हैं हम तीनों किसी भी छुट्टी के दिन .."
अमर - " हाँ.. अब तो आना ही होगा .. कम से कम रसिक भाई की कड़क चाय पीने के लिए तो .. "
समर - " हमको भी रेशमा जी से मिलना अच्छा लगा .. आपके विचार अच्छे लगे .. अब तो बार-बार मिलना ही होगा .. है ना ? .."
बातें करते-करते भावुकतावश नम हो गयी रेशमा की आँखों को देखते हुए अब समर अपनी बात कह रहा है। वैसे तो इन तीनों की बातों में औपचारिकता की झलक तो लेशमात्र भी नहीं जान पड़ रही .. हाँ .. बेशक़ उनकी बातों में आत्मीयता का ही भान हो रहा है। वैसे भी जब दो इंसानों के विचार आपस में मिलते हों तो ... तो .. पर .. हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज किन्नरों को इंसान मानता कब है भला ?
किन्नरों को तो .. हमारा उपरोक्त समाज हिजड़ा, छक्का, नामर्द जैसे संज्ञाओं से विभूषित करके सदियों से .. पीढ़ी दर पीढ़ी उपहास का पात्र बनाकर किसी 'एलियन' की तरह घूरता आया है। हमारी सामाजिक दकियानूसी सोचों के कारणवश ही, हमारे लिए सहज-सुलभ उपलब्ध कई सारे अवसरों से भी, सदियों उन्हें वंचित रख कर हमने अपने जननांगों पर अपनी गर्दन अकड़ाई है .. शायद ...
अब ऐसे में उन लोगों का मज़बूरीवश किसी 'ट्रेन-बस' में या कभी-कभी चलते-फिरते सड़कों-बाज़ारों में अक़्सर अपनी एक हथेली क्षैतिजतः और दूसरी को उर्ध्वाधरतः दिशा की मुद्रा में रखकर और दोनों हथेलियों की उंगलियों को लगभग नब्बे डिग्री पर अलग-अलग दिशा में रखते हुए .. सर्वाधिकार सुरक्षित वाली मुद्रा में विशेष तरीके से .. ताली बजा-बजा कर और .. प्राकृतिक रूप से अपनी काया के 'हार्मोनल' असंतुलन के कारणवश भारी आवाज़ या यूँ कहें कर्कश आवाज़ में कई तरह के लोकगीत या फिर फ़िल्मी हास्यानुकृति (पैरोडी/Parody) गा-गा कर अपने जीविकार्जन के लिए या तो .. प्रेमपूर्वक अपने हाथ फैला कर लोगों से सहायता माँगते हैं या कई बार भद्दे ढंग से छेड़ के या यूँ कहें कि .. परेशान करके रुपए वसूलते हैं। इनकी इन सब बेतुकी करतूतों के लिए भी हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज ही उत्तरदायी है .. शायद ...
प्रसंगवश .. यूँ तो सर्वविदित है कि हमारे सभ्य समाज की ताली का स्वरूप, इनकी ताली से इतर होता है। किन्नरों से इतर नर-नारी वाले हमारे तथाकथित समाज की तालियों के दौरान दोनों हथेलियाँ प्रायः उर्ध्वाधरतः रहती हैं और दोनों हथेलियों की सारी उंगलियाँ एक-दूसरे को स्पर्श करती हुईं, एक-दूसरे के सामने समानान्तर होती हैं। इन तालियों के भी कई ताल और ताल पर आधारित इनके नाना प्रकार होते हैं। मसलन- आरती-पूजा की ताली, कव्वाली की ताली, योगाभ्यास की ताली, 'सिनेमा हॉल' या 'मल्टीप्लेक्स' में बजने वाली ताली, खेल के मैदान में बजने वाली तालियाँ, नेता जी के भाषण के तदोपरान्त वाली ताली, किसी विशिष्ट जन के स्वागत की ताली, कवि गोष्ठी या मुशायरे वाली ताली, गुस्से में "वाह बेटा ! वाह !" कहते हुए हथेलियों को मसल-मसल कर बजायी गयी ताली, तम्बाकू (खैनी) मलते समय बजने वाली ताली, रास्ते या मैदान में साइकिल या 'स्कूटी' चलाना सीख रहे या रही किसी नवसिखुए के असंतुलित होकर गिर जाने पर आसपास खेल रहे बच्चों द्वारा बजायी गयी ताली, अबोध बच्चों द्वारा हर्षोल्लास में अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से बजायी गयी ताली, तथाकथित सभ्य जन द्वारा किसी सभा में बेआवाज़ बजायी जाने वाली सभ्य ताली, लोकसभा और राज्यसभा में क्रमशः सांसद और विधायकों द्वारा .. "ताली दोनों हाथ से बजती है" जैसे मुहावरे को मुँह चिढ़ाते हुए .. मेज पर एक ही हथेली से थपकी दे-देकर किसी बात के समर्थन में या किसी बात की ख़ुशी में बजने वाली ताली, मेले, मदारी, सर्कस में दर्शकों की सामूहिक तालियाँ इत्यादि नाना प्रकार की तालियों को .. करतल ध्वनियों के ताल-बेताल वाले सुर-ताल के साथ तो .. हम और हमारा तथाकथित सभ्य समाज सहर्ष स्वीकार कर ही लेता है .. परन्तु .. सिवाय और सिवाय एक ताली के .. किन्नरों की तालियों के .. शायद ...
ख़ैर ! .. अब रसिक चाय दुकान की कड़क चाय पीने के बाद समर, अमर और अजीत .. तीनों लोग मयंक, शशांक, रेशमा, रेशमा की टोली, मन्टू, चाँद और भूरा के साथ-साथ रसिक और कलुआ से भी मिलकर अपने 'पी जी' वाले गन्तव्य की ओर सभी को 'टाटा' की मुद्रा में हाथ हिलाते हुए प्रस्थान कर रहे हैं।
तभी सामने से मुहल्ले की ओर से ललन चच्चा (चाचा) कुछ भुनभुनाते-बड़बड़ाते-से रसिक चाय दुकान की ओर ही चले आ रहे हैं .. जो अभी चाय दुकान पर मौज़ूद सभी को आते हुए दिख भी गए हैं। उनके आने के कारण चाय दुकान पर बैठी शेष मंडली .. कुछ तो औपचारिकतावश और कुछ .. आदरवश उठते-उठते रह गयी है। मुहल्ले भर में ललन चच्चा की क़द्र है। सभी आदर भाव के साथ इनसे मिलते हैं। अब भला मिले भी क्यों नहीं .. इन्होंने भारत में उपलब्ध अनेकों संगीत के विश्वविद्यालयों में से एक- प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज से संगीत में स्नातक स्तरीय छह वर्षीय प्रभाकर की उपाधि प्राप्त की है। उपाधि तो अपनी जगह है, गायन में इनकी उपलब्धि भी कम नहीं है।
【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】