Friday, October 18, 2019

मन को जला कर ...

माना कि ... बिना दिवाली ही
जलाई थी कई मोमबत्तियाँ
भरी दुपहरी में भीड़ ने तुम्हारी 
और कुछ ने ढलती शाम की गोधूली बेला में
शहर के उस मशहूर चौक पर खड़ी मूक
एक महापुरुष की प्रस्तर-प्रतिमा के समक्ष
चमके थे उस शाम ढेर सारे फ़्लैश कैमरे के
कुछ अपनों के .. कुछ प्रेस-मिडिया वालों के
कैमरे के होते ही सावधान मुद्रा में
गले पर जोर देने के लिए
कुछ अतिरिक्त हॉर्स-पॉवर खर्च करती
बुलंद कई नारे भी तुम्हारे चीख़े थे ...

जो कैमरे की क़वायद आराम मुद्रा में होते ही
तुम्हारी आपसी हँसी-ठिठोली में बदली थी
रह गईं थीं पीछे कुछ की छोड़ी जलती मोमबत्तियाँ
चौक पर वहीं जलती रही .. पिघलने तक ..
जैसे छोड़ आते हैं किसी नदी किनारे
बारहा जलती हुई चिता लावारिश लाश के ..
शहर के नगर-निगम वाले
और शेष ... लोड शेडिंग में काम आ जाने की
सोच लिए कुछ लोगों की मुठ्ठीयों में
या कुछ के झोले में बुझी ख़ामोश 
बेजान-सी बस दुबकी पड़ी थी निरीह मोमबत्तियाँ ..

और .. फिर .. कल सुबह के अख़बार में
अपनी-अपनी तस्वीर छपने की आस लिए
लौट गए घर सभी ... खा-पीकर सोने आराम से ...
अरे हाँ ! घर लौटने वाली बात से
याद आई एक बात ... आज ही तो तुम्हारे
तथाकथित राम वन-गमन के बाद
सीता और लक्ष्मण संग अयोध्या लौटे थे
पर आज हमने भी तस्वीर के सामने 'उनकी'
एल ई डी की रोशनी के बाद भी ..
की है एक रस्मअदायगी .. निभाया है एक परम्परा
अपनी संस्कृति जो ठहरी .. एक दिया है जलाया
फिर वापस घर मेरा सुहाग क्यों नहीं लौटा !???
कहते हैं सब कि वो ..  शहीद हो चुके ...

पर .. मानता नहीं मन मेरा ..एक उम्मीद अभी भी
इस दिया के साथ ही है जल रही
कर तो नहीं पाई तुम्हारी जलाई
अनेकों मोमबत्तियाँ भी रोशन घर मेरा ..
पर .. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
मुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और  संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...


Thursday, October 17, 2019

यार चाँद ! ...

यार चाँद ! .. बतलाओ ना जरा !...
जो है मेरे मन के करीब अपनी प्रियतमा
होकर करीब भी मन के जिसके
जिसे अक़्सर मैं मना नहीं पाता 
और बतलाओ ना जरा ...
मीलों दूरी से कैसे भला !? ..
"सब" से "सब कुछ" लेता है तू मनवा
लिए अंदाज़ जैसे तुम बोल रहे ऊपर से
" अक्खा मुम्बई का मैं दादा ...
अपुन का जो बोलूँ  .. वही इधरिच करने का "
चाहे आबादी थी कभी तीस-पैंतीस लाख की
या आज सवा करोड़ से भी ज्यादा
ख़ास है ... तेरा सबसे अपनी मनवाना ...

कुछ ही दिन पहले शरद-पूर्णिमा
के नाम पर तुम्हारे चर्चे थे बड़े
अब फिर आज करवा चौथ !?...
धत् यार ! तू तो पागल ही कर देगा ...
यार ! कभी अमावस्या .. कभी पूर्णिमा ..
कभी दूज .. तो कभी तीज ..
कभी तीज .. कभी करवा चौथ ..
कभी सिवईयाँ .. तो कभी क़ुर्बानी ..
कभी होलिका-दहन .. तो कभी रंगोली ..
कभी उपवास ..  जो करे सुहाग की आयु लम्बी

यार ! तू  राजनेता है कोई जनेऊधारी जो
इफ़्तार में टोपी पहन रोज़ा बिना किए
रोज़ा तोड़ने अक़्सर पहुँच जाता
या फिर कोई राष्ट्रनेता जो अलग-अलग
राज्यों में .. संस्कृतियों में ..
कभी पगड़ी, कभी मुरेठा, कभी टोपी
तो कभी पजामा, कभी लुंगी , कभी धोती से
भीड़ और कैमरे के समक्ष खुद को है सजाता
या कोई है तू अवार्ड मिला सफल अभिनेता
जो हर किरदार में क्षण भर में है ढल जाता
या फिर कोई किसी मुहल्ले-शहर की गली-गली में
चौक-चौराहों ... फुटपाथों पर ..
घुमने वाला कोई रंगीला बहुरूपिया
या सच में है तू एक धर्मनिरपेक्ष
भारतीय नागरिक सच्चा वाला

कहा जो है 'यार' तुम्हें तो अब गुस्सा मत जाना
कहूँगा नहीं अब तो तुमको कभी भी 'मामा'
देखो ! मैं हो गया हूँ कितना बड़ा ! ..
बड़ा क्या ... बुढ़ा भी ... हो रहे
बाल सफेद चमकदार चमचम
हो तुम्हारी चाँदनी जैसे ...
तू तो सदियों से है जस का तस .. बस जवान
ये भी राज की बात कभी
फ़ुर्सत में किसी दिन मुझे बतलाना
पर बहरहाल .. तुमने भी तो सुना ही होगा ना !? ...
बच्चे जब हो जाते हैं बड़े 
बड़ों के दोस्त हैं बन जाते
बतलाऊँ मैं एक बात राज की
अपने बेटे को हमने हर पल
बचपन से ही दोस्त ही है माना
अब तो तू अपनी राज की बात .. दादागिरी वाली
यार ... मेरे कान में फुसफुसा जरा ...
यार चाँद ! ... सच-सच ...बतलाओ ना जरा !...


Tuesday, October 15, 2019

मुआ चाँद ...

शरद-पूर्णिमा की सारी-सारी रात
चर्चे में था ये मुआ चाँद ..
है ना सजन !? ...
सुना है वो बरसाता रहा
प्रेम-रस .. अमृत-अंश ..
जिसे पी सभी होते रहे मगन
शहर सारा अपना निभाता रहा
जाग कर सारी-सारी रात
कोजागरी .. कौमुदी व्रत का चलन
वृन्दावन के निधिवन में रचाए
महारास श्री कृष्ण भी
राधा और गोपियों संग
हुआ बावरा .. करता कोजागरा
सागर करके ज्वार-भाटा का आवागमन
है ना सजन !? ...

पर ये चाँद .. ये कृष्ण .. ये सागर ...
कब भाता इन्हें भला
किसी एक का बंधन !? ...
चाँद मुआ सारे शहर का ..
सागर के भी किनारे कई ..
कृष्ण की राधा भी
संग कई-कई गोपियाँ ...
है ना सजन !? ...

पर जब होते हैं हम-दोनों साथ-साथ
होता नहीं साथ कोई दूसरा
ना हमारे-तुम्हारे बीच
और ना हमारे-तुम्हारे
रिश्ते के दरमियाँ .. है ना !?
हृदय-सागर के अलिंद-निलय तट पर
सजता रक्त-प्रवाह का ज्वार-भाटा
पूरी रात जब-जब संग जागते
हो जाता अपना कोजागरा
हथेलियों में जो अपनी थाम लो
सूरत मेरी तो हो जाए पूर्णिमा
सीने में तुम्हारे जो
छुपा लूँ मुखड़ा अपना
हो जाए पल में अमावस्या
रख दो जो मेरे अधरों पर
अधर अपना .. बरसाता ...
प्रेम-रस .. अमृत-अंश ..
जिसका ना कोई बँटवारा
केवल हमदोनों का यूँ
मन जाता है ना
हर रात सजन शरद-पूर्णिमा
है ना सजन !? ... बोलो ना ! ...



Saturday, October 12, 2019

प्रेम के तीन आयाम ...

स्नेह, प्रेम और श्रद्धा हैं
तीनों प्रेम के तीन आयाम
बचपन, जवानी और बुढ़ापा
हैं जैसे जीवन के तीन सोपान
या कठोपनिषद् के तथाकथित
पात्र नचिकेता का यमराज से
मानो मांगे गए तीन वरदान ...
है प्रेम आज भी गूढ़ और रहस्यमयी
आयतनरहित .. परिभाषा अनगिनत
मानो आत्मा के रहस्य वाला
नचिकेता का मांगा गया तीसरा वरदान

संज्ञान है विज्ञान का कि प्रेम है बस
तन की परखनली में पकता
साँसों की धौंकनी पर
तप्त रक्त के ताप से
चार रसायनों - टेस्टोस्टेरोन, डोपामाइन,
एड्रॉलिन और सेरोटॉनिन का कॉकटेल
और कॉकटेल का नशा कुछ ऐसा कि ...
शब्द "प्रेम" सुनते ही है होता
"कुछ-कुछ" या सच कहें तो
"बहुत कुछ" का विस्तार
मानो हो जैसे "ॐ" उच्चारने से
बदन में ऊर्जा का संचार

यूँ तो कभी पाना है प्रेम .. कभी खोना है प्रेम
कभी अपनाना है प्रेम .. तो
कभी मजबूरीवश ठुकराना है प्रेम
ऑनर किलिंग हो तो खतरा है प्रेम
या फिर डोपामाइन का क़तरा है प्रेम
किसी से लिपटना है प्रेम
या किसी से बिछुड़ना है प्रेम
कभी आग़ोश है प्रेम .. कभी बिछोह है प्रेम
कभी ऊर्जा है प्रेम तो ..  कभी वर्षा है प्रेम
युगों रहा है .. आगे भी रहेगा निरन्तर
कुछ अंधों का हाथी टटोलना जैसा ही प्रेम ...

भेद का पर्दा

पर्दा का उठना-गिरना ...
गिरना-उठना है एक
अनवरत सिलसिला
पलकों के उठने-गिरने ...
गिरने-उठने जैसा
मानो हो दिनचर्या का अंग
पर्दा है कभी क़ुदरती नियामत
मसलन -  नयनों की पलकें
सुरक्षा-कवच ... ओज़ोन की परत
मानव-तन पर त्वचा का आवरण ...

कभी होता है जरुरी हटना भी
पर पर्दे का कई बार
हो जो अगर पड़ा अक्ल पर
और समय से उठना भी
प्रदर्शन शुरु होने से पहले
किसी भी मंच पर
और हाँ !!! ...
हटा रहे मन से भी
हर एक भेद का पर्दा 
जो हो मन से मन का
रिश्ता कोई प्रगाढ़ अगर ...
लगते हैं नागवार भी
कई बार यही पर्दे
अगर अनचाहा हो घुँघट या
फिर ज़बरन थोपा गया
कोई मज़हबी बुर्क़े का चलन ...

सृजन के लिए भी
कभी भी .. कोई भी ... 
सृष्टी की कड़ी
होता है निहायत ज़रूरी
पर्दे का हटना हाल में हर
मसलन - अमूमन अंकुरण के लिए
हटना हो बीज का आवरण
या गर्भ की झिल्ली के फटने के
बाद हो मानव-अवतरण
या मानव-सृजन के बुनियाद के
पल भी उतरना हो रचयिता
नर-नारी युगल का वसन ...


Friday, October 11, 2019

बच्चे अब बड़े हो गए हैं !!!

एक शाम अर्धांगनी की उलाहना -
"बच्चे अब बड़े हो गए हैं !!!
आपको शर्म नहीं आती क्या !?"

मैं घायल मन से -
"शर्म ही आती, तो ये बच्चे नहीं आते,
और बच्चे बड़े हो भी गए तो बतलाओ भला !!
उनके बढ़ने और अपनी रुमानियत घटने का
कौन सा अनुपातिक सम्बन्ध है ..... बोलो भला !?

पप्पू के admission के वक्त दिखा ना था पिछले साल
अपने college के दिनों का गुलमोहर टहपोर लाल
आज भी मौसम में खिला करता है वैसा ही
जैसा खिला करता था उन दिनों .. हमारे ज़माने में
हमारे college के campus में

हाँ .. टहपोर चाँदनी भी तो आज भी उतनी ही खिलती है
जितनी खिला करती थी वर्षों पहले .. हर पूर्णिमा के रात
हम दोनों दूर अपने-अपने आँगन या छत से मिनटों
तयशुदा एक ही समय पर निहारते थे चाँद को अपलक
ये सोच कर कि हमारी नजरें टकरा रही है साथ-साथ

फिर हमारी रुमानियत क्यों कम होने लगी भला !?
और फिर हमारी रुमानियत को
किसी की नज़र भी तो नहीं लगी होगी
लगी भी है तो ... मिरचा, लहसुन,सरसों लेकर 'न्योछ' दो
नज़र उतर जायेगी

पर ये कह कर दिल मत तोड़ा करो यार ..
कि ...
"बच्चे अब बड़े हो गए हैं ।"

Thursday, October 10, 2019

बोगनवेलिया-सा ...

बोगनवेलिया की
शाखाओं की मानिंद
कतरी गईं हैं
हर बार .. बारम्बार ..
हमारी उम्मीदें .. आशाएं ..
संवेदनाएं .. ना जाने
कई-कई बार
पर हम भी ठहरे
ज़िद्दी इतने कि ..
हर बार .. बारम्बार
तुम्हारी यादों के बसंत
आते ही फिर से
पनपा ही लेते हैं
उम्मीदों की शाखाएं
फैला ही लेते हैं
अपनी बाँहें तुम्हारे लिए
ठीक बोगनवेलिया की
शाखाओं की मानिंद

माना कि ...
नहीं हैं पास हमारे
मनलुभावन दौलत .. रुतबे
या ओहदे के सुगन्ध प्यारे
पर मनमोहक .. मनभावन ..
प्यार का रंग तो है
जो तपती जेठ की
दुपहरी में भी
खिली-खिली रंगीन
बोगनवेलिया के फूलों की
पंखुड़ियों-सा दमकता है ...


कभी किया था जो
तुमसे प्यार और
हुआ था तुम्हारा मन से
हो ही नहीं पाते आज भी
किसी और के
ना मालों में गूंथा जाता हूँ
ना सजता हूँ
पूजा की थालियों में
ठीक बोगनवेलिया के
फूलों की तरह ... उपेक्षित-सा ...
और बोगनवेलिया की
शाखाओं की तरह
सिर को झुकाए
करता हूँ अनवरत
बस तुम्हारा इंतज़ार ...
केवल और केवल तुम्हारा इंतज़ार ...