मेड़ों से
सीलबंद
खेतों के
बर्तनों में
ठहरे पानी
के बीच,
पनपते
धान के
बिचड़ों की तरह,
आँखों के
कोटरों की
रुकी खारी
नमी में भी
उगा करती हैं,
अक़्सर ही
गृहिणियों की
कई कई उम्मीदें .. शायद ...
आड़ी-तिरछी
लकीरें
इनके पपड़ाए
होठों की,
हों मानो ...
'डिकोडिंग'
कोई ;
एड़ियों की
इनकी शुष्क
बिवाई की
कई आड़ी-तिरछी
लकीरों से सजे,
चित्रलिपिबद्ध
अनेक गूढ़
पर सारगर्भित
'कोडिंग' के
सुलझते जैसे .. शायद ...
गर्म मसाले संग
लहसुन-अदरख़ में
लिपटे मुर्गे, मांगुर या
झींगा मछलियों के
लटपटे मसाले वाली,
या कभी सरसों या
पोस्ता में पकी
कड़ाही भर
रोहू , कतला या
हिलसा के
झोर की गंध से,
'किचन' से लेकर
'ड्राइंग रूम' तक,
अपने घर की और ...
आसपड़ोस तक की भी,
सजा देती हैं अक़्सर
एतवार के एतवार ये .. शायद ...
शुद्ध शाकाहारी
परिवारों में भी
कभी पनीर की सब्जी,
या तो फिर कभी
कंगनी या मखाना
या फिर ..
बासमती चावल की
स्वादिष्ट सोंधी
रबड़ीदार तसमई से
सजाती हैं,
'बोन चाइना' की
धराऊ कटोरियाँ
एतवार के एतवार ये,
ताकि ...
सजे रहें ऐतबार,
घर में हरेक
रिश्तों के .. बस यूँ ही ...
【 "गृहिणियों" .. यहाँ, यह संज्ञा, केवल उन गृहिणियों के लिए है, जो आज भी कई भूखण्डों पर, चाहे वहाँ के निवासी या प्रवासी, किसी भी वर्ग (उच्च या निम्न) के लोग हों, उनके परिवारों में महिलायें आज भी खाना बनाने और संतान उत्पन्न करने की सारी यातनाएँ सहती, एक यंत्र मात्र ही हैं। घर-परिवार के किसी भी अहम फैसले में उनकी कोई भी भूमिका नहीं होती।
बस .. प्रतिक्रियाहीन-विहीन मौन दर्शक भर .. उनकी प्रसव-पीड़ा की चीख़ तक भी, उस "बुधिया" की चीख़ की तरह, आज भी "घीसू" और "माधव" जैसे लोगों द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं .. बस यूँ ही ... 】.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 18 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ... आज एक बार पुनः, रेणु जी के बहाने मंच की सालगिरह मुबारक़ हो आप सभी को .. बस यूँ ही ...
Deleteकोडिंग-डिकोंडिग, फटी एड़ियों के जीवंत चित्र, धान के बिचड़े सी जैसे अतुलनीय बिंब से सजी आपकी रचना रसोईघर तक सिमटी गृहणियों के मौन मन की मुखर,मार्मिक और गहन अभिव्यक्ति है।
ReplyDelete-----
तेल-मसालों में
तरह-तरह के पकवानों में
अपने अस्तित्व को घोलती,
कूटती-पिसती पकाती स्त्रियाँ...
अपनों के जीवन के
स्वाद का सामान भर
होती है
जिसे न फेंके जा सकने वाले
पुराने बरतनों और
मसाले के बदरंग डिब्बों के साथ
रखा जाता है
किसी कोने में उपेक्षित ताकि
अपनी सहूलियत के हिसाब से
उपयोग म़े लाया जा सके
विशेष अवसरों पर।
----
सादर।
जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही में अपनी अर्थपूर्ण उद्गार को समानांतर व्यक्त करने के लिए और ... मेरी बतकही की हर उस बिम्ब को पहचानने और स्पष्ट इंगित करने के लिए भी पुनः मन से आभार आपका .. बस यूँ ही ...
Deleteएतवार के एतबार ...शीर्षक होना चाहिए था
ReplyDeleteगृहणियाँ ...जिनके बारे में आपने लिखा बहुत सूक्ष्म अवलोकन किया है ....
अद्भुत बिम्ब से उपमेय और उपमान ले नारी के मन की व्यथा उकेर दी है ।
और सबसे अचंभे की बात है कि रिश्तों में ऐतबार की फिक्र भी बस नारी ही करती है जिसकी घर में कोई औकात नहीं समझता । सबको प्रसन्न करने में लगी रहती है हर दिन अलग अलग दस्तरखान सजा कर ।
शुक्र है आपने शाकाहारी लोगों की बात भी कह दी वरना मुझे लगा कि आप उन गृहणियों की ही बात कर रहे जिनके यहाँ मांसाहार का सेवन होता है ।
अक्सर ,
खारी नमी को
छुपाते हुए
सफाई देती हैं
गृहणियाँ
कांदा काटते हुए
बहता है
आँख से पानी ,
और मुँह घुमा
कड़छी चला देती हैं
जो पक रहा होता है
कड़ाही में ।
यूँ बनाये रखती हैं
ऐतबार
आपस के रिश्तों का ।
कुछ कुछ ये भी
जी ! नमन संग आभार आपका .. आपने अपनी उद्गार भरी चंद पंक्तियों को जोड़ कर और भी अर्थपूर्ण बना दिया मेरी बतकही को .. बस यूँ ही ...
Delete(उत्तर और पूर्वी भारत के नहीं जानने वाले पाठकों के लिए .. संगीता जी कांदा = प्याज)
वैसे शाकाहारी (की) चर्चा तो करनी ही थी, वर्ना हमारा सनातनी समाज तड़ीपार ना कर देता अब तक..😃😃
रही बात आपकी .. "एतवार के एतबार ...शीर्षक" होने की तो .. ऐसा दो कारणों से नहीं हुआ - एक तो इन महिलाओं को केवल "एतवार" के ही "ऐतबार" को नहीं संजोना होता, बल्कि 365 दिनों को ही बचाए रखना होता है और दूसरी ये कि शीर्षक में ही सब कुछ स्पष्ट ना कर के, एक दुविधा (suspense) बनाए रखने की एक गन्दी-सी आदत भी है .. बस यूँ ही ...☺
जी 365 दिन की बात तो मैंने हर दिन दस्तरखान की बात कह कर दी थी । रही सस्पेंस की बात तो मान लेते हैं 😄😄😄
Deleteऔर हाँ तड़ीपार तो मैं ही करने वाली थी आपको , बस बचा लिया आपने खुद को ।😆😆
😂😂😂 जान बची लाखों पाये !!!
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह सुन्दर उद्गार हृदय के!! बढ़िया अभिव्यक्ति है!!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteनमस्कार सर,बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है। घर परिवार हो या रिश्तो का एतबार सब कुछ सजाना और निभाना सबसे बड़ी पूंजी है स्त्री की ।
ReplyDeleteजी ! ऐसा ही मानना है कुछ लोगों का .. शायद ...
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआँखों के
कोटरों की
रुकी खारी
नमी में भी
उगा करती हैं,
अक़्सर ही
गृहिणियों की
कई कई उम्मीद
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteमेड़ों से
ReplyDeleteसीलबंद
खेतों के
बर्तनों में
ठहरे पानी
के बीच,
पनपते
धान के
बिचड़ों की तरह,
आँखों के
कोटरों की
रुकी खारी
नमी में भी
उगा करती हैं,
अक़्सर ही
गृहिणियों की
कई कई उम्मीदें ..बेहद हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
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