हाल ही में एक पहचान वाले महानुभाव ने चुटकी लेने के अंदाज़ में या पता नहीं गंभीर लहज़े में मुझ से बातों-बातों में कहा कि कलाकार प्रशंसा के भूखे होते हैं। हमको बात कुछ अटपटी लगी, क्योंकि हम ऐसा नहीं मानते; हालांकि वह ख़ुद भी अपने आप को कलाकार ही मानते या कहते हैं। उनके ये कहे प्रशंसा वाले कथन अक़्सर लोगबाग भी कहते हुए सुने जाते हैं। पर हमको अपनी आदतानुसार, किसी की काट्य बातों के लिए भी, केवल उस को ख़ुश रखने के लिए, उसकी बातों में हामी ना भरने वाली अपनी आदत के अनुसार, उन की इस बात से असहमति जताते हुए कहना पड़ा कि आप गलत कह रहे हैं, कलाकार नहीं, बल्कि टुटपुँजिए कलाकार प्रशंसा के भूखे भले ही हो सकते हैं, पर सच्चा कलाकार प्रशंसा का नहीं, बल्कि निष्पक्ष समीक्षा की चाह भर ही रखता है .. शायद ...
ख़ैर ! .. ये तो हो गई इधर-उधर की बतकही भर, पर कलाकार शब्द की चर्चा से कला की भी याद आ गयी कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से ये मानते आए हैं और सही भी तो है, कि कला के बिना, विशेषकर संगीत और साहित्य के बिना, इंसान और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता। परन्तु पशु बेचारे इन दोनों में रूचि भले ही ना लेते हों, पर कम से कम इनका विरोध भी तो नहीं करते हैं। लेकिन इसी धरती पर इन पशुओं से भी गई-गुजरी कई ऐसी तथाकथित मानव नस्लें हैं, जो इन दोनों का खुलेआम विरोध ही नहीं करतीं, बल्कि इन दोनों में रूचि रखने वाले क़ाबिल लोगों का क़त्लेआम करने में भी तनिक हिचक महसूस नहीं करतीं वरन् शान महसूस करतीं हैं। ऐसा कर के अपने आप को मज़हबी, सर्वशक्तिमान, सर्वश्रेष्ठ और पाक-साफ़ भी मानतीं हैं .. ये जो तथाकथित शरीया कानून के या ना जाने वास्तव में किसी कसाई घरों के पाशविक नुमाइंदे हैं .. शायद ...
हम इन दिनों रक्षाबंधन, जन्माष्टमी या तीज जैसे वर्तमान वर्ष के बीते त्योहारों या दशहरा, दीवाली या छठ जैसे भावी त्योहारों के नाम पर लाख खुश हो लें, नाना प्रकार की मिठाईयों या पकवानों से अपना और दूसरों का भी मुँह मीठा कर-करवा लें, एक दूसरे पर शुभकामनाओं और बधाईयों की बौछार कर दें, साहित्यिक बुद्धिजीवी हैं तो कुछ भी लिख लें, कुछ भी 'पोस्ट' कर दें, परन्तु .. कुछ भी करने-कहने से पहले .. वर्तमान में, शायद ही कोई संवेदनशील, साहित्यिक बुद्धिजीवी या आम जन भी होंगे, जो कि विश्व पटल पर अफगानिस्तान में घट रही अनचाही विभिन्न विभत्स घटनाओं को जनसंचार के उपलब्ध विभिन्न संसाधनों के माध्यम से, आधी-अधूरी ही सही, देख-जान कर मर्माहत या चिंतित ना होते होंगें और भविष्य के विध्वंसक भय की अनचाही धमक से भयभीत ना होते होंगे .. शायद ...
बेबस अदना-सा एक अदद इंसान, उन नरपिशाच अदम्यों के समक्ष कर भी क्या सकता है भला ! .. सिवाय अपनी नश्वर, पर .. शेष बची साँसों, धड़कनों .. अपने कतरे भर बचे-खुचे जीवन को बचाने की सफल या असफल गुहार लगाने की .. विवश, बेबस, कातर, करुण गुहार ... आँखों के सामने दिख रहे तथाकथित ज़िहादी मज़हबी इंसानों से भी और तथाकथित अनदेखे ऊपर वाले से भी .. बस यूँ ही ... कि :-
(१)
रक्त के थक्के .. धब्बे .. :-
शग़ल है शायद
सुनने की तुम्हें
अनवरत, अविरल,
मंत्रों की फुसफुसाहटें,
कलमों की बुदबुदाहटें,
अज़ानों की चिल्लाहटें .. शायद ...
सुन भी लिया कर
कभी तो तनिक ..
ज़ालिम तुम इन सारे
चीखों औ चीत्कारों को,
सिसकियों और ..
कपसती पुकारों को .. बस यूँ ही ...
लहू निरीहों के बहते,
यूँ तो देखें हैं तू ने बहुतेरे,
हर बार क़ुर्बानियों
औ बलि के नाम पे, काश ! ..
देख लेता तू एक बार सूखे, सहमे-से,
इंसानी रक्त के थक्के .. धब्बे .. बस यूँ ही ...
पर तथाकथित अवतारों से की गई इन व्यर्थ की गुहारों के पहले या बाद में या फिर साथ-साथ ही, हम सभी को एक बार ही सही अपने-अपने गिरेबान में भी झाँकने की ज़रूरत है .. शायद .. बस यूँ ही ...
(२)
रहे याद हमें, उन्हें भी ... :-
अक़्सर ..
जब कभी भी
चढ़ते देखा है कहीं
मंदिर की सीढ़ियों पर यदि
किसी को भी तो अनायास ही।
आ जाते हैं याद मुझे ग़ालिब जी -
"हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।" .. बस यूँ ही ...
बर्बर ..
हैं ये बेहूदे बेहद ही
दहशत हर रहगुज़र की
करते जो क़त्लेआम नाहक़ ही
नाम पे शरीयत के कहीं भी, कभी भी।
आ जाते काश जो समझाने इन्हें ख़ुसरो जी -
"खुसरो सोई पीर है, जो जानत पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर-बेपीर।" .. बस यूँ ही ...
दरबदर ..
राह से भटके सभी
जितने वे, उतने हम भी,
'तुलसी' जी रहे याद हमें, उन्हें भी
ऊलजलूल कही तत्कालीन 'बातें' सभी।
काश समझते हम, 'तुलसी' जी कम, ज्यादा ख़ुसरो जी
"खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।" .. बस यूँ ही ...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 14 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसुबोध भाई, सही कहा आपने की सच्चा कलाकार प्रशंसा का नहीं,बल्कि निष्पक्ष समीक्षा की चाह भर ही रखता है ..।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteजहाँ तक एक सच्चे कलाकार की बात है तो वो हमेशा निष्पक्ष समीक्षा को प्राथमिकता देगा लेकिन ये समीक्षक की योग्यता को दर्शाता है कि वो समीक्षा समालोचना होनी चाहिए न कि आलोचना भर ।
ReplyDeleteरही संवेदनशीलता की बात
तो आज हम
अपने त्योहार मनाते हुए ,
उनके बारे में
कुछ लिखते हुए ,
मिठाई खाते हुए ,
शुभकामनाएँ देते हुए ,
सुन रहे हैं एक आहट
जो धीरे - धीरे
बढ़ रही है हमारी ओर
जिसे अनेक बुद्धिजीवी
ठुकरा रहे हैं सुनने से
लेकिन मुझे दिख रहे हैं
अपनी ही नस्ल के
रक्त के धब्बे
छितराये हुए
अपनी रूहों के चारों ओर ।
डरा सहमा सा मन
नहीं चाहता कि
हमारी नस्ल आगे बढ़े ।
विश्व के शक्तिशाली देश
जब देने लगे
आदमखोरों को मान्यता
तो ऐसा सोचना
लाज़िम ही हो जाता है ।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
ReplyDelete"जिसे अनेक बुद्धिजीवी
ठुकरा रहे हैं सुनने से
लेकिन मुझे दिख रहे हैं
अपनी ही नस्ल के
रक्त के धब्बे
छितराये हुए
अपनी रूहों के चारों ओर ।" - सटीक चिंतन ...
परन्तु ...
"विश्व के शक्तिशाली देश
जब देने लगे
आदमखोरों को मान्यता"
की जगह हम ये सवाल क्यों नहीं अपने आप से पूछते कि वो तथाकथित जगत विधाता अगर सच में कहीं है भी तो ...
"ब्रह्मांड के शक्तिशाली विधाता
गढ़ता ही क्यों है
ऐसे आदमखोरों को
किसी माँ की कोख़ में,
जिस जननी को भी
नोचते हैं ये बीच चौक पे? .. बस यूँ ही ...
सच्चा कलाकार प्रशंसा का नहीं, बल्कि निष्पक्ष समीक्षा की चाह भर ही रखता है...
ReplyDeleteसही कहा सच्चा कलाकार समीक्षा की चाह रखता है ताकि अपनी कला को और भी निखार सके...।
लहू निरीहों के बहते,
यूँ तो देखें हैं तू ने बहुतेरे,
हर बार क़ुर्बानियों
औ बलि के नाम पे, काश ! ..
देख लेता तू एक बार सूखे, सहमे-से,
इंसानी रक्त के थक्के .. धब्बे
सच बहुत ही भयावह है अफगान की हालत
बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।
सुंदर, सार्थक रचना !........
ReplyDeleteब्लॉग पर आपका स्वागत है।