अक़्सर ...
बार-बार
हालात की
राख से
मंजे गए,
समय के
बर्तन में,
पश्चाताप के
ताप से
पके-अधपके
देह के
बुढ़ापे पर,
लगाती हुई
पक्की मुहर,
पनप ही
आती हैं
अनायास
अनचाही,
अनगिनत
झुर्रियाँ काली मिर्च-सी।
ऐसे में भी
ना जाने क्यों ...
लहसुन की
पकती पत्तियों-से
पियराए, कुम्हलाये,
मुखड़े पर भी
छा जाती है
पुदीने की पत्तियों-सी
झुर्रीदार हरियाली,
जब कभी भी
चाही-अनचाही आती हैं
यादें तुम्हारी पगी
नेह में तुम्हारे।
तुम्हारी .. वो ..
कुछ सुतवां और
कुछ मंगोली के
'मॉकटेल'-सी नाक, ..
तुलसी मंजरी-सी
सोंधी साँसें और ..
नाक की लौंग भी,
ठीक गर्म मसाले वाले
लौंग के जैसे।
और यादें भी ना ! ..
मानो जैसे ..
पिघलते हैं,
पसरते हैं,
हौले-हौले
जिह्वा पर
सुगंधित और
स्वादिष्ट ज़ायक़े
बनकर अक़्सर,
पोपले
मुँह में
दरकने पर,
अल्प दंतयुक्त
या दंतहीन
मसूड़ों के जाँते में,
हरी पोटली वाली
तिजोरी में बंद
नन्हें-नन्हें,
काले-काले दाने,
छोटी इलायची के .. बस यूँ ही ...
【 माॅकटेल - Mocktail - एकाधिक नशारहित पेय-मिश्रण। - - (मिश्रित रूप के अर्थ में) 】.
वाह।👌
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-06-2021को चर्चा – 4,085 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 जून 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteयानी सबका सत यहाँ निकाल कर रख दिया है ।
ReplyDeleteबहुत खूब
:) :)
Deleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
बहुत सुंदर कविता...
ReplyDeleteनूतन बिम्बों का सटीक प्रयोग 🙏
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteगहन भावों की मनमोहक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
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