ख़ामोश कर ही दिया जाता है बार-बार
चौक-चौराहों पर मिल समझदारों के साथ
"हल्ला बोल" का सूत्रधार
पर ख़ामोशी भी चुप कहाँ रहती है भला !?
अपने शब्दों में आज भी चीख़ती है यहाँ ... कि ...
"किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं"
पूछती है "सफ़दर हाशमी" की आत्मा कि
कब तक ख़ामोश मुर्दे बने जीते रहोगे भला !???
कब तक जीते रहोगे भला!? कब तक !??
बोलो ना ! ख़ामोश क्यों हो !?? बोलो ना जरा !!!
कोख़ हो ख़ामोश लाख मगर
ख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है
अक़्सर चुप कराता है मसीहे को ज़माना मगर
उसकी ख़ामोशी तो बारहा चीख़ती है
अब हम ही हुए गूँगे और बहरे ... अपाहिज ...
उस गुम्बद के नीचे खड़े पत्थर की तरह जो
सदियों से भीड़ की आड़ में होने वाली
बलात्कार ... हत्याओं के बाद भी
कुछ बोलता नहीं है ... ख़ामोश खड़ा है ...
क्या ख़त्म हो गए कपड़े "द्रौपदी" के तन में ही सारे
या अगर था भी कभी वो सच में भी तो
आज हम मुर्दों-सा पड़ा है !??
बात यही छेड़ी थी ना तुमने ... ऐ मूढ़ प्राणी !
बस तुम्हारी सोचों को ज़हर के प्याली में डुबो कर
करा दिया गया था ना ख़ामोश तुम को ... पर ...
क्या फ़र्क पड़ता है एक "सुकरात" की ख़ामोशी से
आज भी आवाज़ उसकी "अफ़लातून" और "अरस्तू" में गूंजती है
पौ फटने से पहले बांग देने वाले मुर्गों को हम अक़्सर
हलाल कर देते हमारी नींद में ख़लल की वजह से
आसानी से कह देते हैं "निराला" और "उग्र" को
हम पागल और पृथ्वी की गोलाई को
गैलीलियो के कहने पर नकारते हैं
ख़ामोश पत्थर को पूजना ...
ख़ामोश मुर्दों-सा रहना ... ख़ामोशी का ओढ़े लबादा
सच कहाँ और कब हमें सुझता है !???
"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...
ओढ़ा दिया जाएगा ख़ामोशी का लबादा ...
हाँ .... मुझे भी ख़ामोशी का लबादा ....
ख़ामोशी का लबादा .....
चौक-चौराहों पर मिल समझदारों के साथ
"हल्ला बोल" का सूत्रधार
पर ख़ामोशी भी चुप कहाँ रहती है भला !?
अपने शब्दों में आज भी चीख़ती है यहाँ ... कि ...
"किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं"
पूछती है "सफ़दर हाशमी" की आत्मा कि
कब तक ख़ामोश मुर्दे बने जीते रहोगे भला !???
कब तक जीते रहोगे भला!? कब तक !??
बोलो ना ! ख़ामोश क्यों हो !?? बोलो ना जरा !!!
कोख़ हो ख़ामोश लाख मगर
ख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है
अक़्सर चुप कराता है मसीहे को ज़माना मगर
उसकी ख़ामोशी तो बारहा चीख़ती है
अब हम ही हुए गूँगे और बहरे ... अपाहिज ...
उस गुम्बद के नीचे खड़े पत्थर की तरह जो
सदियों से भीड़ की आड़ में होने वाली
बलात्कार ... हत्याओं के बाद भी
कुछ बोलता नहीं है ... ख़ामोश खड़ा है ...
क्या ख़त्म हो गए कपड़े "द्रौपदी" के तन में ही सारे
या अगर था भी कभी वो सच में भी तो
आज हम मुर्दों-सा पड़ा है !??
बात यही छेड़ी थी ना तुमने ... ऐ मूढ़ प्राणी !
बस तुम्हारी सोचों को ज़हर के प्याली में डुबो कर
करा दिया गया था ना ख़ामोश तुम को ... पर ...
क्या फ़र्क पड़ता है एक "सुकरात" की ख़ामोशी से
आज भी आवाज़ उसकी "अफ़लातून" और "अरस्तू" में गूंजती है
पौ फटने से पहले बांग देने वाले मुर्गों को हम अक़्सर
हलाल कर देते हमारी नींद में ख़लल की वजह से
आसानी से कह देते हैं "निराला" और "उग्र" को
हम पागल और पृथ्वी की गोलाई को
गैलीलियो के कहने पर नकारते हैं
ख़ामोश पत्थर को पूजना ...
ख़ामोश मुर्दों-सा रहना ... ख़ामोशी का ओढ़े लबादा
सच कहाँ और कब हमें सुझता है !???
"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...
ओढ़ा दिया जाएगा ख़ामोशी का लबादा ...
हाँ .... मुझे भी ख़ामोशी का लबादा ....
ख़ामोशी का लबादा .....
बेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteशुक्रिया अभिलाषा जी !
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-09-2019) को "हिन्दी को वनवास" (चर्चा अंक- 3460) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी ! नमस्कार , नमन ! हार्दिक आभार मेरी रचना को साझा कर मान देने के लिए ...
Delete(विशेष :- शायद मेरी तकनिकी जानकारी की कमी की वजह से चर्चा मंच पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहा हूँ । मैं आप से अनुरोध करता हूँ कि कृपया तरीका सुझाएं, ताकि मैं अपने मन का उल्लास वहाँ लिख सकूँ प्रतिक्रियास्वरूप। )
आपकी लिखी रचना "पाँच लिंकों का आनन्द" के हम-क़दम के 88 वें अंक में सोमवार 16 सितंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार रवीन्द्र जी मेरी रचना को हमक़दम अंक में साझा करने के लिए ....
Deleteवाह!!सुबोध जी ,क्या बात है ।!सुंदर व सटीक ।
ReplyDeleteपौ फटने से पहले उठने वाले मुर्गों को हम अक्सर
हलाल कर देते हैं हमारी नींद मेंं खलल की वजह से ....
वाह!दिल को छू गई रचना ।
शुभा जी ! रचना को रचना की सुंदरता से भी ज्यादा सुन्दर विशेषणों से सुसज्जित करने के लिए आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर रचना आदरणीय
ReplyDeleteरचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार आपका ...महोदया ..
Deleteकोख़ हो ख़ामोश लाख मगर
ReplyDeleteख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है
अक़्सर चुप कराता है मसीहे को ज़माना मगर
उसकी ख़ामोशी तो बारहा चीख़ती है
खामोशी बोलती ही नहीं चीखती भी है!!!
वाह!!!!
आपके एक "वाह" का भार मेरी रचना से कई गुणा ज्यादा है , जो मुझे आपका हार्दिक आभार व्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है , नमन महोदया ! ...
Deleteबहुत ही सुंदर ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार रचना तक आने और सराहने के लिए ...
Deleteआदरणीय सुबोध जी -- समाज के मर्मान्तक विषयों पर ख़ामोशी आज के समाज का कडवा सच है | इसके पीछे बहुत तरह के पूर्वाग्रह नज़र आते है | लोग सोचते हैं कि जो भुगत भोगी है उस जैसे कोई समस्या उनके जीवन में कभी नहीं आयेगी | पर जिसे हम होनी -अनहोनी कुछ भी कह देते है कही भी किसी के भी साथ घटित हो सकती है | सामूहिक चुप्पी अपराध और अराजकता को बढ़ावा देकर जुर्म की दुनिया का वर्चस्व बड़ी आसानी से कायम करवा देती है || दुनिया में जब सफ़दर हाशमी , सुकरात , जैसे इंसानियत के मसीहा अपनी आवाज बुलंद करते हैं तो उनका जीवन भले इन्ही कुत्सित मानसिकता वाले लोगों के हाथों मिट जाए पर उनकी आवाज समाज के लिए प्रेरणा बनकर सदियों गूंजा करती है | सामाजिक विमर्श से भरी आपकी रचना तो बेहतरीन है ही पर ये पंक्ति मुझे विशेष तौर पर हृदयग्राही लगी
ReplyDeleteकोख़ हो ख़ामोश लाख मगर
ख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है!!!!
आपकी विशिष्ट शैली में लिखी इस रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें |
महोदया ! किसी की भी रचना को ध्यानपूर्वक पढ़ कर और उस पर आपकी आने वाली यथोचित विश्लेषण भरी प्रतिक्रियाओं से , सच कहूँ तो, कई दफ़ा मूल रचना भी झेंप जाती है। मैं ये नहीं कह रहा कि जिनकी प्रतिक्रिया संक्षिप्त होती है वो ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ते या पढ़ती हैं। वे लोग भी पढ़ते हैं, पर आप समय देकर लिखती हैं।
Deleteसच कहूँ तो कई बार आपकी प्रतिक्रिया का आभार केवल अधूरा ये सोच कर रह जाता है, कि इसके समकक्ष समय निकाल कर लिखूँगा , पर .... छूट जाती है।
आप को बुरा भी लगता ही होगा। पर मंशा ऐसी कतई नहीं होती। हाँ, ये भी सच है कि मैं कोई नियमित साहित्यकार नहीं हूँ, बस शौकिया मन की कुछ अनकही बातों को टाइप भर कर देता हूँ। कई दफ़ा नुक़्ता,अनुस्वार,लिंग,श-स का अंतर रह जाता है। ब्लॉग की दुनिया के स्थापित साहित्यकारों वाली ना तो अनुशासन है और ना ही संस्कृति। हो सकता है, उन दृष्टिकोण से भी कही-कहीं मैं अपराधी हो सकता हूँ। मैं तो मनोरंजन के लिए लिखता था, Open Mics में जाता था/हूँ , उसको भी कई तथाकथित साहित्यकार लोग हेय दृष्टि से देखते हैं। मैं कहता हूँ कि बंद कमरे में या social media पर चन्द बुद्धिजीवियों की उच्च व्याकरण की परिसीमा में परिमार्जित रचना का निर्माण, मुद्रण, बंद कमरे में विमोचन और चन्द स्थापित साहित्यकारों द्वारा पाठन और समीक्षा ही उदेश्य है हमारा। हम आमजन तक इस दम्भ भरे ब्लॉग से आमजन सुलभ कब बना पाएंगे या नहीं बनाना चाहिए ? इस से सामाजिक कुरीतियों को नहीं कुचला जाना चाहिए ? युवा पीढ़ी की मानसिकता नहीं बदली जानी चाहिए? अंधपरम्पराओं को दमित नहीं की जानी चाहिए ? साहित्य और परिमार्जित साहित्यकारों का औचित्य और दायित्व भी प्रतिफलित होना चाहिए या बस ब्लॉग के वाह तक सिमट रह जाना चाहिए ? Facebook, messenger, Instagram, Yourquote ये सारे ही माध्यम हैं अभिव्यक्ति के, किनको प्रतिष्टित और किन्हें अप्रतिष्ठित माना जाये ? मान भी लें कि ब्लॉग को छोड़ कर सारे अप्रतिस्ठित हैं भी तो उसे इस मुख्य धारा से जोड़ना भी तो हमारा ही काम है ना!?
आपकी शुभकामनाओं के लिए आभार आपका। फिर मिलते हैं किसी नई रचना के साथ ...
आदरणीय सुबोध जी , हार्दिक आभार मेरी साधारण सी टिप्पणी के विस्तृत प्रतिउत्तर के लिए | टिप्पणी थोड़ी विस्तृत हो जाती है इसका मुझे पता नहीं चल पाता | इसके साथ जो सवाल उठाए हैं उनकी जरूरत क्यों पडी समझ नहीं आया | मैंने कभी नहीं कहा कि मात्र ब्लॉग लिखने वाले ही साहित्यिक हैं और अन्य मंचों पर किसी को अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं | ब्लॉग रचनाओं को व्यवस्थित रखने का एक माध्यम भर है बाकि तो रचनाकर्म से ही रचनाकार की पहचान है | मंच चाहे कोई भी बहुजनहिताय ही हमारा मकसद होना चाहिए | और जो सन्दर्भ आपने उठाये हैं मैं उनसे वाकिफ नहीं | मैं भी आपकी तरह ही शौकिया लिखती हूँ और आपसे भी साधारण लेखन है मेरा | जाने- अनजाने मेरी किसी बात ने आपको आहत किया हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ | मैं तो खुद को एक पाठक भर मानती हूँ | पुनः आभार आपके आभार के लिए |
Deleteआपकी बातों से आहत जैसी कोई भी बात नहीं है। बस एक विचार साझा कर संवाद को यथोचित विस्तार देकर मन की सोच को शब्द दिया।
Deleteवैसे भी वैसे आहत का तो स्वागत करना चाहिए हर प्राणी को जिस से नई सृष्टि होती हो। हर एक पौधे के अंकुरण के लिए एक बीज को आहत हो कर नष्ट होना ही पड़ता है ना ... मैं साहित्यकार कहलाना भी नहीं चाहता, हाँ , कुछ मजबूरीवश एक अच्छा पाठक नहीं हूँ मैं, ये मानता हूँ ...
सुबोध जी आपसे संवाद के जरिए बहुत कुछ जाना। सचमुच विपक्ष के बिना पक्ष अधूरा है। विमर्श जारी रहना चाहिए। आप अच्छा लिख रहे हैं और मौलिक भी। बाकी सब भूल जाइये ।
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी का मोल बढ़ा दिया आपने, इसे महत्व देकर । आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं । मैं पढ़ती जरूर हूँ , पर रचना पर लिखना प्राय संभव नहीं हो पाता। मेरी हार्दिक शुभकामनायें। आपकी लिए। 🙏🙏
धन्यवाद आपका ... अच्छा लगा कि आपने "संवाद" शब्द व्यवहार में लाया, वर्ना लोग इसे "बहस" और कभी-कभी तो "कुतर्क" की भी संज्ञा देने से जरा भी नहीं हिचकते हैं .. शुभकामनाओं के लिए आभार आपका ...
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