धान के बिचड़े सरीखे
कर ठिकाना परिवर्त्तन
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से
लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को
पुरखे मेरे
किसी शहर की एक बस्ती तक
एक अदद आस लिए कि
कर ठिकाना परिवर्तन
होंगे पल्लवित-पुष्पित और समृद्ध
धान की बालियों सरीखे
फिर भला शहरों की बस्तियों, मुहल्लों में
गलियों और सड़कों पर
हल चलाते किसान, लहलहाते हरे-भरे खेत
खेतों की क्यारियाँ, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ
कब और किधर दिखती है भला !?
जैसे पलते-बढ़ते तो देखते हैं
अम्मा और बाबू जी रोज-रोज
अपनी कुवाँरी बेटियाँ
पर बुढ़ाते हुए अम्मा और बाबू जी को
रोज़-रोज़ कहाँ देख पाती हैं
ब्याही गई बेटियाँ !?
हाँ ... तो .. लहलहाते हरे-भरे खेत
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ
ये सब तो बस चित्रों में
चलचित्रों में या फिर
शयनयान की खुली खिड़कियों से या फिर
वातानुकूलित डब्बों की काँच-बंद
खिड़कियों से ही तो
देखी जाती हैं, निहारी जाती हैं...
हाँ, वैसे तो ... ट्रैक्टर ही है एक जो
गाँव हो या शहर , दिखता है दोनों जगह
बस होते हैं इनके उपयोग, प्रयोग
अलग-अलग
गाँवों में तो खेतों को जोतने में
लगन में दूल्हे और बारातियों को ले जाने में
या मेले के लिए बस्ती वालों को ढोने में
हाँ, वैसे ढोयी जाती है कभी-कभी...
अपनों की अर्थियां भी
"राम नाम सत्य है" के साथ
पर शहरों में, इस पर
कूड़ा-कर्कट ढोते हैं
नगर निगम वाले अपने सभ्य समाज के
ताकि सभ्य-समाज और भी सभ्य,
साफ़-सुथरा बना रहे
और स्वच्छता-अभियान सफल बने
या ढोते हैं पक्की ईंटें
जिनसे बनते है मन्दिर, मस्ज़िद,
गिरजाघर और गुरूद्वारे भी
घर, भवन,अस्पताल, विद्यालय,
पुस्तकालय और गगनचुम्बी इमारतें भी
गौर कीजिये ना ज़रा ....
इन सभी में समान हैं ये ईंटें
है ना !?...
जैसे इतनी जातियों, उपजातियों,धर्मों,
सम्प्रदायों के बावज़ूद समाज में हमारे
समान है हमारी साँसों वाली हवाएँ
है ना !? ...
हाँ.. तो हो रही थी बातें गाँव से शहर तक
और शहर से ट्रैक्टर तक
ये ट्रैक्टर का अगला-पिछला
असमान पहिया
दौड़ते हुए सड़कों पर
अक़्सर देते हैं एक सबक़
पुरुष-प्रधान समाज में
पुरुष होते तो हैं आगे
पर ट्रैक्टर के अगले पहियों जैसे
आगे... पर बौने ...
और औरतें - ट्रैक्टर की पिछले
पहियों जैसी पीछे
पर छोड़ देती हैं पीछे पुरुषों को
जब-जब ट्रैक्टर की पिछली पहियों-सी
फुलती-फूलती, फैलती, फलती हैं
गर्भवती बनकर और गढ़ती हैं
सृष्टि की नई-नई कड़ियाँ
सृष्टि की नई-नई कड़ियाँ ......
{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया)
कर ठिकाना परिवर्त्तन
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से
लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को
पुरखे मेरे
किसी शहर की एक बस्ती तक
एक अदद आस लिए कि
कर ठिकाना परिवर्तन
होंगे पल्लवित-पुष्पित और समृद्ध
धान की बालियों सरीखे
फिर भला शहरों की बस्तियों, मुहल्लों में
गलियों और सड़कों पर
हल चलाते किसान, लहलहाते हरे-भरे खेत
खेतों की क्यारियाँ, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ
कब और किधर दिखती है भला !?
जैसे पलते-बढ़ते तो देखते हैं
अम्मा और बाबू जी रोज-रोज
अपनी कुवाँरी बेटियाँ
पर बुढ़ाते हुए अम्मा और बाबू जी को
रोज़-रोज़ कहाँ देख पाती हैं
ब्याही गई बेटियाँ !?
हाँ ... तो .. लहलहाते हरे-भरे खेत
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ
ये सब तो बस चित्रों में
चलचित्रों में या फिर
शयनयान की खुली खिड़कियों से या फिर
वातानुकूलित डब्बों की काँच-बंद
खिड़कियों से ही तो
देखी जाती हैं, निहारी जाती हैं...
हाँ, वैसे तो ... ट्रैक्टर ही है एक जो
गाँव हो या शहर , दिखता है दोनों जगह
बस होते हैं इनके उपयोग, प्रयोग
अलग-अलग
गाँवों में तो खेतों को जोतने में
लगन में दूल्हे और बारातियों को ले जाने में
या मेले के लिए बस्ती वालों को ढोने में
हाँ, वैसे ढोयी जाती है कभी-कभी...
अपनों की अर्थियां भी
"राम नाम सत्य है" के साथ
पर शहरों में, इस पर
कूड़ा-कर्कट ढोते हैं
नगर निगम वाले अपने सभ्य समाज के
ताकि सभ्य-समाज और भी सभ्य,
साफ़-सुथरा बना रहे
और स्वच्छता-अभियान सफल बने
या ढोते हैं पक्की ईंटें
जिनसे बनते है मन्दिर, मस्ज़िद,
गिरजाघर और गुरूद्वारे भी
घर, भवन,अस्पताल, विद्यालय,
पुस्तकालय और गगनचुम्बी इमारतें भी
गौर कीजिये ना ज़रा ....
इन सभी में समान हैं ये ईंटें
है ना !?...
जैसे इतनी जातियों, उपजातियों,धर्मों,
सम्प्रदायों के बावज़ूद समाज में हमारे
समान है हमारी साँसों वाली हवाएँ
है ना !? ...
हाँ.. तो हो रही थी बातें गाँव से शहर तक
और शहर से ट्रैक्टर तक
ये ट्रैक्टर का अगला-पिछला
असमान पहिया
दौड़ते हुए सड़कों पर
अक़्सर देते हैं एक सबक़
पुरुष-प्रधान समाज में
पुरुष होते तो हैं आगे
पर ट्रैक्टर के अगले पहियों जैसे
आगे... पर बौने ...
और औरतें - ट्रैक्टर की पिछले
पहियों जैसी पीछे
पर छोड़ देती हैं पीछे पुरुषों को
जब-जब ट्रैक्टर की पिछली पहियों-सी
फुलती-फूलती, फैलती, फलती हैं
गर्भवती बनकर और गढ़ती हैं
सृष्टि की नई-नई कड़ियाँ
सृष्टि की नई-नई कड़ियाँ ......
{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया)
बहुत कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया इन शब्दों में ...
ReplyDeleteजी संजय जी, शुक्रिया आपका !
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