Monday, October 7, 2024

"अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" ...


आज की बतकही की शुरुआत करने के पहले आप को मन से नमन !

ईंटें भी बड़े ही कमाल की चीज़ हैं। स्थान परिवर्तन के साथ-साथ इनकी संज्ञा बदल जाती है। एक समान ईंटें, कहीं मन्दिर, कहीं मस्जिद, कहीं गुरुद्वारा, तो कहीं गिरजाघर। कहीं विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय, सचिवालय, तो कहीं देवालय, मदिरालय बन जाती हैं .. बस यूँ ही ...

एक तरह की ही हवाएँ भी .. जब गुलाब की फुलवारी से होकर आती हैं, तो हमारी साँसों को गुलाब की सुगंध से सुगन्धित कर जाती हैं और महुआ के बागान से गुजरती हुई आती है, तो हमारी साँसें महुआ के महक से महमहा जाती है।

ठीक वैसे ही .. एक बिन्दु .. हम फ़िल्म अभिनेत्री बिन्दु जी बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सामान्य बिन्दु की चर्चा कर रहे हैं। इन ईंटों और हवाओं की तरह जब उसी एक ही बिन्दु का हम अपनी मातृभाषा में इस्तेमाल करते हैं, तो उसे "अनुस्वार" कहते हैं, उर्दू में "नुक़्ता", गणित में दशमलव या सामान्य बिन्दु और अँग्रेजी में तो .. 'फुल स्टॉप' .. शायद ...

पर हमारी बतकही का अभी 'फुल स्टॉप' नहीं हुआ है। अभी तो आगे भी बातें करनी है, कि हमारी हिंदी भाषा में "अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" का भी हम इस्तेमाल करते हैं और देखते हैं, कि इनके अलग-अलग इस्तेमाल से शब्द के अर्थ बदल जाते हैं। जैसे - अगर अनुस्वार के साथ "अंगना" लिखने पर, इसका मतलब स्त्री होता है और अगर चन्द्रबिन्दु के साथ "अँगना" लिखा गया तो .. अर्थ हो जाता है, आँगन यानी Courtyard ...

तो इन्हीं दो अलग-अलग अर्थ वाले दो शब्दों से जुड़ी दो पँक्तियों वाली हमारी आज की मूल बतकही है, कि -

साहिब ! ये दौर भी भला आज कैसा गुजर रहा है ?

अंगना तो हैं घर में हमारे, पर .. वो अँगना कहाँ है ?

फिर मिलेंगे नए-नए शब्दों वाली बतकही के साथ .. तब तक के लिए पुनः .. आपको मन से नमन ... .. बस यूँ ही ...

Saturday, October 5, 2024

सेरेब्रल पाल्सी ...



सेरेब्रल पाल्सी
, मालूम नहीं, आप को इसके बारे में कितनी जानकारी है। सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात, जिसे कई लोग, कई दफ़ा "सी पी" भी कहते हैं। जिसकी विस्तृत जानकारी गूगल पर उपलब्ध है, अगर आप जानना चाहें तो ...

हम सभी प्रतिवर्ष 6 October को "विश्व सेरेब्रल पाल्सी दिवस" मनाते हैं। वैसे तो इस दिवस की शुरुआत सन् 2012 ईस्वी में हुई थी, परन्तु यह बीमारी सदियों पुरानी है। जिसका इलाज आज भी समस्त विश्व में उपलब्ध नहीं है। भले ही हमारे वैज्ञानिक चाँद व मंगल तक को लाँघ आए हों और .. सूरज तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हों, पर इतने उन्नत विज्ञान, ख़ासकर चिकित्सा विज्ञान, के बावजूद .. यह बीमारी अन्य असाध्य रोगों की तरह आज तक .. अब तक लाइलाज है।

इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों के साथ-साथ उनके परिवार के समस्त संलिप्त सदस्यों को भी ताउम्र मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक अतिरिक्त पीड़ा से प्रभावित रहना पड़ता है। 

परन्तु इन बीमारियों और बीमारों से जुड़ी हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में कई गलत अवधारणाएँ व्याप्त हैं। उन्हीं अवधारणाओं पर कुठाराघात करती हुई, हमारी दो पंक्तियों वाली बतकही, उन सभी सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त बच्चों को और उनके साथ समस्त संलिप्त परिवार के सदस्यों को समर्पित है .. बस यूँ ही ...

ग्रस्त तमाम बीमारियों के बीमारों को, भोगने की बात कहने वाले बुद्धिजीवियों, उन बीमारों को बतला कर, उन्हें जतला कर, उनके पाप कर्मों का फल, उनके पूर्व जन्मों का फल ।

सोचो रूढ़िवादियों, (क्षमा करें, बुद्धिजीवियों !) इहलीला हुई समाप्त जिन सभी की कोरोनाकाल में, जिस कारण से भी हो चाहे, था वो सब विज्ञान या पाप कर्मों का ही फलाफल ?









Monday, September 23, 2024

खुरचा हुआ चाँद ...


आज की बतकही की शुरुआत बिना किसी भूमिका के .. आज पढ़ने से ज़्यादा आपकी तो .. देखने व सुनने की बारी है .. शायद ...

तो सबसे पहले आप देखिए-सुनिए .. उपरोक्त 'वीडियो' को, जिसमें गत रविवार, 22.09.2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी देहरादून द्वारा प्रसारित लगभग पन्द्रह मिनट वाले साप्ताहिक कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में हमारी एकल बतकही (चार कविताओं के एकल काव्य पाठ) को .. बस यूँ ही ...
उपरोक्त 'वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व 'एडिटिंग' का सारा श्रेय जाता है .. मेरी भतीजी - "श्रेया श्रीवास्तव" को, जो 'रेडिओ स्टेशन' में 'रिकॉर्डिंग के दिन तो मेरे साथ ही थी .. देहरादून में अपने सपरिवार होने के कारण और कल रात वह लखनऊ से कार्यक्रम प्रसारण के दौरान अपने 'मोबाइल' से सम्पूर्ण कार्यक्रम के 'ऑडियो-वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व तत्पश्चात् 'एडिटिंग' करके मुझे 'व्हाट्सएप्प' पर उपरोक्त 'वीडियो' भेज दी .. जो आपके समक्ष है, श्रेया के ही सौजन्य से .. बस यूँ ही ...
चलते-चलते .. उपरोक्त चारों बतकही में सबसे ताज़ातरीन बतकही है - "खुरचा हुआ चाँद" .. जो .. जाने-अंजाने में .. दरअसल .. वास्तव में .. 'रेडिओ स्टेशन' में जिस दिन दोपहर में 'रिकॉर्डिंग' होनी थी, उसी दिन सुबह-सुबह जागने के बाद ही स्वतःस्फूर्त शैली में बिस्तर छोड़ने के पूर्व ही पूर्ण होता चला गया था .. बस यूँ ही ...
तो आप ही के लिए ...

खुरचा हुआ चाँद ...


आज ...
सुबह की पोटली में,
क्षितिज की एक छोर से,
उचकता, उभरता, ऊँघता-सा
मद्धिम सूरज, दिखा कुछ-कुछ कुतरा हुआ-सा .. शायद ...

दिखी परकटी हवा,
बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ,
कहीं-कहीं से कतरी हुई धरती,
सागर .. किसी गिरहकट का सताया हुआ-सा .. शायद ...

शाम की गठरी में
दिखा खुरचा हुआ चाँद,
अलोप लगे कुछ तारों के कंचे भी,
भटकती आत्माएँ विलुप्त जुगनुओं की यहाँ-वहाँ.. शायद ...

सिकड़ी में जकड़ी सुगंधें,
दिखी बिखरी ठठरियाँ फूलों की,
टकले दिखे सारे के सारे जंगल भी,
मानव दिखे ग़ुलाम-हाट में, रोबोट बने क्रेता-विक्रेता.. शायद ...

बन गए अल्पसंख्यक, मानव सारे,
बाद भी यहाँ जनसंख्या-विस्फोट के,
सत्ता सारी धरती की, हाथों में रोबोट के,
मानवी कोखों में भ्रूण, रोबोट-शुक्राणु है बो रहा .. शायद ...

तभी अज़ान की और,
पूजन की घंटियों की आवाज़ें,
पड़ोस के अलार्म व कुकर की आवाज़ें,
लोगों की आवाजाही की आवाज़ें, गयीं नींद से मुझे जगा.. शायद ...

साथ-साथ नींद के,
सुबह के सुनहरे सपने भी,
बिखर गए काँच की किरिच की तरह,
वही तो सोचूँ, कि हम मानवों का ब्रह्माण्ड भला ऐसा हो सकता है क्या ?
नहीं ना ? .. शायद ...

विशेष - आपको उपरोक्त बतकही के एक अनुच्छेद में पढ़ने के लिए मिला होगा - "बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ", परन्तु आकाशवाणी की अपनी कुछ विशेष हदों के कारण उसी बतकही के वाचन में आपको सुनने के लिए मिलेगा - "शोषित अल्हड़ नदियाँ" .. बस यूँ ही ...

वैसे तो हम इसे "अपहृत अल्हड़ नदियाँ" भी बोल या पढ़ सकते हैं, क्योंकि .. बलात्कृत, शोषित व अपहृत .. तीनों ही विशेषणों में आपसी तालमेल है .. कारण .. बलात्कार भी एक अपहरण है और अपहरण भी बलात्कार ही है, अगर बलात्कार के संकुचित अर्थ से परे उसके विस्तृत अर्थ पर ग़ौर की जाए तो .. और .. दोनों ही दुर्घटनाओं में .. पीड़ित हो या पीड़िता .. दोनों ही का समान शोषण होता है .. शायद ... .. नहीं क्या ? ... 】🙏

Thursday, September 19, 2024

चौबीस दिनों तक .. बस यूँ ही ...


अक्सर देखी है हमने, वकालत करते लोगों को, दुनिया भर में, अपने ख़ून के अटूट रिश्ते की।

पर महकती तो है मुस्कान घर-घर में, दो अलग-अलग ख़ूनों के संगम से, पनपे नन्हें फ़रिश्ते की।

उपरोक्त दो पंक्तियों के साथ आज की बतकही की शुरुआत (और अन्त भी .. शायद ...) करते हुए, इसकी अगली श्रृंखला में आप सभी से अपनी भी एक बात कह लेते हैं .. .. आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में ध्वनितरंगों के माध्यम से मेरी एकल बतकही के दौरान होने वाली है .. हमारी और आपकी एक संवेदनात्मक मुलाक़ात .. बस यूँ ही ...

अब .. आज चलते-चलते .. अपने साथ-साथ कुछ .. कुछ-कुछ अपने परिवेश की भी बतकही कर ली जाए .. .. विगत मंगलवार को सुबह मुहल्ले में आसपास नित्य विचरने वाले तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' .. मने .. कुत्ते-कुत्तियाँ को रोज़ की तरह 'बिस्कुट' या दूध-रोटी देने पर, वो सभी अपना-अपना मुँह घुमा कर, पड़ोस की कुछेक चहारदीवारियों के किनारे पड़ी जूठी हड्डियों की ओर तेजी से लपक लिए और उनको चबाने में मशग़ूल हो गए। हड्डियाँ भी तादाद में दिखीं थीं। स्वाभाविक है, कि एक दिन पहले की रात ही में आसपास के लोगों द्वारा इतने सारे माँस भक्षण किये गए होंगे। एक जगह तो बकरे (या बकरी) की और एक जगह मुर्ग़े (या मुर्गी) की हड्डियाँ पड़ी हुई जान पड़ती थीं .. शायद ...

यहाँ देहरादून में वर्तमान प्रवास के दौरान आसपास में एक-दो लोग .. जो लोग पहाड़ी-मैदानी में भेद किए बिना .. हमसे बातचीत करते हैं, उनसे तहक़ीक़ात की गई, तो मालूम हुआ, कि विगत मंगलवार से ही हमारे सभ्य-सुसंस्कृत समाज में हर वर्ष माना जाने वाला या मनाया जाने वाला तथाकथित पितृ पक्ष का आरम्भ हुआ है। इसीलिए पितृ पक्ष और नवरातरा (नवरात्रि) में क्रमशः पन्द्रह व नौ यानी कुल चौबीस दिनों तक लगातार धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मांसाहार वर्जित होने के कारणवश .. चौबीस दिनों तक शाकाहारी व सात्वीक रहने की बाध्यता के कारण .. उन धार्मिक चौबीस दिनों के आरम्भ होने के एक दिन पहले तक तो .. यानी विगत सोमवार की रात तक मांसाहारी लोगों द्वारा मन भर या दम भर माँस भकोसा गया है।

ख़ैर ! .. पितृ पक्ष और नवरात्रि क्यों मनायी जाती है .. कब मनायी जाती है .. और इसका क्या महत्व है .. इन सब की चर्चा ना करते हुए .. बस्स ! .. समाज के उन तमाम मनीषियों से .. बुद्धिजीवियों से .. केवल और केवल .. एक ही सवाल है, कि .. पितृ पक्ष के पन्द्रह दिनों और इसके तदनंतर नौ दिनों की नवरात्रि के कुल चौबीस दिनों के आरम्भ होने के दो-तीन दिन पहले से ही और एक दिन पहले की देर रात तक इतना अत्यधिक मात्रा में मांसाहार का उपभोग लोगबाग क्यों करते हैं भला ? 

जिसका प्रमाण .. मुहल्ले भर में कुछ चहारदीवारियों के आसपास विगत मंगलवार की सुबह में .. सोमवार की रात तक खाए गए मांसाहार की अवशेष पड़ी जूठी, चूसी-चबायी हड्डियाँ थीं। वैसे तो अगर .. विज्ञान की बात मानें, तो बकरे के माँस को मानव के पाचन तंत्र में पच कर अपशिष्ट निकलने तक में बारह से चौबीस घन्टे का समय लग सकता है। परन्तु हम सभी अगली सुबह .. सुबह-सुबह नहाने के क्रम में सिर (बाल) धोकर नहा लेने के बाद स्वयं को एकदम पाक-साफ़ मान लेते हैं .. शायद ...

अगर उपरोक्त विधियों से हम पाक-साफ़ होने वाली बात को सही व सच मान भी लें, तो भी .. ये बात नहीं पच पाती है, कि तीन सौ पैंसठ दिनों में कुछ ही दिनों के लिए ही लोग पाक-साफ़ होने या रहने की चेष्टा क्यों करते हैं भला ? और तो और .. उन पाक-साफ़ रहने वाले विशेष दिनों के समाप्त होने के बाद भी तो पुनः मांसाहार के लिए हमलोग बेतहाशा टूट पड़ते है .. शायद ...

ये तो वही बात हुई, कि धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करने वाले किसी युवा विद्यार्थी को जब ये पता चलता है, कि उस के अभिभावक उसके अध्ययन के दौरान उससे मिलने के लिए उसके छात्रावास तक या किराए के कमरे तक आने वाले हैं, तो उनके आने के एक दिन पहले अपने व्यसनानुसार मन भर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करके .. अपने धूम्रपान व मद्यपान के सारे साजोसामान उनसे छुपा कर रख देता है और फिर उनके जाने पर भी, जाते ही वह युवा विद्यार्थी उतनी देर या उतने दिनों की भरपाई (?) करते हुए .. छूट कर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करता है, क्योंकि उस दौरान तो उस युवा विद्यार्थी को अपना धूम्रपान व मद्यपान का व्यसन मज़बूरन बन्द रखना पड़ता है .. शायद ...

हम लोगों की भी मनःस्थिति इन चौबीस दिनों में कुछ-कुछ या ठीक-ठीक .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही व्यसन करने वाले उस युवा विद्यार्थी की तरह ही होती है ..  नहीं क्या ?


आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में पुनः मिलते हैं हमलोग .. बस यूँ ही ...

Wednesday, September 4, 2024

शिक्षक दिवस के बहाने ...

 


सुना है, कि आज शिक्षक दिवस है। 

तो ऐसे पावन अवसर पर हमारे समाज के सभी सवैतनिक एवं अवैतनिक शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक सादर नमन। परन्तु उन धर्म गुरुओं को तो कतई नहीं, जो हमारे समाज में सदियों से भावी पीढ़ियों के सामने अंधविश्वास एवं पाखण्ड परोसते आ रहे  हैं।

यूँ तो सवैतनिक गुरुओं को हम हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों व अन्य शिक्षण संस्थानों में पाते हैं, परन्तु अवैतनिक गुरु तो हमारे जीवन में पग-पग पर, पल-पल में मिलते हैं। 

चाहे वो अभिभावक के रूप में हों, सगे-सम्बन्धियों के रूप में हों, सखा-बंधुओं के रूप में हों या प्रेमी-प्रेमिका के रूप में या फिर शत्रु के रूप में।

वैसे तो हम इन दिवसों के पक्षधर कतई नहीं, क्योंकि जो हमारे जीवन की हमारी दिनचर्या में पग-पग पर, पल-पल में शामिल हैं, उन्हें एक दिवस की हद में बाँधना उचित नहीं है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ऐसे अवसर पर हम बचपन से कबीर के इस दोहे को दोहराते आएँ हैं, कि ...

" गुरु गोविंद दोउ खङे, काके लागूं पांय,

  बलिहारी गुरु आप की, गोविंद दियौ बताय। "

परन्तु कबीर के उस दोहे से हमें हमेशा वंचित रखा गया, जिसमें कबीर आगे कहते हैं, कि ...

 " गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार।

    आपा मैटैं हरि भजैं,   तब पावैं दीदार। "

पुनः सभी सवैतनिक एवं अवैतनिक शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक सादर नमन .. बस यूँ ही ...

Monday, August 19, 2024

छड यार ! ...

जला चुके साल-दर-साल, बारम्बार, मुहल्ले-मैदानों में, पुतलों को रावण के, था वो व्यभिचारी।

पर है अब, बारी-बारी से, निर्मम बलात्कारियों व नृशंस हत्यारों को, जबरन ज़िंदा जलाने की बारी।

वर्ना, होंगी आज नहीं तो कल, सुर्ख़ियों में ख़बरों की, माँ, बहन, बेटी या बीवी, हमारी या तुम्हारी।

यूँ तो आज बाज़ारों से राखियाँ बिकेंगी, खरीदी जाएंगी, बाँधी-बंधवाई भी जायेंगी, हर तरफ़ है ख़ास तैयारी।


मुर्दों के ठिकानों को, अक़्सर सजदा करने वाले, पर बुतपरस्ती के कट्टर दुश्मन।

घर नहीं "राहुल आनंद" का, जलाया है उन्होंने गीत- संगीत, नृत्य- साहित्य का चमन।

नालन्दा जैसी धरोहर व विरासत को हमारी, राख करने वाले, बलवाई बख्तियार खिलजी 

और लुटेरे चंगेज़ का कॉकटेल बहता रगों में उनकी,भाता ही नहीं उन्हें दुनिया का अमन।


Friday, August 9, 2024

बिल्कुल तुम-सा ...



सर्वदा रहे अदृश्य 

पूजे की थाली से,

प्रसाद के रूप में।


रहे नदारद सदा

घर में अमीरों के,

जूस के रूप में।


है मगर ये सिक्त 

सोंधी सुगंध से,

स्निग्ध स्वरूप में।


अंग-अंग रसीला,

बिल्कुल तुम-सा 

कोआ कटहल का।