Sunday, December 5, 2021

तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...

साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...

कर दीजिए ना तनिक .. 

बस .. एक अदद मदद आप,

'बहुते' (बहुत ही) 'इमरजेंसी' है माई-बाप,

दे दीजिए ना हुजूर !! .. समझ कर चंदा या दान,

चाहिए हमें आप सभी से चंद धनराशि।


छपवाने हैं कुछ इश्तिहार,

जिसे साटने हैं हर गली,

हर मुहल्ले की निजी, 

सरकारी या लावारिस दीवारों पर।

होंगे टंगवाने हर एक चौक-चौराहों पर

छपवा कर कुछ रंगीन फ्लैक्स-बैनर भी।


रेडियो पर, टीवी पर, अख़बारों में भी

देने होंगे इश्तिहार, संग में भुगतान के 

तय कुछ "पक्के में" रुपए भी।

दिन-रात हर तरफ, हर ओर,

क्या गाँव, क्या शहर, हर महानगर,

करवानी भी होगी निरंतर मुनादी भी।


लिखवाने होंगे अब तो FIR भी 

हर एक थाने में और देने पड़ेंगे,

थाने में भी साहिब .. साहिबों को फिर कुछ ..

रुपए "कच्चे" में, माँगे गए "ख़र्चे-पानी" के .. शायद ...

थक चुके हैं अब तक तो हम युग-युगांतर से,

कर अकेले जद्दोजहद गुमशुदा उस कुनबे की तलाश की। 


घर में खोजा, अगल-बगल खोजा, मुहल्ले भर में भी,

खोजा वहाँ-वहाँ .. थी जहाँ तक पहुँच अपनी, 

सोच अपनी, पर अता-पता नहीं चला ..

पूरे के पूरे उस कुनबे का अब तक कहीं भी।

निरन्तर, अनवरत, आज भी, 

अब भी .. तलाश है जारी ... 


साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...

पर नतीज़ा "ज़ीरो बटा सन्नाटा" है अभी भी।

दिखे जो उस कुनबे का एक भी,

तो मिलवा जरूर दीजिएगा जल्द ही।

आने-जाने का किराया मुहैया कराने के 

साथ-साथ मिलेगा एक यथोचित पारितोषिक भी।


है कुनबे के गुमशुदा लोगों की पहचान, 

उनमें से है .. कोई बैल पर सवार,

तो है किसी की शेर की सवारी,

है कोई उल्लू पर सवार, तो किसी की चूहे की सवारी, 

कोई पूँछधारी तो .. कोई सूँढ़धारी ..

हमारी तो अब भी इनकी तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...



Saturday, December 4, 2021

मन की मीन ...



खींचे समाज ने 

रीति-रिवाज के,

नियम-क़ानून के,

यूँ तो कई-कई

लक्ष्मण रेखाएँ

अक़्सर गिन-गिन।

फिर भी ..

ये मन की मीन,

है बहुत ही रंगीन ...


लाँघ-लाँघ के 

सारी रेखाएँ ये तो,

पल-पल करे

कई-कई ज़ुर्म संगीन,

संग करे ताकधिनाधिन ,

ताक धिना धिन ..

क्योंकि ..

ये मन की मीन,

है बहुत ही रंगीन ...


ठहरा के सज़ायाफ़्ता,

बींधे समाज ने यदाकदा,

यूँ तो नुकीले संगीन।

हो तब ग़मगीन ..

बन जाता बेजान-सा,

हो मानो मन बेचारा संगीन ..

तब भी ..

ये मन की मीन,

है बहुत ही रंगीन ...


 

Thursday, December 2, 2021

अपनी ठठरी के भी बेचारे ...

इस सितम्बर-अक्टूबर महीने में अपनी वर्तमान नौकरी के कारणवश एक स्थानविशेष पर रह रहे किराए के मकान वाले अस्थायी निवास को कुछ अपरिहार्य कारणों से बदल कर एक अन्य नए किराए के मकान में सपरिवार स्थानांतरण करना पड़ा। 

उस समय तथाकथित पितृपक्ष (20 सितम्बर से 6 अक्टूबर) का दौर था। ऐसे में उस समय कुछ जान-पहचान वाले तथाकथित शुभचिन्तक सज्जनों का मुझे ये टोकना कि - "पितृपक्ष में घर नहीं बदला जाता है या कोई भी नया या शुभ काम नहीं किया जाता है। करने से अपशकुन होता है।" - अनायास ही मुझे संशय और अचरज से लबरेज़ कर गया था। 

हमको उनसे कहना पड़ा कि किसी भी इंसान या प्राणी के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, उसका जन्म और मरण। ऐसे में उसका जन्म लेने वाला दिन और उसका मृत्यु वाला दिन तो सब से ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए। जब उन दो महत्वपूर्ण दिनों के लिए कोई तथाकथित शुभ मुहूर्त तय ही नहीं है, तो फिर मकान बदलने या नए घर के गृह प्रवेश के लिए या फिर किसी की छट्ठी-सतैसा, शादी-विवाह के लिए शुभ मुहूर्त तय करने-करवाने का क्या औचित्य है भला ? सभी जन मेरे इस तर्क ( या तथाकथित कुतर्क ) को सुनकर हकलाते-से नजर आने लगे। 

फिर हमने कहा कि जब इंसान का मूल अस्थायी घर तो उसका शरीर है और पितृपक्ष में किसी के शरीर छुटने यानि मृत्यु के लिए तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है या फिर नए शरीर में किसी शिशु को इस संसार में आने के लिए भी इन तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है, तो फिर मकान बदलने के लिए पितृपक्ष की समाप्ति की प्रतीक्षा क्यों करनी भला ?

फ़िलहाल उन सज्जनों की बातों को तो जाने देते हैं, पर अगर आप को ये तथाकथित "मुहूर्त, अपशकुन, पितृपक्ष, खरमास" जैसे निष्प्राण चोंचलों के सार्थक औचित्य के कई या कोई भी उचित तर्क या कारण मालूम हो, तो मुझ मूढ़ को भी तनिक इस से अवगत कराने की कृपा किजिएगा .. प्रतीक्षारत - एक मूढ़ बुड़बक .. बस यूँ ही ...

फ़िलहाल उस दौरान मन में पनपे कुछ शब्दों को अपनी बतकही की शक्ल में आगे बढ़ाते हैं :-

(१) शुभ मुहूर्त :-

जन्म-मरण का जो कोई शुभ मुहूर्त होता किसी पत्रा में नहीं,

तो करना कोई भी शुभ काज कभी भी, होगा खतरा में नहीं।

(२) अपनी ठठरी के भी बेचारे ... :-

साहिब! अपनी बहुमंजिली इमारतों पर यूँ भी इतराया नहीं करते,

बननी है जो राख एक दिन या फिर खुद सोनी हो जमीन में गहरे।


यूँ तो पता बदल जाता है अक़्सर,  घर बदलते ही किराएदारों के,

पर बदलते हैं मकान मालिकों के भी, जब सोते श्मशान में पसरे।


"लादे फिरते हैं हम बंजारे की तरह सामान अपने कांधे पर लिए"-

-कहते वे हमें, जिन्हें जाना है एक दिन खुद चार कांधों पे अकड़े।


पल-पल गुजरते पल की तरह गुजरते बंजारे ही हैं यहाँ हम सारे,

आज नहीं तो कल गुजरना तय है, लाख हों ताले, लाख हों पहरे।


वहम पाले समझते हैं खुद को, मकान मालिक भला क्यों ये सारे,

हैं किराएदार खुद ही जो चंद वर्षों के, अपनी ठठरी के भी बेचारे।



Monday, November 29, 2021

एक पोटली .. बस यूँ ही ...

चहलक़दमियों की 

उंगलियों को थाम,

जाना इस शरद

पिछवाड़े घर के,

उद्यान में भिनसार तुम .. बस यूँ ही ...


लाना भर-भर

अँजुरी में अपनी,

रात भर के 

बिछे-पसरे,

महमहाते 

हरसिंगार तुम .. बस यूँ ही ...


आँखें मूंदे अपनी फिर

लेना एक नर्म उच्छवास 

अँजुरी में अपनी और .. 

भेजना मेरे हिस्से 

उस उच्छवास के 

नम निश्वास की फिर

एक पोटली तैयार तुम .. बस यूँ ही ...


हरसिंगार की 

मादक महमहाहट,

संग अपनी साँसों की

नम .. नर्म .. गरमाहट,

बस .. इतने से ही

झुठला दोगी 

किसी भी .. उम्दा से उम्दा ..

'कॉकटेल' को यार तुम .. बस यूँ ही .. शायद ...







Monday, September 13, 2021

रहे याद हमें, उन्हें भी ...

हाल ही में एक पहचान वाले महानुभाव ने चुटकी लेने के अंदाज़ में या पता नहीं गंभीर लहज़े में मुझ से बातों-बातों में कहा कि कलाकार प्रशंसा के भूखे होते हैं। हमको बात कुछ अटपटी लगी, क्योंकि हम ऐसा नहीं मानते; हालांकि वह ख़ुद भी अपने आप को कलाकार ही मानते या कहते हैं। उनके ये कहे प्रशंसा वाले कथन अक़्सर लोगबाग भी कहते हुए सुने जाते हैं। पर हमको अपनी आदतानुसार, किसी की काट्य बातों के लिए भी, केवल उस को ख़ुश रखने के लिए, उसकी बातों में हामी ना भरने वाली अपनी आदत के अनुसार, उन की इस बात से असहमति जताते हुए कहना पड़ा कि आप गलत कह रहे हैं, कलाकार नहीं, बल्कि टुटपुँजिए कलाकार प्रशंसा के भूखे भले ही हो सकते हैं, पर सच्चा कलाकार प्रशंसा का नहीं, बल्कि निष्पक्ष समीक्षा की चाह भर ही रखता है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ये तो हो गई इधर-उधर की बतकही भर, पर कलाकार शब्द की चर्चा से कला की भी याद आ गयी कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से ये मानते आए हैं और सही भी तो है, कि कला के बिना, विशेषकर संगीत और साहित्य के बिना, इंसान और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता। परन्तु पशु बेचारे इन दोनों में रूचि भले ही ना लेते हों, पर कम से कम इनका विरोध भी तो नहीं करते हैं। लेकिन इसी धरती पर इन पशुओं से भी गई-गुजरी कई ऐसी तथाकथित मानव नस्लें हैं, जो इन दोनों का खुलेआम विरोध ही नहीं करतीं, बल्कि इन दोनों में रूचि रखने वाले क़ाबिल लोगों का क़त्लेआम करने में भी तनिक हिचक महसूस नहीं करतीं वरन् शान महसूस करतीं हैं। ऐसा कर के अपने आप को मज़हबी, सर्वशक्तिमान, सर्वश्रेष्ठ और पाक-साफ़ भी मानतीं हैं .. ये जो तथाकथित शरीया कानून के या ना जाने वास्तव में किसी कसाई घरों के पाशविक नुमाइंदे हैं .. शायद ...

हम इन दिनों रक्षाबंधन, जन्माष्टमी या तीज जैसे वर्तमान वर्ष के बीते त्योहारों या दशहरा, दीवाली या छठ जैसे भावी त्योहारों के नाम पर लाख खुश हो लें, नाना प्रकार की मिठाईयों या पकवानों से अपना और दूसरों का भी मुँह मीठा कर-करवा लें, एक दूसरे पर शुभकामनाओं और बधाईयों की बौछार कर दें, साहित्यिक बुद्धिजीवी हैं तो कुछ भी लिख लें, कुछ भी 'पोस्ट' कर दें, परन्तु .. कुछ भी करने-कहने से पहले .. वर्तमान में, शायद ही कोई संवेदनशील, साहित्यिक बुद्धिजीवी या आम जन भी होंगे, जो कि विश्व पटल पर अफगानिस्तान में घट रही अनचाही विभिन्न विभत्स घटनाओं को जनसंचार के उपलब्ध विभिन्न संसाधनों के माध्यम से, आधी-अधूरी ही सही, देख-जान कर मर्माहत या चिंतित ना होते होंगें और भविष्य के विध्वंसक भय की अनचाही धमक से भयभीत ना होते होंगे .. शायद ...

बेबस अदना-सा एक अदद इंसान, उन नरपिशाच अदम्यों के समक्ष कर भी क्या सकता है भला ! .. सिवाय अपनी नश्वर, पर .. शेष बची साँसों, धड़कनों .. अपने कतरे भर बचे-खुचे जीवन को बचाने की सफल या असफल गुहार लगाने की .. विवश, बेबस, कातर, करुण गुहार ... आँखों के सामने दिख रहे तथाकथित ज़िहादी मज़हबी इंसानों से भी और तथाकथित अनदेखे ऊपर वाले से भी .. बस यूँ ही ... कि :-

(१) 
रक्त के थक्के .. धब्बे .. :-
शग़ल है शायद
सुनने की तुम्हें 
अनवरत, अविरल,
मंत्रों की फुसफुसाहटें,
कलमों की बुदबुदाहटें,
अज़ानों की चिल्लाहटें .. शायद ...

सुन भी लिया कर
कभी तो तनिक ..
ज़ालिम तुम इन सारे
चीखों औ चीत्कारों को,
सिसकियों और ..
कपसती पुकारों को .. बस यूँ ही ...

लहू निरीहों के बहते,
यूँ तो देखें हैं तू ने बहुतेरे,
हर बार क़ुर्बानियों 
औ बलि के नाम पे, काश ! .. 
देख लेता तू एक बार सूखे, सहमे-से,
इंसानी रक्त के थक्के .. धब्बे .. बस यूँ ही ...

पर तथाकथित अवतारों से की गई इन व्यर्थ की गुहारों के पहले या बाद में या फिर साथ-साथ ही, हम सभी को एक बार ही सही अपने-अपने गिरेबान में भी झाँकने की ज़रूरत है .. शायद .. बस यूँ ही ...

(२)
रहे याद हमें, उन्हें भी ... :-
अक़्सर .. 
जब कभी भी
चढ़ते देखा है कहीं
मंदिर की सीढ़ियों पर यदि
किसी को भी तो अनायास ही।
आ जाते हैं याद मुझे ग़ालिब जी -
"हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन 
 दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।" .. बस यूँ ही ...

बर्बर ..
हैं ये बेहूदे बेहद ही
दहशत हर रहगुज़र की
करते जो क़त्लेआम नाहक़ ही
नाम पे शरीयत के कहीं भी, कभी भी।
आ जाते काश जो समझाने इन्हें ख़ुसरो जी - 
"खुसरो सोई पीर है, जो जानत पर पीर।
 जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर-बेपीर।" .. बस यूँ ही ...

दरबदर ..
राह से भटके सभी
जितने वे, उतने हम भी,
'तुलसी' जी रहे याद हमें, उन्हें भी
ऊलजलूल कही तत्कालीन 'बातें' सभी।
काश समझते हम, 'तुलसी' जी कम, ज्यादा ख़ुसरो जी
"खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
 वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।" .. बस यूँ ही ...




Thursday, September 9, 2021

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(अंतिम भाग-४).

गत तीन दिनों में प्रस्तुत तीन भागों में लम्बी भूमिकाओं :-

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-१).

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-२).

और 

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-३).

के बाद ... आज बस .. अब .. कल के वादानुसार आइए .. कुछ भी कहते-सुनते (लिखते-पढ़ते) नहीं हैं .. बल्कि हम मिलकर देखते हैं .. मुंशी प्रेमचंद जी की मशहूर कहानी- कफ़न पर आधारित एक लघु फ़िल्म .. हम प्रशिक्षुओं का एक प्रयास भर .. इस "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-४)." - अंतिम भाग  में .. बस यूँ ही ...

(फ़िल्म कफ़न का 'लिंक' - " कफ़न  "या इस ब्लॉग के View web version को click करने से मिल जाएगा।)

                                  कफ़न





Wednesday, September 8, 2021

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-३).

एक प्रशिक्षु-सा ही :-

कफ़न का घीसू 

इन युवाओं के कारण ही टीवी के मशहूर कार्यक्रम- 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज के पाँचवें 'सीजन' के विजेता (Winner of The Great Indian Laughter Challenge, Season-5th, 2017)- अभिषेक वालिया के साथ एक ही मंच पर 2020 में 'स्टैंडअप कॉमेडी' (Standup Comedy) करने का भी मौका मिला .. बस यूँ ही ...


अभिषेक वालिया के साथ

यूँ तो इन युवाओं से मेरे मृतप्राय लेखन को पुनर्जन्म अवश्य मिला, पर लेखन को एक नयी डगर मिली, लगभग एक साल बाद, 2019 में बेशक़ ब्लॉग की दुनिया में आकर। हालांकि यहाँ भी कुछ-कुछ टाँग खिंचाई (Leg Pulling) देखने के लिए मिला .. शायद ...

ख़ैर ! .. फ़िलहाल तरुमित्र आश्रम के रमणीक परिसर में अवस्थित महाविद्यालय के BMC के छात्रों द्वारा बनाई गयी फ़िल्म- कफ़न की बात करते हैं। सुबह से शाम तक तरुमित्र के इसी रमणीक परिसर में और परिसर में ही अवस्थित महाविद्यालय के भवन व उसके 'कैंटीन' में सभी युवा छात्र-छात्राओं के साथ-साथ, कब और कैसे बीत गया, मालूम ही नहीं चल पाया। यूँ तो .. 'शूटिंग' का समय तय था .. सुबह नौ बजे से, पर शुरू हुआ .. लगभग दस-ग्यारह बजे; तो वस्तुतः पूरी फ़िल्म दस-ग्यारह से शाम चार बजे तक में फ़िल्म की शूटिंग पूर्ण कर ली गई थी। इसी समय में, बीच-बीच में हल्का-फुल्का 'रिफ्रेशमेंट', दोपहर का 'लंच' भी शामिल था। एक छात्रा के घर से लायी गई पूड़ी-भुजिया भी, जो उनकी माँ ने बड़े ही प्यार से बना कर 'टिफ़िन' में सहेज कर उसे सुपुर्द किया होगा, मिल-बाँट कर खाने के लिए मिला। सभी दिन भर बहुत ही उत्साहित और ऊर्जावान थे। उनके साथ-साथ हम भी स्वयं को एक प्रशिक्षु-सा ही महसूस कर रहे थे। उन से भी बहुत कुछ सीखने के लिए मिल रहा था।





















































ना सिरचन मरा :-

इनके प्यार से बुला भर लेने से मेरा इन लोगों के बीच सहज ही समय निकाल कर उपस्थित हो जाना, अनायास अपने उच्च विद्यालय की पढ़ाई के दौरान पढ़ायी/पढ़ी गईं, बिहार के फणीश्वरनाथ रेणु जी की आँचलिक कहानी- ठेस के एक पात्र- सिरचन की बरबस याद हो आती है। ख़ासकर उस कहानी की कुछ पंक्तियाँ- मसलन - " सिरचन मुँहजोर है, कामचोर नहीं। ", " बिना मज़दूरी के पेट-भर भात पर काम करने वाला कारीगर। दूध में कोई मिठाई न मिले, तो कोई बात नहीं, किंतु बात में ज़रा भी झाल वह नहीं बर्दाश्त कर सकता। ", " कलाकार के दिल में ठेस लगी है। वह अब नहीं आ सकता। " इत्यादि .. आज भी इन सारी पंक्तियों के अलावा, कहानी का अंतिम दृश्य मन को द्रवित और आँखों के कोरों को नम कर जाता  है। लगता है, मानो .. उस कलाकार- सिरचन की आत्मा पूरी की पूरी आकर हमारे अंदर समा गई हो। ऐसे में लगता है, मानो वह सिरचन आज भी मेरे अंदर ज़िन्दा है, मरा नहीं है .. बस यूँ ही ...

वैसे तो हर सच्चा कलाकार अपने आप में एक सिरचन ही होता है, जिसे प्यार मिले तो पानी और ना मिले तो पत्थर बन जाने में तनिक भी हिचक नहीं होती। अगर उसकी आत्मा सिरचन की आत्मा से सिक्त नहीं है, तो वह कलाकार हो ही नहीं सकता .. शायद ...

ना मरी है बुधिया ... :-

फ़िल्म के अंत में इन लोगों ने मूल कहानी से परे, बुधिया की आत्मा को एक संदेशपरक और दर्शन से भरे, छत्तीसगढ़ी लोकगीत को गाते हुए तथा उस गीत पर उसे नाचते-झूमते हुए दिखलाने का प्रयास किया है। हालांकि यह लोकगीत, अन्य कई-कई पुराने लोकगीतों, ठुमरियों, सूफ़ी गीतों की तरह "पीपली लाइव" नामक एक फ़िल्म में भी बेधड़क इस्तेमाल किया गया है।

वैसे भी बुधिया की केवल आत्मा ही क्यों भला, हमारे परिवेश में तो आज भी कई सारी बुधियाएँ सशरीर अपनी घिसटती ज़िन्दगी जीती हुई, तड़प-तड़प कर दम तोड़ देती हैं और घीसू की तरह हम भी बहरे-अँधे बने, उन की पीड़ाओं से बेपरवाह हम अपनी ज़िन्दगी जी या काट या फिर भोग रहे होते हैं .. शायद ...

आज बस .. अब कल आइए .. कुछ भी कहते-सुनते (लिखते-पढ़ते) नहीं हैं .. बल्कि हम मिलकर देखते हैं .. मुंशी प्रेमचंद जी की मशहूर कहानी- कफ़न पर आधारित एक लघु फ़िल्म .. हम प्रशिक्षुओं का एक प्रयास भर .. "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-४)."  में .. बस यूँ ही ...