Wednesday, July 17, 2019

वहम

एक किसी दिन
आधी रात को
एक अजनबी शहर से
अपने शहर और फिर
शहर से घर तक की
दूरी तय करते हुए
सारे रास्ते गोलार्द्ध चाँद
आकाश के गोद से
नन्हे बच्चे-सा उचकता
मुलुर-मुलुर ताकता
एक सवाल मानो पूछता रहा
अनवरत .... कि ....
मेरे रौशन पक्ष केवल देखकर
एक वहम क्यों पाल लेते हो भला
कभी ईद का बहाना तो कभी
करवा चौथ मान लेते हो क्यों भला
मैं तो सदियों से जैसा था
रोज वही रहता हूँ
उजाले के साथ अँधेरे हिस्से को भी
मेरे किस्से से जोड़ो तो जरा
रोज ही मुकम्मल रहता हूँ मैं
मैं तो वही रहता हूँ ...
तुम ही वहम पाल लेते हो ...

16 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना गुरुवार १८ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. साधारण सी रचना को एक स्तरीय ब्लॉग-पटल "पांच लिंकों का आनंद" पर स्थान देने के लिए मन से धन्यवाद आपका ...

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  2. नयी सोच नयी दृष्टि ! बहुत कुछ चिंतन के लिए सौंपती एक सार्थक सुन्दर रचना !

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    1. रचना की सराहना के लिए शुक्रिया आपका !!!

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  3. बेहतरीन सृजन सर
    सादर

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    1. रचना के लिए विशेषण का प्रयोग करने के लिए शुक्रिया आपका !!!

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  4. उजाले के साथ अँधेरे हिस्से को भी
    मेरे किस्से से जोड़ो तो जरा
    बहुत सुन्दर ..सटीक...
    वाह!!!

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  5. इस वहम के साथ ही तो अनेक किस्से गढ़ जाए हैं मानव मन में ...
    ये न हो तो आधी रचनाएं व्यर्थ हो जायेंगी ...
    अच्छी रचना है ...

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    1. पर वहम और यथार्थ को हमेशा रूबरू करते रहना भी हम रचनाकर्मियों का ही दायित्व है ना शायद !

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  6. नयी उर्जा भरती अच्छी सोच सुन्दर..सटीक...

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  7. सुन्दर अभिव्यक्ति .....

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    1. सराहना के लिए शुक्रिया आपका !

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