" माला दी' ! (दीदी) .. हमारी तरफ से तो आज हुए कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति तैयार है। अगर आप कहें तो .. अभी पढ़ कर आपको सुनाऊँ ? .. "
" ठीक है सुषमा .. सुना देना। पर .. इतनी भी हड़बड़ी क्या है .. पहले मुनिया को शरबत लाने तो दो। शरबत पी लो और .. पी कर थोड़ा सुस्ता लो .. फिर सुना देना। "- कमरे में 'सेंटर टेबल' पर रखे पानी से भरे बोतल की ओर इशारा करते हुए - " तब तक ये 'फ्रिज' का ठंडा पानी पियो। आराम से बैठो .. पैर ऊपर करके .. कुछ देर 'बेड' पर लेटना चाहो, तो .. लेट लो। "
" बस .. ठंडा पानी पी लेती हूँ दी' पर .. लेटने का मन नहीं अभी। ऐसे ही ठीक है। "
" 'ए सी' को अठारह पर कर दूँ ? "
" नहीं , नहीं .. बीस पर ही ठीक है दी' । "
दरअसल माला नागर जी 'आर एन आई' यानी भारत के समाचार पत्रों के 'रजिस्ट्रार ' द्वारा पंजीकृत एक मासिक पत्रिका - "साहित्य उपवन" की संपादिका के साथ-साथ "साहित्य उपवन" संज्ञा वाली ही एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्षा भी हैं। भले ही सरकारी विभाग में दिखाने के लिए इनके तरफ़ से मासिक पत्रिका की उपस्थिति दर्ज़ करायी जाती है ; पर वास्तविकता यही है, कि द्विमासिक पत्रिका ही मूल रूप से छपती है। और .. सुषमा झा .. स्वाभाविक है, कि उसी संस्था की एक सक्रिय सदस्या हैं व एक कुशल गृहिणी भी , पर .. सक्रिय सदस्या पहले व कुशल गृहिणी बाद में।
दरअसल आज भी तथाकथित सामाजिक सरोकार वाले कार्यक्रम के समापन के पश्चात लौटने के बाद अभी-अभी माला नागर जी के अतिथि कक्ष में ही उनके और सुषमा झा के बीच उपरोक्त वार्तालाप हो रहा है।
तभी 'रूह अफ़ज़ा' द्वारा तैयार शरबत से भरे दो काँच वाले क़ीमती पारदर्शी गिलास, जिनमें 'फ्रिज' के 'डीप फ्रिजर' में जमाए हुए चंद तैरते 'आइस क्यूब्स' भी हैं और उसी शरबत व 'आइस क्यूब्स' से भरा एक काँच का ही पारदर्शी 'जग' भी, जिन्हें बाँस से बने एक कलात्मक और स्वाभाविक है कि .. क़ीमती भी .. 'ट्रे' में लेकर अतिथि कक्ष में मुनिया के प्रवेश होते ही ...
" लो सुषमा .. पहले इस ठंडे शरबत से अपना गला तर कर लो, ताकी बाहर की गर्मी का असर कम हो जाए। फिर प्यार से पीते-पीते सुनाओ .. वो प्रेस विज्ञप्ति। "
अभी माला नागर जी व सुषमा झा के बारे में जानने के पश्चात .. उचित है कि .. थोड़ा-बहुत .. मुनिया के बारे में भी हमलोग जान ही लें .. वह इन दिनों लगभग बारह-तेरह साल की एक लड़की है .. वैसे तो यह बकने में शायद अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए, कि वह एक लड़की कम .. एक नौकरानी ज्यादा है। जिसे माला जी अपने श्वसुर जी के खेतों में काम करने वाले कई जन-मजदूर व मजदूरिनों में से किसी एक ग़रीब विधवा मजदूरिन माँ की चार संतानों, वो भी चारों की चारों बेटियाँ, में से एक सबसे बड़ी बेटी- मुनिया को अपने ससुराल के गाँव से क़रीब दो वर्ष पूर्व अपने साथ सौग़ात स्वरुप ले आयीं थीं और .. वो भी .. मुनिया को शहर में अपने पास रख कर उसे काम के बदले खाना-कपड़ा प्रदान करके .. उस को और उस की माँ को अनुगृहित करने के भाव से अपनी बूढ़ी गर्दन को अकड़ाते हुए।
दोनों ही लोगों द्वारा अपना-अपना पहला शरबत का गिलास गटागट तेजी से खाली करने के बाद .. पुनः काँच के क़ीमती 'जग' से उन्हीं दोनों गिलासों में मुनिया द्वारा शरबत उड़ेलने पर अब .. गर्मागर्म चाय पीने की तरह चुस्की लेते हुए ...
" हाँ .. अब बोलो सुषमा .. खाना खाओगी ? .. मुनिया को बोलूँ .. बनाने के लिए ? "
"नहीं दी' .. खाना रहने दीजिए .. और फिर .. समाचार पत्र के 'ऑफिस' भी तो जाना है मुझे .. घर जाते हुए रास्ते में .. ये प्रेस विज्ञप्ति देती हुई चली जाऊँगी .. है ना ? .."
" तुम कहो तो .. अभी 'ओवन' में पकवाएँ 'गार्लिक-लेमन चिकेन' और गर्मागर्म 'चिकेन'-रोटी खाते हैं .. "
" नहीं दी' .. रहने दीजिए .. "
" अरे .. आज तो बुधवार है .. आज तो कोई मंगल-शनि या वृहष्पतिवार वाली कोई बात भी नहीं है .. तुम्हारे बहाने हमारा भी मुँह थोड़ा "सोंधा" जाएगा .."
" ना - ना .. आप परेशान मत होइए दी' .."
" धत् ! .. इसमें परेशानी वाली क्या बात है भला .. मुनिया जा कर ले आएगी पास के बाज़ार से कटवा कर ताजा मुर्गा और कुछ ही देर में बना भी देगी .."
" नहीं दी' .. आज रहने दीजिए .. फिर कभी .. आपको तो पता ही है, कि कल .. वट सावित्री व्रत है .."
" तो क्या हुआ ? .. कल सिर धो के नहा लेना .. सब शुद्ध हो जाएगा .. नहीं क्या ? .. "
" ना .. दी' .. आज छोड़ दीजिए .."
" ठीक है .. जैसा तुमको अच्छा लगे .. तो चलो .. अब प्रेस विज्ञप्ति ही सुना दो "
" जी ! .. दी' ! अब गौर से सुनिए .. कोई त्रुटि रह गयी हो, तो बोलिएगा .. हाँ ! .." - अपने 'हैंडबैग' से एक 'राइटिंग पैड' निकाल कर -
" आज ५ जून को "विश्व पर्यावरण दिवस" के अवसर पर "साहित्य उपवन" की अध्यक्षा महोदया श्रीमती माला नारंग जी ने नगर सामुदायिक भवन के प्रांगण में अपने कर-कमलों द्वारा गुलमोहर और पिलखन के एक-एक पौधे का पौधारोपण किया। इस अवसर पर प्राँगण में उपस्थित "साहित्य उपवन" के सभी गणमान्य सदस्यों ने पर्यावरण से सम्बन्धित काव्य पाठन भी किया। काव्य गोष्ठी का संचालन स्वयं माला नारंग जी कर रहीं थीं। उनकी अध्यक्षता में यह कार्यक्रम बहुत ही सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हुआ। पौधारोपण और काव्यपाठन करने वालों में कर्मठ समाजसेविका श्रीमती माला नारंग के साथ-साथ सुषमा झा, दीक्षा मेहता, मनोज भटनागर, समर सिंह, ज्योति अग्रवाल, ... ... ... ... ... सरिता सहाय, इकराम क़ुरैशी इत्यादि उपस्थित थे। "
" वाह ! .. अति सुन्दर ! .. पर .. सबलोगों का नाम इसमें आ गया है ना ? एक बार ठीक से 'चेक' कर लेना .. किसी का नाम छूट ना जाए कहीं .. "
" हाँ दी' ! .. वैसे तो किसी का भी नाम नहीं छुटा है। सभी उपस्थित जनों का नाम हमने अपने इसी 'नोटबुक' में 'नोट' करके उसके सामने उन सभी उपस्थित लोगों से हस्ताक्षर करवा लिया था। उसी 'लिस्ट' से सारा का सारा नाम लिया है मैंने .. वैसे .. आप कह रहीं हैं, तो एक बार .. पुनः 'चेक' कर लेती हूँ। "
" और हाँ .. सरिता सहाय के नाम को अपने नाम के बाद वाले क्रम में ही डाल दो .. उतना नीचे रखोगी उनका नाम तो .. अगर प्रेस वालों की तरफ से इस विज्ञप्ति में कुछ प्रेस टिप्पणी जोड़ने पर उनके उपलब्ध 'कॉलम' में जगह कम पड़ गयी, तो नीचे वाले कुछ नामों के साथ-साथ इनका नाम भी कुछ यूँ ही छपने से चूक जाएगा। "
" जी दी' .. सही कह रहीं हैं आप .. "
" समझ रही हो ना .. हम क्या कहना चाह रहे हैं .. किसी का भी नाम छपे या कटे, कोई बात नही, पर .. मेरे साथ-साथ तुम्हारा और सरिता का नाम तो छपना ही चाहिए .. समझ गयी ना ? "
" हाँ दी' .. अभी सुधार कर देती हूँ .. पहले जरा 'वाशरूम' से हो आऊँ ? "
गर्मी के मौसम में हर क्षेत्र की उसकी भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग समस्याएँ होती हैं .. कहीं गर्म हवा वाली लू की झुलसन, तो कहीं पसीने वाली चिपचिपी गर्मी की समस्या। पर एक समस्या हर जगह आम है, कि .. ऐसे में जितनी ज्यादा प्यास लगती है, तो ज्यादा से ज्यादा पानी-शरबत पीनी पड़ती है और फिर .. उतनी ही ज्यादा मूत्र विसर्जन की तलब भी होती है। माला नागर जी के घर का एक 'जग' ठंडा पानी और दो-दो गिलास शरबत की ही देन है ये .. सुषमा झा की 'वाशरूम' जाने की तलब .. शायद ...
" अब लो .. ये भी कोई पूछने वाली बात है भला ! .. जाओ .. हो के आओ .. " - फिर सहयोग के लिए मुनिया को आवाज़ देते हुए -" मुनिया ! .. मुनिया !... "
" मैं खुद ही चली जाऊँगी दी' .. उसको रहने दीजिए .." - कहते हुए सुषमा झा अतिथि कक्ष के भीतरी तरफ वाले दरवाज़े की ओर बढ़ चली हैं।
चूँकि सुषमा झा का यदाकदा .. विशेष कर इस साहित्यिक संस्था के किसी भी तथाकथित सामाजिक या साहित्यिक कार्यक्रम के पश्चात माला भटनागर जी के घर उनकी कार में बैठ कर आना-जाना लगा रहता है .. कभी प्रेस विज्ञप्ति को तैयार करने के लिए, कभी कार्यक्रम के बाद बचे 'बैनर'-'पोस्टरों' या अन्य बहुउपयोगी सामानों को माला जी के घर तक सहेजने के लिए या फिर कभी-कभी उनके विशेष आग्रह पर संस्था के जमा-खर्च के हिसाब-किताब वाली 'रजिस्टर' को 'मेन्टेन' करने के लिए ; अतः उन्हें माला जी के घर वाले नक़्शे के चप्पे-चप्पे के बारे में अच्छी तरह से जानकारी हासिल है।
तो .. वह उनके अतिथि कक्ष के भीतरी दरवाज़े से निकल कर 'डाइनिंग हॉल' पार करते हुए, पाँच-छः कदमों वाले एक गलियारा को लाँघ कर .. घर की पिछली 'बालकनी' में दायीं ओर मुड़ गयीं हैं; जहाँ सामने ही 'वाशरूम' का दरवाज़ा दिखायी देता है।
यह घर बनते वक्त घर के पिछले हिस्से की कुछ ज़मीन को भवन-निर्माण में प्रयोग नहीं किया गया था, ताकि भविष्य में ज़मीन की दिनोंदिन बढ़ती हुई कीमतों पर बेच कर मुनाफ़ा कमाया जा सके या फिर परिवार में आगे सदस्यों की संख्या बढ़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सके।
उसी ज़मीन में एक सवैतनिक माली द्वारा 'किचेन गार्डन' के साथ-साथ सुबह-सुबह की पूजा-अर्चना भर के लिए फूलों को प्रदान करने वाली एक फुलवारी भी 'मेन्टेन' की गयी है। उसी में एक अमलतास और एक कटहल के पेड़ भी लगे हुए थे, जो ज़मीन खरीदने के वक्त पहले से ही उपस्थित थे। इन सब को पिछली 'बालकनी' से निहारा जा सकता है।
'वाशरूम' से फ़ारिग होकर निकलने के बाद अपने रुमाल से हाथों को पोंछते हुए सुषमा झा अब पिछली 'बालकनी' में कुछ पल आदतन ठहर कर माला नागर जी के बग़ीचे को निहार रही हैं। तभी वहीं पर पीछे से माला जी भी आ खड़ी हुई हैं।
" ये क्या दी' .. यहाँ तो अमलतास और एक कटहल का भी पेड़ था ना ? आप कटवा दीं क्या दी' ? "
" हाँ .. पिछले ही रविवार को .. "
" हाय राम ! .. आज भी मैं आते वक्त सोच रही थी दी', कि .. आपसे हर साल की तरह ही आज भी कटहल माँग कर ले जाऊँगी ... कुछ अमलतास के फूल भी ले जाने की सोची थी। .. अभी हाल ही में 'यूट्यूब' पर देखी थी, कि अमलतास के फूलों से बहुत ही स्वादिष्ट और स्वास्थ्यप्रद शरबत बनाया जाता है और फिर .. गुलमोहर के फूलों से भी। "
" गुलमोहर का पेड़ तो तुम्हारे मुहल्ले के मैदान में विराजमान है ही ना ? "
" हाँ .. पर .. अमलतास के शरबत के लिए खूब मन बना के आयी थी दी' .. और .. आपके यहाँ के पेड़ वाले कटहल की सब्जी भी बहुत ही मुलायम होती थी। पक जाने पर .. इसका कोआ कितना सोंधा-सोंधा गमकता था .. नहीं दी' ? .. "
" अब क्या करें .. साल भर में कुछ महीने के लिए फल और फूल मिलने के कारण उन्हें कब तक ढोया जा सकता था। "
" सो तो है, पर .. "
" घर में सभी की सहमति से तय होने के बाद ही इनको कटवाया गया है। अब इसमें किराए पर 'कार पार्किंग' के लिए लोगों को जगह उपलब्ध करवायी जाएगी, जिसका 'गेट' पीछे की तरफ से ही रहेगा। "
" ओ ! .. अच्छा ! .."
" हाँ .. दरअसल आजकल 'कॉलोनियों' में रहने के लिए फ्लैट-इमारतें तो हैं, पर सभी के पास सुरक्षित 'कार पार्किंग' की जगह नहीं हैं। .. अगली बार आओगी तो इसके ऊपर 'रेज़िन शेड' लगी हुई यह 'कम्प्लीट' मिलेगी .. "
तभी चिलचिलाती धूप वाली गर्मी से निजात पाने के लिए एक 'स्ट्रीट डॉग' भटकता हुआ माला जी के घर के उसी पिछले हिस्से की चहारदीवारी फाँद कर अंदर घुस आया है। माला जी जोर से चिल्लाईं, मानो किसी पड़ोसी देश का घुसपैठिया घुस आया हो और उसे देश की सेना ने देख कर उन पर गोली बरसाने की सोच ली हो।
" मु-नि-या !!! .. भगाओ इसको मार के जल्दी से .. पानी फेंक दो इसके ऊपर .. ऊपर से ही .. भाग जाएगा ..."
'बालकनी' में सजे कुछ गमलों के पौधे भी गर्मी से झुलसे हुए दिख रहे हैं। सालों भर खिले रहने वाले सदाबहार के पौधे तक भी। सुषमा झा को ये सब गौर से निहारते हुए देख कर माला जी लगभग झेंपते हुए ..
" दरअसल इन दिनों "विश्व पर्यावरण दिवस" वाले आज के कार्यक्रम की तैयारी में कई दिनों से व्यस्त रहने के कारण इन सब पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिल पाया सुषमा .. " - कुत्ते पर ऊपर से ही पानी उड़ेलती मुनिया को आदेश देते हुए माला जी अचानक पुनः बोल पड़ीं हैं - " जरा बाल्टी में पानी लाकर इन गमलों में भी पानी दे दे मुनिया .. ये सब तुमको तो सुझता ही नहीं है .. जब तक टोको नहीं .. कोई काम नहीं करोगी ठीक से .. "
" हम आपकी डर से पानी नहीं डालते हैं इनमें .. आप गुस्साती हैं ना .. इसीलिए .. "
" अरे ! .. गुस्साए नहीं तो और क्या करें .. बोलो .. तुम्हारी वजह से पिछली बार सारे 'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स प्लांटस्' बर्बाद हो गए थे। याद है ना ? .."
'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स' जैसे शब्दों को मुनिया कितना ही समझ पायी होगी, पर सुषमा झा के समक्ष माला जी की पेड़-पौधों के बारे में विशिष्ट जानकारी की धाक जरूर जमती जान पड़ रही है। अब सुषमा झा को सम्बोधित करते हुए ...
" जानती हो ! .. पिछले माह "मज़दूर दिवस" के अवसर पर "भिलाई 'स्टील' 'प्लांट' " के "मज़दूर 'ट्रेड' 'यूनियन' " की ओर से आयोजित उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में अपनी संस्था को कविता पाठ के अलावा अन्य साहित्यिक गतिविधियों के लिए जो बुलाया गया था, तो तीन दिनों तक घर से बाहर थी मैं और .. "
" और मैं भी तो थी सभी सदस्यों के साथ-साथ आपके साथ .. और हाँ .. भिलाई आना-जाना और कार्यक्रम .. सब मिलाकर तीन दिन तो लग ही गए थे, तो ... ? "
" तो .. उसी दौरान ये महारानी (मुनिया) .. तीनों दिन सुबह-शाम सभी गमला में भर-भर के पानी डाल दीं .. बस्स ! .. जो भी 'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स प्लांटस्' थे, सभी काले पड़ गए .. कुछ सड़-गल भी गए .. "
अचानक माला जी के घर के पिछले हिस्से की जमीन के पीछे वाले मकान की छत्त से "आ-आ .. आ-आ .. आ" की तेज पुरुष स्वर सुनायी पड़ी। अनायास आवाज़ की दिशा में सुषमा झा की नज़र चली गयी। सामने एक वृद्ध पुरुष अपनी छत से आकाश में उड़ते कबूतरों की झुण्ड को और कभी .. अभी-अभी भगाए गए कुत्ते के साथ-साथ एक भटकती कुत्तिया को भी अपने अंदाज में स्नेहपूर्वक बुला रहे हैं।
माला जी बिना वृद्ध की ओर देखे हुए ...
" सनकी है ये बूढ़ा .. 'रेलवे' से 'रिटायर' है .. अपने 'पेंशन' का आधा पैसा इन्हीं सब लावारिस कुत्ता-बिल्ली, कबूतर-गौरैया और चींटी-गिलहरी में लुटाता रहता है। नाम है सतीश सक्सेना .. है तो कायस्थ, पर एक भी कायस्थ वाला गुण नहीं है इस बुड्ढा में .. "
" अच्छा ! .."
" सुबह-सुबह 'कॉलोनी' के 'पार्क' में टहलने के साथ-साथ खुरपी-बाल्टी लेकर पेड़-पौधा में खाद-पानी करता रहता है। एक सवैतनिक माली भी आता है वहाँ देखरेख के लिए .. फिर भी ये आदमी लगा रहता है .. "
" फिर तो ये गज़ब आदमी हैं दी' .. "
" हाँ तो .. कई बार कोशिश की, कि अपनी संस्था से ये जुड़ जाएँ, पर .. हर बार कोई ना कोई बहाना कर के टाल गए श्रीमान। इनका कहना है, कि इनको कविता-कहानी लिखने नहीं आती है। "
" ओ .. अच्छा ! .. "
" अरे ! .. इसमें अच्छा वाली क्या बात है भला। अब तुम ही बतलाओ ना सुषमा .. अपनी ही संस्था में क्या सभी को कविता-कहानी लिखने आती ही है ? .. आधा से ज्यादा तो तुकबंदियों के सहारे ही निभ रहे हैं। "
" हाँ .. सो तो है दी' .. "
" अब अगर सभी को साहित्य ज्ञान के तराजू पर निपटा दें तो फिर .. संस्था को चलाने के लिए मिलने वाले सहयोग शुल्क कैसे एकत्रित कर पायेंगे .. बोलो ! .."
" हाँ .. आप सही कह रहीं हैं .. अपना घर-परिवार तो क्या .. अपना पेट पालने के लिए भी तो पैसे की ही जरूरत पड़ती है .. है कि नहीं ? "
" सब बात यहीं बतिया लोगी क्या ? यहाँ बहुत ज्यादा ही गर्मी है। चलो अंदर 'ए सी' में .. "
पीछे की 'बालकनी' से वापस अतिथि कक्ष की ओर बढ़ते हुए दोनों के वार्तालाप जारी हैं और विषय .. वही आज के "पर्यावरण दिवस" वाले पौधारोपण व उससे जुड़े अन्य कार्यक्रम से सम्बन्धित ...
" और हाँ .. रही बात अख़बार में फ़ोटो छपने की, तो .. वो तो .. वे लोग अपनी मर्ज़ी और अपने 'कैमरे' से ही छापेंगे, पर तुम्हारे 'कैमरे' में तो सब 'पिक्स' साफ़-साफ़ आयी है ना ? .. मुझे 'व्हाट्सएप्प' कर देना .. सभी अच्छी 'पिक्स' अपनी पत्रिका के अगले अंक में छपवानी है .."
" हाँ जरूर .. पर चलिए .. अब निकलती हूँ दी' .. बस .. आपके कथनानुसार सरिता सहाय जी का नाम क्रमवार ऊपर कर देती हूँ। "
" ठीक है .. जाओ .. काफ़ी समय निकल भी गया है .. "
सुषमा झा उनके 'मेन गेट' से निकल कर सामने सड़क पर अपने गंतव्य की ओर जाते हुए 'टेम्पो' का बाट जोहने लगी हैं। तभी माला नागर जी के पड़ोसी .. तथाकथित अज़ब आदमी - सतीश सक्सेना के घर से निकल कर एक पुराने 'स्कूटर' पर सवार हुए एक सज्जन को सुषमा झा अपने गंतव्य की ओर जाते हुए देख कर और .. पहचान कर भी .. लगभग चहकते हुए उन सज्जन पुरुष को सम्बोधित करके बोल पड़ीं हैं ..
" मुख़र्जी 'अंकल' ! .."
बोलते ही 'स्कूटर' में 'ब्रेक' लग गया और सवार व्यक्ति अपना 'हेलमेट' उतारने के बाद इधर ही ताक कर मुस्कुराते हुए बोल रहे हैं ..
" ओ .. शुशुमा (सुषमा) .. यहाँ पर क्या कर रहा (रही) है (हो) ? .. बाड़ी (घर) चलना है क्या ? "
" हाँ अँकल " .. - सुषमा झा जाते-जाते अपनी माला दी' को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए - " दी' ! .. प्रणाम ! .. ये श्यामल मुख़र्जी 'अंकल' हैं .. मेरे पड़ोस में ही रहते हैं। ये भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' हैं। "
ये कहते हुए सुषमा झा .. अपना 'हैंड बैग' सम्भालते हुए .. अपने मुख़र्जी 'अंकल' के 'स्कूटर' की पिछली 'सीट' के दोनों तरफ़ अपने दोनों पैरों को रख के बैठ गयीं हैं और 'स्कूटर' काफ़ी पुराना होने के कारण कुछ-कुछ धुआँ की लकीर हवा के पन्ने पर उकेरता हुआ बढ़ चला है। कुछ दूर जाने के बाद रास्ते में चलते-चलते हुए ही उन्होंने अपने 'अंकल' को प्रेस जाने वाली बात से अवगत कराते हुए ...
" 'अंकल' ! .. रास्ते में जो अख़बार का 'ऑफिस' है ना ? .. वहाँ पाँच मिनट के लिए रुकिएगा जरा ? .. "
" क्यों ? .. वहाँ बनवारी के दुकान का (की) चाय खिलाएगा (पिलाएगी) क्या अपने मुख़र्जी 'अंकल' को ? .. "
" पिला दूँगी और .. आपके बहाने मैं भी पी लूँगी .. पर .. दरअसल .. वहाँ 'प्रेस' में आज के कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति सौंपनी है। "
" कौन सा कार्यक्रम ? "
" हे भगवान ! .. आज पूरा विश्व मिलकर "विश्व पर्यावरण दिवस" मना रहा है और आपको ये भी नहीं पता कि आज किस का कार्यक्रम है भला .. "
" ना रे बाबा .. हमको ये सब नहीं पता है। वैसे .. कोई बात नेही (नहीं) है। रुक जाएगा बाबा .. चाय का तो बस .. थोड़ा मज़ाक कर रहा था। तुमको तो पता ही है आमरा (हमारा) किसी के साथ भी मज़ाक करने का आदत .. "
" इस गर्मी में चाय क्यों .. चलिए आपको बजरंगी की लस्सी पिलाते हैं .. "
" ना बाबा .. तुमको तो पता है शुशुमा (सुषमा) कि चाय हमारा (हमारी) कमजोरी है। " - 'स्कूटर' की गति धीमी करते हुए 'प्रेस' के 'गेट' के पास 'पार्किंग' में ले जाने से पहले रोक कर सुषमा झा को उतरने के लिए कहते हुए ..
" लो .. आ गया तुमरा (तुम्हारा) 'प्रेस' .. जा के तारातारि (जल्दी से) काज (काम) कर के आओ।" - अपने 'स्कूटर' को 'पार्किंग' की ओर ले जाते-जाते- " फिर साथ में बनवारी का 'स्पेशल' चा' (चाय) मिल के खाएगा .. "
कुछ ही मिनटों के बाद अंदर से सुषमा झा मुस्कुराते हुए बाहर आकर, बाहर प्रतीक्षारत मुख़र्जी अंकल के साथ चाय की दुकान की ओर बढ़ चली हैं। चलते-चलते उनके वार्तालाप जारी हैं ...
" तुम उस वक्त मेरे बारे में उन भद्र महिला को बोल रहा था (थी), कि हम भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' है .. तो "भी" का क्या मतलब ? वो महिला भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' है क्या शुशुमा (सुषमा) ? "
" ना, ना .. वो जिनके घर से अभी आप निकले थे ना .. उनके बारे में वो माला दी' बतला रहीं थीं, कि उनका नाम सतीश सक्सेना है और वो 'रेलवे' से 'रिटायर' हैं। "
" हाँ .. सही तो बतलाया (बतलायीं) .. ये सतीश और मैं साथ में ही काम करता था। उसका तो इधर में पुश्तैनी बाड़ी (घर) है और हम .. दोसरा राज (दूसरे राज्य) से यहाँ पर नौकरी करने आया था, लेकिन सतीश जैसे लोगों का साथ क्या मिला .. 'रिटायर' होने बाद भी यहीं जगह-ज़मीन लेकर .. यहीं बस गया। "
" ये दिनभर चिड़िया-जानवरों और पेड़-झाड़ों के पीछे लगे रहते है क्या ? सुना है कि अपना आधा 'पेंशन' उड़ा देते हैं इन सभी के पीछे .. ऐसा ही है क्या ? "
" हाँ .. बिलकुल ऐसा ही है। " अब तक साथ-साथ पैदल ही चलते-चलते चाय की दुकान के समीप आने के कारण दुकानदार को सम्बोधित करते हुए श्यामल मुख़र्जी - " दो कुल्हड़ .. 'स्पेशल' वाला .. एक चीनी और एक सादा .."
चाय आने तक बातों को आगे जारी रखते हुए सुषमा झा " ऐसा क्यों करते हैं वो ? .. उनका घर-परिवार नहीं है क्या ? "
" सब है .. पर अभी केवल मियाँ-बीवी है बाड़ी (घर) में .. मेरी तरह। सतीश अपनी एक बड़ी बेटी को पहले ही .. नौकरी करते हुए में शादी दे दिया (ब्याह कर दिए) और एक बेटा-बहू है .. वो लोग मेरे बेटे-बहू की तरह ही बाहर 'जॉब' करता है। साल में एक-दो बार आता है मिलने-मिलाने के लिए। बाक़ी तो .. मोबाइल है ही ना आजकल .. सबको मिलने और मिलाने के लिए .. "
बिना चीनी वाली 'स्पेशल' चाय का एक कुल्हड़ आ चुका है। अब श्यामल मुख़र्जी जी चाय की चुस्की लेते हुए ..
" परन्तु .. ये तो शुरू से ही ऐसा है। सतीश अपने आसपास के सभी उपलब्ध पशु-पक्षियों को शुरू से ही अपना परिवार मानता है। हाँ .. ये अलग बात है कि नौकरी और अपनी शादीशुदा पारिवारिक जिम्मेवारियों के कारण इन सब बातों में उतना समय नहीं दे पाता था। पर ... "
चीनी वाली चाय का दूसरा कुल्हड़ भी आकर सुषमा झा के होठों से लग चुका है। चुस्की के साथ वार्तालाप चल ही रहा है ...
" पर अब .. 'रिटायर' होने के कारण इतना समय दे पाते हैं .. है ना ? "
" हाँ.. पर .. सवाल समय का नहीं है शुशुमा (सुषमा) .. बस रुचि होनी चाहिए। अगर रुचि हो तो .. समय अपने-आप निकल जाता है। "
" सो तो है अंकल .."
" वैसे .. तुमको मालूम .. सतीश कोई 'शो ऑफ' नहीं करता। आज के चलन के मुताबिक 'सो कॉल्ड' 'सोशल मीडिया' पर अपनी 'शो ऑफ' वाली 'सेल्फियाँ' नहीं चिपकाता .. "
" पर .. ज़माना तो 'शो ऑफ' का ही है ना अंकल ? "
" होगा .. होता रहे .. मुझे सब मालूम है, कि बिना 'शो ऑफ' के तो सरकारी अनुदान भी नहीं मिलते हैं। पर इस सतीश को थोड़े ही ना किसी संस्था या किसी 'एन जी ओ' के नाम पर किसी सरकारी या ग़ैर सरकारी अनुदान की अपेक्षा है .."
" हाँ .. तभी तो उनका लगभग आधा 'पेंशन' ..."
" उसका मानना है, कि आसपास के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी .. ये सारे के सारे ही हमारे पर्यावरण के हिस्से हैं। इनके खुश रहने पर ही हमें 'रेगुलर' 'पॉजिटिव औरा' (सकारात्मक ऊर्जा) मिल पाएगी और इन सब को खुश रखने की जिम्मेवारी भी हमारी ही है। नहीं क्या ? .. हम केवल पेड़ लगाने की बातें कर-कर के पर्यावरण के बारे में नयी पीढ़ी को भी गुमराह कर रहे हैं .. "
" उनकी सोच और आपकी बातें तो पते की हैं अंकल .."
" हमारी नहीं .. ये सब उसी की बातें हैं। सुबह 'फ़्रेश' होने के बाद उसकी सुबह की शुरुआत होती है .. अपने बाड़ी (घर) की चहारदीवारी पर गिलहरियों के लिए एक मिट्टी के बर्त्तन में मूँगफली के दाने और दूसरे में पानी रखने से। "
" अच्छा ! " .."
" फिर मिट्टी के ही अलग-अलग बर्त्तनों में कबूतरों-पंडूकों के लिए बाज़रे, गौरैयों के लिए खुद्दी (टूटे चावल) या कँगनी, तोतों के लिए साबूत मौसमी फल या उस के टुकड़े , चींटियों के लिए गुड़ के टुकड़े और इन सब के पीने-नहाने के लिए पानी नियमित रूप से रखता है। "
" इतना सब कुछ ? .."
" उसके बाद मुहल्ले के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम कभी दूध-रोटी, कभी 'अरारोट बिस्कुट', तो कभी उबले अंडे खिलाता है। फिर घर और आसपास के भी पेड़-पौधों को एक-एक कर खाद-पानी देने के साथ-साथ विशेष ध्यान भी देता है। "
दोनों के होठों को चूमने वाले चाय के कुल्हड़ अब बारी-बारी से कूड़ेदान की आबादी बढ़ा रहे हैं।
" दिलचस्प क़िरदार हैं .. ये सतीश अंकल तो .. "
" तो .. तुमको क्या लगा था ? .."
" सनकी .. अरे धत् .. 'सॉरी' .. मैं भी क्या बोल गयी .. ऐसा मैं नहीं बोल रही .. वो तो .."
" ख़ैर ! .. ये कोई नई बात नहीं है। ज्यादातर लोग उसको ऐसा ही कहते हैं। पर उसको इन सब से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। उसको धर्म-पूजा, पाप-पुण्य में तनिक भी यक़ीन नहीं है। वह अपनी मन की शान्ति के लिए ये सब करता है। उसकी निगाह में यही पूजा है .. शायद ..."
" 'सॉरी' अंकल .."
" अरे बाबा .. 'सॉरी' वाली कोई बात ही नहीं है शुशुमा (सुषमा) .. जब वह अपनी 'वाइफ' का मन रखने के लिए किसी धार्मिक स्थल पर जाता है, तब भाभी जी पूजा-पाठ वाले कर्मकांडों में तल्लीन रहती हैं और ये अपने साथ ले गए बिस्कुट-केले आसपास के बन्दरों की टोली को खिलाने में मग्न रहता है। अगर मन्दिर परिसर के आसपास नदी या तालाब अवस्थित हुए, तो नदी या तालाबों में मछलियों के लिए चौलाई के लावे या आटे की गोलियॉं डाल के आता है ये सतीश ... "
अब तक बात करते-करते दोनों 'पार्किंग' तक पहुँच चुके हैं।
" अब तुम ही बतलाओ शुशुमा (सुषमा) कि .. ऐसे मानुष को पर्यावरण दिवस मनाने या पौधे को पकड़ कर 'फ़ोटो' खिंचवाने की जरूरत है क्या ? .. चलो .. अब बाड़ी (घर) चलें .. "
सुषमा झा निरूत्तर-सी पुनः अपने पड़ोसी मुख़र्जी अंकल के 'स्कूटर' की पिछली 'सीट' पर बैठ गयी है अपने घर जाने लिए और पुनः पुराने 'स्कूटर' के धुएँ की लकीर फिर से हवा के पन्ने को धूमिल करती हुई बढ़ चली है। पर .. सुषमा झा के मन के पन्ने पर आज के "विश्व पर्यावरण दिवस" वाले कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति को धूमिल करते हुए, सनकी .. 'सॉरी' .. सतीश सक्सेना अंकल की धवल छवि ने ले ली है .. बस यूँ ही ...
हमेशा की तरह अनेक मुद्दों को छूती हुई बेहद लंबी कहानी।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. इस लम्बे जीवन और जीवन पटल पर घटने वाले लम्बे घटनाक्रम की तरह ही .. "बेहद लम्बी" बतकही को अपनी प्रस्तुति में परोसने के लिए ...
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
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