50वाँ जन्मदिन मनाने के पहले ही :-
यूँ तो हमारे सभ्य समाज में फ़िल्म जगत से संबंधित कई सारी अच्छी-बुरी मान्यताएं हैं और शायद वो कुछ हद तक सच भी हैं। वैसे तो सभ्य समाज के परिपेक्ष्य में आम मान्यताओं के अनुसार फ़िल्म जगत में बुराइयाँ ही ज्यादा मौजूद हैं। पर अभी हम ना तो उस जगत की अच्छाइयों की और ना ही बुराइयों की कोई भी बकैती करते हैं। बल्कि फ़िल्म जगत से जुड़ी एक अभिनेत्री विशेष के निजी जीवन के पहलूओं में बिना झाँके हुए, केवल उसके द्वारा गत बुधवार, 30 जून को इसी समाज की कुछ लैंगिक रूढ़िवादिता को तोड़ने वाले क़दमों की धमक सुनते हैं .. बस यूँ ही ...
सर्वविदित है कि गत बुधवार, 30 जून को घटी एक दुःखद घटना वाले समाचार के साथ-साथ, कुछेक नकारात्मक या सकारात्मक, इस से जुड़ी हुई अन्य चर्चाओं से भी, उस दिन से आज तक सोशल मीडिया अटा पड़ा है। दरअसल उस दिन 'बॉलीवुड' फ़िल्म जगत के मशहूर निर्माता-निर्देशक, 'स्टंट निर्देशक' (Stunt Director) के साथ-साथ एक विज्ञापन उत्पादन कंपनी (Advertising Production Company) के मालिक राज कौशल के एक दिन पहले तक शारीरिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ्य होने के बावजूद अचानक तड़के ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।
24 जुलाई'1971 को जन्में राज कौशल के द्वारा इसी 24 जुलाई को अपना 50वाँ जन्मदिन मनाने के पहले ही उनके अपने नश्वर शरीर ने उनका साथ छोड़ दिया। वह अपने पीछे, अपनी शादी के लगभग 12 सालों बाद तथाकथित कई मन्नतों के प्रभाव से उत्पन्न हुए, 10 वर्षीय पुत्र- वीर और भारतीय रूढ़िवादी सोच के अनुसार कि एक बेटा और एक बेटी हो जाने से उस भाग्यशाली जोड़ी का परिवार पूर्ण हो जाता है; के ध्येय से पिछले साल सन् 2020 ईस्वी में अपने ही जन्मदिन के दिन गोद ली गई 5 वर्षीय पुत्री- तारा बेदी कौशल के साथ-साथ अपनी धर्मपत्नी- मंदिरा बेदी, जो पेशे से टीवी और फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री के साथ ही मशहूर 'फ़ैशन डिज़ाइनर' (Fashion Designer) भी हैं, को छोड़ गए हैं। मंदिरा बेदी 20वीं सदी के आख़िरी दशक के दर्शकों को दूरदर्शन की शान्ति के रूप में अवश्य याद होगी। 15 अप्रैल'1972 को जन्मी, उम्र में राज से लगभग नौ महीने छोटी मंदिरा ने उनसे 14 फरवरी'1999 को प्रेम विवाह किया था, जिस दिन सारे देश में विदेशी 'वैलेंटाइन्स डे' (Valentine's Day) के साथ-साथ हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार महाशिवरात्रि जैसा पर्व भी मनाया जा रहा था।
'ट्रोल' शब्द से इसी 'ब्लॉग' की दुनिया में :-
हालांकि गत एक सप्ताह में समाचार या सोशल मीडिया में स्वर्गीय राज कौशल के नाम से ज्यादा उनकी पत्नी मंदिरा बेदी का नाम कुछ ज्यादा ही छाया रहा। छाता भी क्यों नहीं भला !!! .. उसने एक महिला होने के बावजूद भी अपने मृत पति की अर्थी के साथ-साथ इस सभ्य समाज की कई रूढ़धारणाओं की अर्थी को भी अपना कंधा देकर, दाह संस्कार भी जो कर दिया था। जिनकी कुछ लोग तारीफ़ कर रहे हैं, तो कुछ थोथी मानसिकता वाले लोग उसे 'ट्रोल' (Troll) भी कर रहे हैं। थोथी मानसिकता वालों की कुछ घिनौनी प्रतिक्रियाओं ने तो मानो उल्टे उनकी घिनौनी सोचों की बखिया ही उधेड़ कर रख दी है .. शायद ...
प्रसंगवश ये बता दें कि हमारी पढ़ाई सरकारी स्कूल में होने के कारणवश हमारी अंग्रेजी कमजोर होने की वजह से, ये 'ट्रोल' शब्द से इसी 'ब्लॉग' की दुनिया में, दो वर्ष पहले इस से जुड़ने के कुछ माह बाद ही, कुछ सज्जन पुरुषों ने परिचित करवाया था। दरअसल मामला मेरी किसी एक रचना/विचार से किन्हीं के मन खट्टा होने का था। फिर क्या था ! .. धमाल की ढेर सारी डकारें निकल के बाहर आयीं। अब भला मन खट्टा हो या पेट में 'एसिड' (Acid/अम्ल) हो तो डकारें आनी स्वाभाविक ही हैं। और तो और ये अंग्रेजी के 'ट्रोल' शब्द से परिचय करवाने की कोशिश करने वाला भी वही वर्ग था, जिन्हें गाहेबगाहे अंग्रेजी भाषा का प्रयोग हिंदी के क्षेत्र में घुसपैठ नजर आती है या हिंदी की जान खतरे में जान पड़ती है।
लैंगिक रूढ़िवादिता की अर्थी :-
ख़ैर ! बात हो रही थी/है - रूढ़धारणा या मान्यतावाद .. और ख़ासकर लैंगिक रूढ़िवादिता के तोड़ने की। रूढ़िवादी सोच वालों को मंदिरा का अपने पति के निधन के बाद उनकी शव यात्रा में अपने पति की अर्थी को अपने कंधे पर उठाया जाना और अंतिम/दाह संस्कार की बाकी रस्मों में हिस्सा लेना, वो भी जींस और टी-शर्ट जैसे पोशाकों में तो, बुरी तरह खल गया ; क्योंकि हमारे भारत देश के सभ्य पुरुषप्रधान समाज में इन रस्मों को पुरुष ही निभाते आये हैं या निभा रहे हैं और आगे भी सम्भवतः निभाते रहेंगे। लकीर का फ़कीर वाले मुहावरे को हम चरितार्थ करने में विश्वास जो रखते हैं।
अब जो पत्नी या औरत शादी के बाद जीवन भर पति या पुरुष और उसके परिवार की जिम्मेवारी, भले ही गृहिणी (House wife) के रूप में ही क्यों ना हो, अपने कंधे पर उठा सकती है; पुरुष के तथाकथित वंश बेल को गर्भ व प्रसव पीड़ा को सहन कर सींच सकती है, सात फेरे और चुटकी भर सिंदूर के बाद अर्द्धांगिनी बन कर परिवार के सारे सुख-दुःख में शरीक हो सकती है ; तो फिर मानव नस्ल की रचना के लिए प्रकृति प्रदत कुछ शारीरिक संरचनाओं में अंतर होने के कारण मात्र से, वह अपने पति की अंतिम यात्रा या अंतिम संस्कार में शामिल क्यों नहीं हो सकती भला ? उसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों ? सती प्रथा वाले कालखण्ड में भी भुक्तभोगी औरत ही थी। वाह रे पुरुष प्रधान समाज ! .. अपनी मर्दानगी पर अपनी गर्दन अकड़ाने वाले सभ्य समाज !! .. पति मरता था तो पत्नी को भी चिता पर जिन्दा ही जला देते थे, तो फिर पत्नी के मरने के बाद पति को क्यों नहीं जलाया जाता था भला ???
तब का बुद्धिजीवी सभ्य समाज भी तो तब के इसी सती प्रथा को सही मान कर अपने घर की बहन, बेटी, भाभी, माँ के विधवा हो जाने पर तदनुसार उनके मृत पति की चिता पर उन्हें जिन्दा जला देते होंगे; परन्तु बदलते वक्त के साथ सब कुछ बदल गया। आज का सभ्य समाज इसे गलत माने या ना माने, तो भी ऐसा करना क़ानूनन अपराध तो है ही। एक वक्त था, जब तथाकथित अछूतों को सनातनी धर्मग्रंथों को स्पर्श करना, पढ़ना, सब वर्जित था। तब के भी बुद्धिजीवी सभ्य समाज उस पर रोक लगा कर, उसे ही सही मानते हुए अपनी गर्दन अकड़ाते होंगे। पर फिर वक्त बदला और सब कुछ बदल गया, पर बदली नहीं तो इनकी अकड़ने वाली गर्दनें। ऐसे में आज वो सारी लुप्त हो चुकी प्रथाएँ ना हो सही, पर इनको अपनी गर्दन अकड़ाने के लिए कुछ और बहाना तो चाहिए ही ना .. तो आज भी श्मशान या कब्रिस्तान में नारियों का प्रवेश निषेध कर के, पुरुष प्रधान सभ्य समाज अपनी महत्ता पर अपनी गर्दन अकड़ा कर अपना तुष्टिकरण स्वयं कर रहा है .. शायद ...
सीता नाम सत्य है :-
अब .. ऐसे में .. थोथी मानसिकता वाले अपनी इन रूढ़धारणाओं के पक्ष में ढेर सारे धर्मग्रंथों का हवाला देंगे, जैसा वो सती प्रथा के समय देते होंगे। पर यही समाज दो नावों पर सवार किसी सवार की तरह, कभी तो विशुद्ध सनातनी बातें करता है और कभी विज्ञान के सारे जायज-नाज़ायज भौतिक उपकरणों का उपभोग करके आधुनिक बनने की कोशिश भी करता है। यह अटल सत्य है और पुरख़े भी कहते हैं कि समय परिवर्त्तनशील है और समय के साथ ही हर तरफ परिवर्त्तन होता दिखता है, पर कई बातों में दोहरी मानसिकता वाले सभ्य सज्जन पुरुष .. वही आडम्बरयुक्त पाखण्ड के पक्षधर बने लकीर के फ़क़ीर ही जान पड़ते हैं .. शायद ...
हमारे समाज में आज भी हम अंधानुकरण में मानें बैठे हैं, कि 13 की संख्या बहुत ही अशुभ होती है, पर एक साल के 12 महीनों के कुल बारह 13 तारीख को छोड़ दें तो क्या बाकी दिनों में लोग नहीं मरते ? क्या दुर्घटनाएं नहीं होती ?? 13 'नम्बर' वाले 'बेड' से इतर बीमार लोग नहीं मरते ??? मरते हो तो हैं .. बिलकुल मरते हैं। फिर ये 13 'नम्बर' का मन में ख़ौफ़ क्यों भला ? उसी तरह बेख़ौफ़ होकर अगर पुरुष श्मशान या क़ब्रिस्तान जा सकते हैं, तो औरतें भला क्यों नहीं ?? उन्हें भी तो जाने देना चाहिए, शामिल होने देना चाहिए .. किसी अपने की अंतिम यात्रा में। माना कि सभ्य समाज में पुरुषों ने "राम नाम सत्य है" जैसे जुमलों पर "सर्वाधिकार सुरक्षित" का 'टैग' लगा रखा हो, तो फिर महिलायें "सीता नाम सत्य है" तो बोल कर अपना काम कर ही सकती हैं ना ? .. शायद ...
युगों से उनका वहाँ जाना हमने वर्जित कर रखा है, तो हो सकता है शुरू - शुरू में उन्हें बुरा लगे, मानसिक आघात भी लगे, पर फिर एक-दो पीढ़ी के बाद हम पुरुषों के जैसा ही उनका जाना भी सामान्य हो जाएगा। याद कीजिए, हम भी जब कभी भी, किसी भी उम्र में जब पहली बार किसी अपने या मुहल्ले के किसी के शव के साथ श्मशान या क़ब्रिस्तान गए होंगे तो हमें भी पहली बार अज़ीब-सा लगा होगा। कई दिनों तक वही सारा दृश्य आँखों के सामने से गुजरता होगा। फिर उम्र के साथ-साथ हम अभ्यस्त हो जाते हैं .. शायद ...
जब औरतें पुरुषों वाले , कुछ प्रकृति प्रदत अंतरों को छोड़ कर, सारे काम कर सकती हैं, अंतरिक्ष यान से लेकर 'ऑटो' तक का, घर की सीमारेखा के भीतर से लेकर देश की सीमा तक का सफ़र तय कर सकती है, तो फिर ये क्यों नहीं ? अपने बचपन या उस से पहले की बात याद करें, तो प्रायः वर पक्ष की महिलाएं शादी-बारात में शामिल नहीं होती थीं। पर धीरे-धीरे समय के साथ सब कुछ बदल गया। अब तो औरतें भी पुरुषों के साथ बारात में बजते बैंड बाजे और 'ऑर्केस्ट्रा' (Orchestra) के गानों संग सार्वजनिक स्थलों पर मजे से नाचती हुई वधू पक्ष के तय किए गए विवाह स्थल तक जाती हैं। जब इस ख़ुशी के पलों के लिए चलन बदल सकता है, तो दुःख की घड़ियों के लिए क्यों नहीं बदला जा सकता भला ? आख़िर हम कुछ मामलों में इतने ज्यादा लकीर के फ़कीर क्यों नज़र आते हैं ???
मलिन चेहरे और फटेहाल कपड़ों में :-
अब रही बात मंदिरा के उस दिन के पहने हुए पोशाक के, तो सही है कि वह सलवार सूट या साड़ी की बजाय जींस और टी-शर्ट में थी। पर नंगी तो नहीं थी ना !!! थोथी मानसिकता वालों को उसमें क्या बुराई या दोष नज़र आयी भला ? दरअसल दोष तो समाज की कलुषित मानसिकता में ही है, खोट तो इनकी विभत्स नज़रिया में है, इनकी कामुक नज़रों में हैं; जो अगर ... मवाली हुए तो लोकलाज को दरकिनार कर के राह चलती लड़कियों या महिलाओं को सामने से छेड़ते हैं या अगर सभ्यता का मुखौटा ओढ़े दोहरी मानसिकता वाले सभ्य पुरुष हुए तो चक्षु-छेड़छाड़ करने से जरा भी नहीं चूकते कभी भी .. कहीं भी .. शायद ...
प्रसंगवश यहाँ अगर सन् 1985 ईस्वी के जुलाई महीने में ही आयी हुई फ़िल्म- राम तेरी गंगा मैली की बात करूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि उस फ़िल्म में फिल्माये गए एक दृश्य विशेष को लेकर सभ्य समाज द्वारा उस समय काफ़ी आलोचना यानी 'क्रिटिसाइज'
(Criticize) की गई थी। दरअसल उस जमाने में 'ट्रोल' शब्द ज्यादा चलन में नहीं था, इसीलिए लोग 'क्रिटिसाइज' ही किया करते थे। 'ट्रोल' तो अब करते हैं। फ़िल्म के उस दृश्य में फ़िल्म की नायिका- गंगा (मंदाकिनी) अपने जीवन की बुरी परिस्थिति जनित संकट से परेशान हाल में भटकते हुए, एक सार्वजनिक स्थल पर बदहवास-सी, भूख से बिलखते अपने दुधमुँहे को स्तनपान कराती हुई दिखलायी जाती है ; जिस दौरान उसकी बदहवासी के कारण उसका दुपट्टा यथोचित स्थान से ढलका दिखता है। ऐसे में दोहरी मानसिकता वाले मनचलों को उत्तेजना और कामुकता नज़र आती है। तब के समय में इसके निर्माताद्वय- राजकपूर साहब और रणधीर कपूर या सही कहें तो सीधे-सीधे निर्देशक- राजकपूर साहब को दोषी ठहरा कर बहुत कोसा गया था, विरोध प्रकट किया गया था।
पर सच बतलाऊँ तो हमने स्वयं अपने शुरूआती दौर की अपनी 'सेल्स व मार्केटिंग' (Sales & Marketing) की घुमन्तु नौकरी (Touring Job) के दौरान पुराने बिहार (वर्तमान के बिहार और झाड़खंड का सयुंक्त रूप) के हर जिलों के लगभग चप्पे-चप्पे की यात्रा के क्रम में ऐसे दृश्य आमतौर पर नज़रों से गुजरे हैं। चाहे वह पाकुड़ जिला के काले पत्थरों (Black Stone Chips) के चट्टानों को तोड़ती, थकी-हारी रेजाएं (मजदूरिनें) दुग्धपान कराती हुई हों या फिर पटना या उत्तर बिहार के अधिकांश हिस्सों में वैध या अवैध ईंट-भट्ठे में काम कर रही मजदूरिनें हों। खेतों में काम करती महिलाएं हों या फिर चाइबासा या चक्रधरपुर जैसे आदिवासी क्षेत्रों की मेहनतकश महिलाएं, जो बस, ट्रक या 'लोकल पैसेंजर ट्रेनों' में अपने घर से अपने कार्यस्थल पर मेहनत-मजदूरी के लिए आने-जाने के क्रम में अपने दुधमुँहों को भूख से बिलबिलाने पर उनको चुप कराने के लिए दुग्धपान कराती हुईं प्रायः दिख ही जाती हैं। इन परिस्थितियों में भी अगर उनके थके-हारे, चिंताग्रस्त, उदास, मलिन चेहरे और फटेहाल कपड़ों में किसी इंसान के मन में उनके प्रति करुणा, संवेदना या समानुभूति ना भी तो कम से कम सहानुभूति पनपने की जगह, शरीर के अंग विशेष की झलक मात्र से, किसी पुरुष की कामुकता जागती हो या इनमें बुराई या फिर नंगापन नज़र आती हो, तो ऐसे पुरुष प्रधान समाज के ऐसे पुरुषों को बारम्बार साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने का मन करता है .. बस यूँ ही ...
सौ फ़ीसदी जायज़ हैं आपकी बातें! पुरुष मानसिकता की सड़ांध सूरत को बेनक़ाब करती आपकी यह रचना समाज के दोगले चरित्र पर भी बख़ूबी प्रहार करती है। लेकिन दूसरी ओर समाज में होने वाले स्वस्थ परिवर्तनों का भी स्वागत होना चाहिए। हमें याद है कि लोहारदग्गा के शहीद एस पी की अर्थी को पटना के बाँसघाट पर उनकी बेवा पत्नी (जो स्वयं आइ पी एस अधिकारी थीं) के द्वारा कंधा देने और उन्हें मुखाग्नि देने का समाज ने भरी आँखों से कितना आदर दिया था।
ReplyDeleteसर्वप्रथम नमन संग आभार आपका .. इस बार मेरी "अर्द्धांगिनी" की वर्तनी सही है .. शायद ... ☺ ( गत बार "अर्द्धांग्नि" लिखने पर आपने टोका था) ...☺
Deleteसही याद है आपको 2020 की घटना। वैसे तो ये शहीद एस पी साहब (अजय कुमार सिंह) या उनकी आइ पी एस अधिकारी बेवा पत्नी जी बड़े नाम वाले और बड़े ओहदे के लोग हैं, हालांकि ये समाज के सामने प्रेरक उदाहरण हैं। भले ही कम हों। पर मध्यमवर्गीय परिवार की कुछ पत्नियों ने भी अपने पति को मुखाग्नि दी हैं, पर .. मजबूरीवश। उनकी भी संख्या अतिनगण्य है। काश ! .. ये आम चलन में परिवर्तित हो पाता ...
मसलन- समाचारों के अनुसार (१) लगभग तेरह साल पहले मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में बसे एक गुजराती सन्तानहीन दम्पति में से पति- कृष्णदास गुप्ता के निधन पर उनकी धर्मपत्नी ने ही मुखाग्नि दी थी। (२) इसी राज्य के ग्वालियर के छः बेटियों के पिता- कृष्णकुमार चतुर्वेदी के गुजर जाने पर भी बेटी ने ही दाह संस्कार किया था। (३) गत वर्ष कोरोनकाल में इसी राज्य के जबलपुर में, छत्तीसगढ़ के भिलाई के निवासी- वीरेंद्र सिंह के अपने ससुराल- जबलपुर आने के बाद कोरोना से मर जाने पर उनकी धर्मपत्नी ने ही वहाँ की सामाजिक संस्था की मदद से अंतिम संस्कार की थी; क्योंकि 'लॉकडाउन' के कारण महिला के ससुराल वाले आने में असमर्थ थे। (४) इसी साल मई महीने में बिहार के बेगूसराय में गंगा नदी के सिमरिया घाट वाले श्मशान घाट पर कंचन देवी को अपनी माँ के साथ कोरोना से मृत मात्र 28 साल के अपने पति- विकास मंडर का दाह संस्कार करना पड़ा। वह भी छः दिन बाद, सरकारी 'क्वारंटाइन सेंटर' के अधिकारियों से स्वयं के बाहर आने के अनुरोध पर भी अनुमति ना मिलने पर, चोरी-छिपे भाग कर; क्योंकि कंचन के भी ससुराल वालों ने दाह संस्कार करने से इंकार कर दिया था।
ये चंद ख़बरें (?) हैं , जो शब्दों की शक़्ल में नज़र से गुजरी हैं। अन्य और भी अवश्य होंगी। पर इन सारे के पीछे कोई ना कोई मजबूरी रही है। अगर ये आम चलन की तरह हो जाए तो ज्यादा बेहतर और न्यायपूर्ण फैसला होगा हमारे सभ्य समाज का .. शायद ... जिस पर आने वाली पीढ़ी सदियों सती प्रथा के समाप्त हो जाने जैसा ही इसके लिए भी गर्व महसूस करेगी या राहत की साँसें लेंगी .. बस यूँ ही ...
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08-07-2021को चर्चा – 4,119 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteनमस्कार सर,हमारा समाज दोहरा चरित्र के साथ जिता है हम दिखावे के लिए बराबरी की बात तो करते है लेकिन सच मे ऐसा होता नही है । बहुत दुखद है कि ,ताना देने या तंज कसने में पुरुष ही नही महिलाये भी शामिल है।
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार आपका ...
Deleteस्त्रियों के लिए नियम रचने में पुरुष समाज के साथ-साथ उसे बढ़ावा देने में कुछ रूढ़िवादी स्त्रियों का भी पूरा सहयोग होता है।यही बढ़ावा पुरुषों की सोच पर हावी होकर विरोध का कारण बनते हैं। हमारे समाज का यही दोगलापन आज भी स्त्री के शोषण की वजह बना हुआ है । बहुत सही चित्रण किया आपने आदरणीय सुबोध जी।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. सही कह रहीं आप भी, "रूढ़िवादिता" स्त्रियों की हो या पुरुषों की, है तो रूढ़िवादिता ही ..शायद ...
Deleteइस बार मेरी "अर्द्धांगिनी" की वर्तनी सही है .. शायद ... ☺ ( गत बार "अर्द्धांग्नि" लिखने पर आपने टोका था) ...☺
ReplyDelete"अर्द्धांगिनी को "अर्द्धांग्नि"लिखने पर टोका टाकी तक चलेगा। "अर्द्धांगिनी ने कूटा तो नहीं।
:) :)
जी ! नमन संग आभार आपका .. अब धान को तो एक ही बार कूटते हैं .. शायद ...
Deleteबहुते कूटा चुके हैं, अब कूटाने लायक बचा ही क्या है .. जो ... 😀😀
सुबोध जी, फर्क नज़र का नहीं नज़रिए का है। मंदिरा के दुःख का जिसे एहसास है उसके लिए उसकी पोशाक कोई मायने नहीं रखती। हां जिसकी नज़र में नारी देह बसी है वो अपनी सोच से लाचार है। बच्चे को दूध पिला ती नारी को कोई एक मां ना समझ कुत्सित मानसिकता से देखेगा तो इसका ईलाज हकीम लुकमान के पास भी ना मिलेगा। ये दोहरी सोच ना जाने कब तक व्याप्त रहेगी समाज में।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. आप बिलकुल कह रहीं हैं रेणु जी, हर जगह नज़र नहीं नज़रिया का ही फ़र्क भरा पड़ा है .. शायद ...
Deleteये लेख पहले नहीं पढ़ पाई ।
ReplyDeleteसच कहा कि लोग हर जगह गलतियाँ देखने का प्रयास करते हैं । मंदिरा बेदी के दुख से दुखी नहीं थे पोशाक पर तंज हो रहे थे । वैसे खुद क्या पहनते हैं इस पर ध्यान नहीं जाता ।
झारखंड में तो ऐसे भी आदिवासी इलाके देखे हैं जहाँ मेहनतकश स्त्रियाँ धान लगाते हुए मात्र धोती का एक टुकड़ा लपेटे होती हैं । सब नज़रिए का ही अंतर है । सोच है । बस .....
जी ! नमन संग आभार आपका .. बात केवल पोशाक की नहीं थी, बल्कि उसके श्मशान तक जाने और अपने पति की अंत्येष्टि पर भी लोगों को आपत्ति थी।
Deleteझारखण्ड के आदिवासी क्षेत्रों का आपका सही अवलोकन है, पर यह स्थिति कमोबेश पूरे विश्व की हर आदिवासी और गंदी बस्तियों (Slum areas) के निवासियों का है .. वैसे भी केवल झाड़खंड का नाम लेने से मोहतरमा श्वेता जी नाराज ना हो जाएँ कहीं .. शायद ...😃😃😃