बस कुछ माह भर ही .. साल भर में
मानो हो किसी मौसम विशेष में
जैसे कोयल की कूक बसंत में
या मेढकों की टर्रटर्र बरसात में
वैसे ही जाड़े की आहट पाते ही
कंधे पर लादे अपने "धुनकी" और "मुठिया"
साथ ही "गज" सम्भाले हाथों में
गली-गली मुहल्लों में फेरी लगाते
या फिर किसी रुई की दुकान पर
दिख ही जाते हो तुम हर साल बारहा
हर बार अपने दोनों सधे हाथों की
लयबद्ध मशीनी हरक़तों से
कोई भी पुरानी रजाई की
तकिया या तोशक की
पुरानी रुई के पुराने रेशे को
कर देते हो कुछ पल में ही
मैल-गर्द मुक्त और हल्के भी
मानो लयबद्ध धुन से सजे
बजता हो कोई जैसे एकतारा
है ना "धुनिया" भईया !!?
कई दफ़ा तो गढ़ते हो नई रजाई
तकिए .. मसनद और तोशक भी
नई विवाहित जोड़ों के लिए भी
नई-नई हल्की-मुलायम रुइयों से
और कई दफ़ा तो तुम
फैलाते हो आस-पास प्रदूषण भी
धुनते वक्त पुरानी रुइयाँ
खैर! जाने भी दो ना तुम
एक तुम ही तो नहीं हो जो
फैला रहे प्रदूषण
पर्यावरण में चहुँओर
कई सुसंस्कृत .. सुसभ्य लोगों ने भी
फैलाया है प्रदूषण पुरखों के परम्परा निभाते
हाल ही में तो दीपावली के बहाने
और बारात में हैसियत दिखाते
और हाँ .. अभी-अभी तो थी चर्चे में
बहुत 'पराली' भी भईया .. है ना !?
पर क्या करना जब हम कुछ
कर नहीं सकते इसकी ख़ातिर तो
फिर क्यों सोशल मिडिया पर
बेवज़ह हमारा बकबकाना
है ना "धुनिया" भईया !!?
पर एक बात बार-बार क्यों मन में आती कि ..
काश ! होती "धुनकी" कोई ऐसी
जो साल में एक बार ही सही
उतार देती मलिन मन के भी
द्वेष-दुःख वाले गर्द सारे हमारे और
हो जाता फिर से हल्का हमारा मन
मानो लौट आया हो जैसे बचपन
या काश! उतार पाते तुम भाई
किसी पुरानी रजाई-सी समाज से
जाति-धर्म के पुराने खोल
और पहना देते फिर से नया-नया
केवल मानव का खोल अनोखा
है ना "धुनिया" भईया !!?
मानो हो किसी मौसम विशेष में
जैसे कोयल की कूक बसंत में
या मेढकों की टर्रटर्र बरसात में
वैसे ही जाड़े की आहट पाते ही
कंधे पर लादे अपने "धुनकी" और "मुठिया"
साथ ही "गज" सम्भाले हाथों में
गली-गली मुहल्लों में फेरी लगाते
या फिर किसी रुई की दुकान पर
दिख ही जाते हो तुम हर साल बारहा
हर बार अपने दोनों सधे हाथों की
लयबद्ध मशीनी हरक़तों से
कोई भी पुरानी रजाई की
तकिया या तोशक की
पुरानी रुई के पुराने रेशे को
कर देते हो कुछ पल में ही
मैल-गर्द मुक्त और हल्के भी
मानो लयबद्ध धुन से सजे
बजता हो कोई जैसे एकतारा
है ना "धुनिया" भईया !!?
कई दफ़ा तो गढ़ते हो नई रजाई
तकिए .. मसनद और तोशक भी
नई विवाहित जोड़ों के लिए भी
नई-नई हल्की-मुलायम रुइयों से
और कई दफ़ा तो तुम
फैलाते हो आस-पास प्रदूषण भी
धुनते वक्त पुरानी रुइयाँ
खैर! जाने भी दो ना तुम
एक तुम ही तो नहीं हो जो
फैला रहे प्रदूषण
पर्यावरण में चहुँओर
कई सुसंस्कृत .. सुसभ्य लोगों ने भी
फैलाया है प्रदूषण पुरखों के परम्परा निभाते
हाल ही में तो दीपावली के बहाने
और बारात में हैसियत दिखाते
और हाँ .. अभी-अभी तो थी चर्चे में
बहुत 'पराली' भी भईया .. है ना !?
पर क्या करना जब हम कुछ
कर नहीं सकते इसकी ख़ातिर तो
फिर क्यों सोशल मिडिया पर
बेवज़ह हमारा बकबकाना
है ना "धुनिया" भईया !!?
पर एक बात बार-बार क्यों मन में आती कि ..
काश ! होती "धुनकी" कोई ऐसी
जो साल में एक बार ही सही
उतार देती मलिन मन के भी
द्वेष-दुःख वाले गर्द सारे हमारे और
हो जाता फिर से हल्का हमारा मन
मानो लौट आया हो जैसे बचपन
या काश! उतार पाते तुम भाई
किसी पुरानी रजाई-सी समाज से
जाति-धर्म के पुराने खोल
और पहना देते फिर से नया-नया
केवल मानव का खोल अनोखा
है ना "धुनिया" भईया !!?
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 02 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteनमन और हार्दिक आभार आपका यशोदा जी !
Deleteबहुत सुंदर सृजन ,समाज के एक विशेष कलाकार को समर्पित ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteआपको भी नमन कामिनी जी ! काश! कोई ऐसा "धुनिया" होता जो मन के "गर्द" और समाज की मानसिकता के "बाँटने" वाले खोल हटा देता।
Deleteआपकी रचनाएँ खरी-खरी समाज का सच बयान कर जाती है। आपके शब्दों में गूँथा तीखापन जीभ भले बेस्वाद कर दे पर उसमें निहित संदेश निःसंदेह सदैव मानवता और इंसानियत जैसे भाव का मन के विचारों को उद्वेलित करते हैं।
ReplyDeleteआभार आपका रचना की आत्मा को स्पर्श करने के लिए .. करेले और नीम भी अगर अपने तीखापन को कोसने लगें और लोगों को खुश करने और लोगों की वाहवाही के लिए अपने तीखापन को त्याग दें तो इस समाज की कई बीमारियाँ कम नहीं हो पाएंगीं .. शायद ...
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