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Tuesday, June 27, 2023

मूँदी पलकों से ...

धुँधलके में जीवन-संध्या के 

धुंधलाई नज़रें अब हमारी,

रोम छिद्रों की वर्णमाला सहित 

पहले की तरह पढ़ कहाँ पाती हैं भला

बला की मोहक प्रेमसिक्त .. 

कामातुर मुखमुद्राओं की वर्तनी तुम्हारी ...


पर .. मुश्किल कर देता है हल .. पल में ..

तीव्रता से चूमता मेरी कर्णपाली को 

तुम्हारी नम-नर्म साँसों का शोर,

और .. तख़्ती पर मेरे तपते बदन की 

कुछ कूट भाषा-सी गहरी उकेरती

तुम्हारी तर्जनी की पोर ...


पर .. पगली ! .. यूँ भी युवा आँखें 

इन मौकों पर तब वैसे भी तो

खुली कहाँ होती थीं भला !?

खुली-अधखुली-सी .. मूँदी पलकों से ही तो 

पढ़ा करते थे हम 'ब्रेल लिपि' सरीखी 

एक-दूजे की बेताबियाँ .. बस यूँ ही ...




Monday, June 26, 2023

पूर्वाभ्यास सफल सुहागरात के ...

दुनिया भर में प्रेमी- प्रेमिका के आपसी प्रेम की सफलता के सामाजिक मापदंड- शादी वाली मंज़िल तक पहुँचने वाले सफल और विफल लोगों की क्रमशः अधिक- कम या कम- अधिक आनुपातिक संख्या का आकलन या आँकड़ा का तो हमें संज्ञान नहीं है, परन्तु अपनी इस बतकही में एक विफल प्रेमी की एक परिकल्पना भर है। 

जिसके प्रेम की विफलता की वजह कुछ भी हो सकती है .. मसलन- उन दोनों की जाति- उपजाति या धर्म- सम्प्रदाय में भेद या फिर दोनों के परिवारों के मध्य आर्थिक विषमता के कारण परिवार- समाज का विरोध झेलने से या फिर प्रेमिका के लिए अपने परिवार द्वारा एक बेहतर भावी पति के मिलने के लालच की वजह से, .. ख़ैर ! .. वज़ह कोई भी हो .. परिस्थिति ये है कि विफल प्रेम वाली प्रेमिका की शादी किसी और से होने वाली है और प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा है .. मन ही मन में .. बस यूँ ही ...

पूर्वाभ्यास सफल सुहागरात के ...

यूँ तो सुना है .. हो जाते हैं प्रवीण 

सारे कलाकार आपसी संवाद में

माह-दो माह भर के पूर्वाभ्यास से

और फलतः कर पाते हैं प्रायः एक दिन

एक कालजयी सफल मंचन .. बस यूँ ही ...


संग हमारे तुमने भी तो कई सालों तक 

किए थे पूर्वाभ्यास प्रेम-निवेदन के,

आलिंगन और चुम्बन के .. मेरे आलम्बन में,

कभी मधुमालती या तुरही बेल के चँदोवे तले

तो कभी केवड़े या केने के झुरमुटों के पीछे,

शहर के सार्वजनिक उद्यानों में अक़्सर

और सरके थे कई-कई बार, बारम्बार ..

तुम्हारी झिझक के झीने पल्लू .. बस यूँ ही ...


आशा ही नहीं, विश्वास है हमें कि

बेझिझक समा पाओगी अब तो तुम बाँहों में 

अपने भावी पति के .. अपने धर्मपति के, 

और हैं शुभकामनाएँ भी हमारी कि

होगी ही तुम्हारी .. एक सफल सुहागरात भी .. बस यूँ ही ...



Saturday, June 24, 2023

साधन मन मचलन का ...

सदा पुष्पगुच्छ से अछूते, 

मंदिरों के दर तक ना पहुँचे कभी।

ना साज सज्जा में कभी गुँथे, 

ना मज़ारों के चादर भी बने कभी।

गुण तो कुछ-कुछ हैं भी इनमें मगर, 

सहज उपलब्धता ही हो बनी 

सम्भवतः कारण इनके उपेक्षित होने की।

यूँ तो कुछ-कुछ ही नहीं, 

हैं सर्वदा कई-कई गुण भरे हुए औषधीय इनमें,

भूल बैठे हैं जिन्हें हम मनुज ही

कदाचित् बन कर आधुनिक और ज्ञानी अति।

सुगंध सोंधी-सी भी है इनमें,

मगर आँखें मूँदने तक घुल सकें किसी की भी 

नम .. नर्म-गर्म साँसों में,

ऐसी घड़ी ना आयी है और ना आएगी कभी .. बस यूँ ही ...


अवगुण या वजह भला मान भी लें कैसे 

इनसे लिपटे काँटों को,

हम सभी के इनसे किनारे करने की।

भरी पड़ी तो यूँ होती ही हैं,

जबकि काँटों से टहनियाँ सारी की सारी 

दुनिया भर के गुलाबों की।

'पोनीटेल', जुड़े या वेणी तक भी भला 

कब हो पाती है पहुँच उपेक्षित-से इन

राईमुनिया या सत्यानाशी के फूलों की !?

                             और .. जानम ! .. 

जनम-जनम .. 

हम .. इन्हीं उपेक्षित 

राईमुनिया और सत्यानाशी की तरह ही

साधन मन मचलन का तुम्हारे 

बन ना पाए हैं और बन ना पाएंगे भी कभी .. बस यूँ ही ...









Thursday, June 8, 2023

चस्का चुस्की का

ऐ साहिब !!! ...

                       ए साहिब !! ..

                                            साहिब ! ...

मनाते हैं हम सभी जब कभी भी 

हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ा भी ख़ाली-पीली,

चप्पे-चप्पे में देते हैं भाषण चीख़-चीख़ कर हर कहीं

और संग चुस्की के चाय की करते हैं काव्य गोष्ठी भी।

हर चुस्की पर हमारी, है खिलती चाय की मुस्की तभी 

और लगाकर चस्का चुस्की का, ग़ुलाम बनाने वाली,

पड़ी-पड़ी कप, कुल्हड़ या प्याली में आधी या भरी,

चपला-सी चाय है हम सभी को देखती, निहारती, घूरती।

गोया हम सभी वो भीड़ हैं तथाकथित इंसानी , 

जो भीड़ दिन के उजाले में तो यूँ है आदतन कतराती

करने में मंटो जी के नाम का ज़िक्र भर भी 

और रात में नाप आती है मुँह छुपाए किसी कोठे की सीढ़ी।

गर है अंग्रेजी से हम सभी को नफ़रत ही जो इतनी

और है ज़िद हमारी, फ़ितरत भी हमारी, चोंचलेबाजी भी

बचाने की सभ्यता-संस्कृति और भाषा भी हिंदी,

तो कर क्यों नहीं देते फिर हम चाय की भी ऐसी की तैसी .. बस यूँ ही ...



ऐ साहिब !!! ...

                       ए साहिब !! ..

                                            साहिब ! ...

यूँ तो सदा ही रहा है मतभेद सदियों से,

दो पीढ़ियों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

पर ये क्या कि कोसते हैं दिन-रात हम सभी,

खाती है नयी पीढ़ी चाऊमीन जब कभी भी।

शादी वाले घर में रंगीन झालर-सी लटकती

चाऊमीन, खाते वक्त मुँह से हर युवा-बच्चे की,

देती है नसीहत सभी वयस्क पीढ़ी को व्यंग्य से घूरती।

गोया हम हैं ऐसे पिता सभी के सभी, 

धारा-376 के तहत जिसने हो काटी सजा लम्बी कभी

और मचा रहे अब बवाल, जब निज बेटे या बेटी ने किसी

रचा ली हो अन्तर्जातीय प्रेम विवाह वाली शादी।

चाऊमीन ने तो बस थोड़े से ज़ायके भर हैं बदले 

और माना तनिक सी सेहत भी है बिगाड़ी।

पर उन दिनों की मिल रही शुरूआती मुफ़्त वाली, 

पी-पीकर हमने तो चाय की चुस्की ख़ाली-पीली,

स्वदेश को दी थी कई सौ वर्षों वाली सितमगर ग़ुलामी .. बस यूँ ही ...







Friday, May 26, 2023

साँसों की ओलती ...

दूरदर्शन, उत्तराखण्ड द्वारा एक कार्यक्रम का प्रसारण 27 मई 2023, कल शनिवार को शाम 5.00 बजे से दूरदर्शन, उत्तराखण्ड 'टी वी चैनल' एवं dd uttarakhand 'यूट्यूब चैनल' पर भी एक साथ प्रसारित होगा।

अगर आपके 'टी वी' में दूरदर्शन, उत्तराखण्ड 'चैनल' उपलब्ध है, तो ठीक, अन्यथा आप अपने 'मोबाइल' में 'यूट्यूब' पर dd uttarakhand के निम्न 'लिंक' द्वारा उस कार्यक्रम का रसास्वादन ले सकते हैं .. बस यूँ ही ...


https://youtube.com/@DoordarshanUttarakhand

यूँ तो .. कार्यक्रम का विषय 27 मई 2023, कल शनिवार को शाम 5.00 बजे अपने 'टी वी' या 'मोबाइल' पर देख कर आप जान ही जायेंगे .. शायद ...
अनुरोध है, कि पाँच मिनट पहले ही उपरोक्त 'लिंक' खंगालने की कोशिश कर लीजिएगा .. बस यूँ ही ...

बाक़ी 23 मई 2023, मंगलवार को कार्यक्रम की 'रिकॉर्डिंग' के दौरान वाली अनुभूति कुछेक उपलब्ध pics के साथ हम किसी अगले 'पोस्ट' में साझा कर पाएँ .. शायद ...

फिलहाल अब आज की बतकही को झेलने की बारी  ...

साँसों की ओलती ...

पूछ भर लिया क्या एक बार,

मंच पर सामने से रूमानी अंदाज़ में

'स्टैंड-अप कॉमेडियन' जाकिर खान ने 

कि - "लड़कियाँ इतनी महकती क्यों हैं ?"

या .. 'यूट्यूब' पर या फिर कभी 

'जश्न-ए-रेख्ता' के मंच से कभी 

बोल भर दिया कि- "लड़कियों में ख़ुश्बू होती है एक, 

जो सिर्फ हमें पता होता है।" तो ...

हठात् हँस पड़े तुम ताली पीटते हुए सारे के सारे

लयबद्ध "ओय-होय" की गूँज संग .. बस यूँ ही ...


भला हँसे भी क्यों ना भीड़ तुम्हारी ?

वो जो है एक मशहूर 'स्टैंड-अप कॉमेडियन' 

और ठहरे तुम सारे .. सात जन्मों के सम्बन्धों को

बस .. सात दिनों के 'वैलेंटाइन वीक' में 

किसी 'फ़ास्ट फ़ूड' की तरह 

'फ़ास्ट' .. 'फ़ास्ट' निपटाने वाले .. हैं ना ?

हाँ !!! ... ये सच है कि लड़कियाँ महकती हैं,

सोंधी .. सोंधेपन लिए हुए नाना प्रकार के,

जो सुगंध थी, है व रहेगी एक विशुद्ध विज्ञान की पोटली,

मिला जो हमें प्रकृति प्रदत्त एक वरदानरूपी .. बस यूँ ही ...


कब रही फ़ुर्सत तुमको भला ?

शुद्ध, सात्विक, सोंधी सुगंध ...

मन से सूँघने की .. साँसों में भरने की।

रहते हो तुम और टोलियाँ तुम्हारी सारी की सारी,

तो बस .. बनावटी और रसायनयुक्त,

व्यवसायिक विज्ञापनों वाली 

तथाकथित हवा भरी या फिर .. शायद ...

चौबीस घंटे तक चलने वाली 'डिओडोरेंट' की

फुहारों में अक़्सर .. फ़ुस्स,

फ़ुस्स .. फ़ुस्स .. बस और बस फ़ुस्स .. बस यूँ ही ...


इत्मीनान से खुले बालों में उसके कभी

कंपकपाती उँगलियों से अपनी

काढ़ कर लकीर एक लम्बी माँग की, 

कतार-सी टिमटिमाती जुग्नूओं की,

हो जो मानो अँधेरी रातों में भादो की ..

फिर .. समानांतर लकीर के, काढ़ी गयी माँग की, 

बहाना कभी अपनी नर्म-गर्म साँसों की ओलती।

और .. सुनो ! .. उस शुद्ध, सात्विक और सोंधी,

सुगंध से कर लेना तर-ब-तर कभी

साँसों और फेफड़ों की धौंकनी अपनी .. बस यूँ ही ...




Tuesday, May 23, 2023

बौद्धिक विकलांगता

हिन्दूओं की धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुलसी विवाह किया जाता है। इस तथाकथित मान्यता के अनुसार ही इस दिन ऐसा करना-कराना अत्यधिक शुभ होता है और घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही मान्यता यह भी है कि इस दिन तुलसी विवाह कराने से, जिस घर में बेटी ना भी हो तो, कन्यादान जितना पुण्य मिलता है। कहा तो ये भी जाता है, कि इसके एक दिन पहले चार मास तक सो कर विष्णु देव के जागने के बाद तथाकथित आस्थावान धर्मी लोगों के घरों में शुभ और मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं।


तुलसी चौरा या तुलसी के गमले की मिट्टी में ही एक गन्ना लगा कर, उस पर लाल चुनरी से मंडप सजाने का एक तथाकथित पूजन विधान है। दूध में भिंगोए हल्दी लगे शालिग्राम पत्थर को भी उसी गमले में रखने का भी विधान है। साथ ही तुलसी के पौधे और गन्ने के मंडप पर भी हल्दी के लेप लगाने के भी। पर प्रायोगिक रूप से प्रायः हर घरों में यह देखने के लिए मिलता है, कि लोग लाल कपड़े से पौधे को पूरी तरह लपेट कर ढकते हुए उसका दम घोंटने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं .. शायद ...


छठी से लेकर दसवीं कक्षा तक में पढ़ने वाले तमाम विद्यार्थियों को ज्ञात है, कि तमाम पेड़-पौधों की हरी पत्तियाँ अपने 'क्लोरोफिल' नामक वर्णक की उपस्थिति में सूर्य-प्रकाश के सहयोग से हवा के कार्बनडाइऑक्साइड गैस और मिट्टी के जल के द्वारा कार्बोहाइड्रेट नामक अपना भोज्य पदार्थ का निर्माण करती हैं और इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन गैस बाहर निकालती हैं। इस प्रकाश संश्लेषण नामक प्रक्रिया के तहत बने कार्बोहाइड्रेट तो तमाम पेड़-पौधों को जीवित रहने के लिए आवश्यक तो है ही और ऑक्सीजन गैस हम मानव सहित धरती के समस्त प्राणियों के जीवित रहने के लिए।


पर हमारा तथाकथित आस्थावान बुद्धिजीवी समाज यह सब जानकर भी धर्मान्धता में सब दरकिनार कर देता है और तभी तो इस अवसर पर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी से इस क़दर ढक देता है कि विष्णु-तुलसी के तथाकथित विवाह के नाम पर बेचारे तुलसी के मासूम पौधे का दम ही घुंट जाता होगा .. शायद ...


दूसरी तरफ हम फ़िलहाल तथाकथित "कन्यादान" करने से मिलने वाले तथाकथित पुण्य या पाप के विषय पर तो मनन-चिंतन को दरकिनार ही कर दें, उस से पहले तो "कन्यादान" शब्द की ही सार्थकता और औचित्यता पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है .. अगर आज भी हमारा बौद्धिक समाज "कन्यादान" जैसे शब्द पर आपत्ति नहीं जताता है, तो लानत है ऐसे बुद्धिजीवी समाज पर। इस संदर्भ में तथाकथित सभ्य समाज के इस बौद्धिक विकलांगता को बौद्धिक विकलांगता के वर्गीकृत चार वर्गों में से तीसरे और चौथे वर्गों - "गंभीर" और "गहन" की श्रेणी में रखी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ... नहीं क्या ? हाय री ! .. बौद्धिक विकलांगता .. वाह !!! ...




Sunday, May 21, 2023

अश्लीलता के बहाने .. बस यूँ ही ...

आज के शीर्षक से आप भ्रमित ना हों, हम अपनी बतकही में आपके समक्ष कुछ भी ऐसा-वैसा अश्लील नहीं परोसने वाले .. शायद ...

गत दिनों मैंने "बस यूँ ही ..." नामक अपनी एक कहानी प्रसार भारती के तहत आकाशवाणी, देहरादून के माध्यम से पढ़ी थी। जिसे बहुत से अपने शुभचिन्तक लोग अपने-अपने मोबाइल में उनके भिन्न 'Android' होने के कारण 'App' - "Newsonair" को नहीं 'Download' कर पाने की वजह से उस कहानी का प्रसारण नहीं सुन पाए थे। अफ़सोस भी हुआ था, दुःख भी। तो आज उसकी 'रिकॉर्डिंग' यहाँ साझा कर रहे हैं। पर यह कहानी केवल और केवल आर्थिक रूप से मध्य या निम्न-मध्य वर्ग के लोगों को सुनने के लिए है और .. आर्थिक रूप से उच्च वर्ग के लोगों के लिए सुनना पूर्णरूपेण निषेध है .. बस यूँ ही ... सोच रहा हूँ कि .. उन्हें बुरी लग जाए कहानी की बातें .. शायद ...

पर उस से पहले एक महान और भले ही शारीरिक रूप से दिवंगत हो चुके .. फिर भी अपनी रचनाओं में आज भी अजर-अमर, जिनके इसी माह जन्मदिन पर विश्व भर में उनके चाहने वालों द्वारा विभिन्न तरीकों से उन्हें याद भी किया गया है .. बस यूँ ही ...

हमारे समाज, ख़ासकर तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी, व्याप्त तमाम कुरीतियों वाले दुर्गन्धित कचरों के ढेर को तथाकथित संस्कृति नामक सुगन्धित पैरहन से ढक कर या फिर पुरखों की थाती नामक चाँदी के वरक़ से ढक कर ढोने वालों की भीड़ तब भी थी और आज भी है, जो भले ही नहीं पचा पाती हो .. सआदत हसन मंटो जी की थाती को और उन थाती को किसी 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की श्रेणी में रखकर भले ही आँकती हो और .. और तो और .. मानसिक रूप से अश्लील इसी तथाकथित समाज के कई लोगों ने जो बाह्य रूप से सभ्य-सुसंस्कृत वाला लिहाफ़ ओढ़े हुए थे और आज भी हैं .. उनकी भीड़ ने भी मंटो जी की कहानियों में अश्लीलता की बू आने की बातें करके, उनके द्वारा वर्जनाओं को तोड़ने की हिमाक़त करने की बातें करके और उनके द्वारा भाषायी मर्यादाओं के खंडन करने की बातें कर-कर के .. उन पर छदम् आरोप लगा कर उन को छह बार अदालत जाने के लिए मजबूर किया, जिनमें से तीन बार हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के अनचाहे और विभत्स बँटवारे से पहले और तीन बार बँटवारे के बाद .. लेकिन अफ़सोस ... एक भी बार उन पर आरोपित मामला साबित नहीं हो पाया।

एक तरफ तो ये समाज, जो यदा-कदा स्वयं भी मानसिक रूप से लम्पट होकर, हर उस लम्पट को सिर-आँखों पर चढ़ा कर रखता है, जो इसी मुखौटेधारी समाज की तरह ताउम्र शराफ़त के पैरहन पहने सभ्य-सुसंस्कृत बने रहने की औपचारिकता भर करता है।

दूसरी तरफ समाज को समय से पहले पनपी कोई भी बात कृत या कृति, किसी अनब्याहता के गर्भवती हो जाने की तरह ही, सहजता से स्वीकार्य नहीं है। कभी ऐसा ही हुआ होगा, 1970 में राजकपूर जी की फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" के साथ, समय से बहुत पूर्व फिल्माए गए गूढ़ दर्शन को हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज की भीड़ ने उस वक्त सिरे से नकार दिया, परन्तु विदेशों में धूम मचाने और कई पुरस्कारों को हासिल करने के बाद हमारे देश-समाज के लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया। इसी तरह ही नकारा गया होगा कभी मंटो जी को। तब की क्यों कहें, आज भी स्वयं को पाक-साफ़ दर्शाने के लिए कई लोग मंटों जी के नाम और कृतियों की चर्चा से परहेज़ या गुरेज़ करते नज़र आते थे या हैं, भले ही तब उनके बिस्तर या तकिए के नीचे दबायी-छुपायी 'डेबोनियर' अंग्रेजी पत्रिका रखी मिलती थीं या आज अकेले में बिस्तर पर पड़े-पड़े उनकी नज़रें अश्लील 'यूट्यूब' या अन्य 'सोशल मीडिया' पर गड़ी रहती हों .. शायद ...

जब तक हम या हमारी युवा पीढ़ी मंटो जी को तन्मयता से पढ़ेंगी नहीं, तब तक यह जान पाना या समझ पाना नामुमकिन है, कि उन दकियानूसी सामाजिक हालातों में भी स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर मंटो जी कितनी प्रगतिशील सोच रखते थे। उन्हीं की अलहदा सोच थी, कि - "औरतें बिक नहीं रहीं, लोग उन्हें धीरे धीरे खरीद रहे हैं ।"

उन्होंने ही उस दौर में भी ये कहने की हिम्मत की, कि "वेश्या का वजूद ख़ुद एक जनाज़ा है, जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है। वो उसे जब तक कहीं दफ़न नहीं करेगा, उस के मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी।"

अपने बारे में कहते हुए उन्होंने लिखा था, कि "मैं अफ़्साना इसलिए लिखता हूँ, कि मुझे अफ़्साना-निगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है। मैं अफ़्साना ना लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने ग़ुसल नहीं किया या मैं ने शराब नहीं पी।"

उनकी बेबाक़ी ही कह पायी, कि "अगर आप मेरी बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकते .. मतलब .. ज़माना ही ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त है।"

हमारा तत्कालीन या वर्त्तमान बुद्धिजीवी समाज भले ही 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की तरह या उस से भी बदतर श्रेणी में उनकी लेखनी को घसीटता हो, पर उनका बिंदास लेखन उनके बिंदास शख़्सियात की ताकीद करता है। 

यूँ तो सर्वविदित है, कि वह एक मुक़म्मल उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं - बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पाँच संग्रह, अन्य रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह लिखे थे, जो समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे थे। इनमें से कई रचनाएँ अन्य कई भाषाओं में अनुवादित भी किए गए हैं। 

उन्हें ही क्यों .. तत्कालीन इस्मत चुग़ताई अथार्त इस्मत आपा को भी इस समाज में बुरी नज़रों से देखा गया। दरअसल समाज अपना कुरूप और कुत्सित चेहरा साहित्य या सिनेमा के पटलों वाले आईना पर देख ही नहीं पाता या देखना ही नहीं चाहता .. शायद ...

वैसे तो जन्मदिनों को या दिवसों को मनाने में हम यक़ीन नहीं करते, कारण .. प्रत्येक जन्मदिन के दिन हर प्राणी की आयु से एक वर्ष घटा हुआ होता है, जो एक वज़ह बनती है उदासी की .. पर लोग जश्न मनाते हैं भला क्योंकर .. मालूम नहीं और रही बात दिवस की तो, अगर दिवस को दिनचर्या में शामिल कर लिया जाए, तो फिर दिवसों का क्या करना भला ? 

पर 11 मई को सम्पूर्ण विश्व में उनके चाहने या मानने वालों के द्वारा उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में कई कार्यक्रम हर वर्ष आयोजित किए जाते हैं .. तो इसी बहाने उन महान विभूति को शत्-शत् नमन .. काश ! .. हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज जो 'डेबोनियर' या 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्म से इतर उन्हें देख पाता, पढ़ पाता, समझ पाता .. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. अब हमारी बतकही झेलने के उपरांत हमारी कहानी भी सुन लीजिए .. बस यूँ ही ...



Thursday, May 18, 2023

सादिक नहीं हैं हम .. शायद ...


कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


पता नहीं किया कभी, क्या भाव बिकता है बाज़ारों में सोना

बहुत है अपने जीने की ख़ातिर,कुछ मिलेट्स या चना-चबेना

ना पद, ना पैसा, ना सूरत भली, माना कि नायक नहीं हैं हम 

पर करते तो किसी का बुरा नहीं, खलनायक भी नहीं हैं हम

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


सात फेरों और शादियों के नाम तो,सौदागरी के बोल-बाले हैं

उनके तो सब चकाचक,अपने तो अंदर जूते के फ़टे जुराबें हैं

सुबह-शाम गुनगुना-गा लेते हैं बस, कोई गायक नहीं हैं हम

खुले कुत्ते,उड़ते पंछियों से प्यार भर,कोई लायक नहीं हैं हम

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


शादी हो या पूजा-जागरण, होते खूब डी जे के शोर-शराबे हैं

धर्म-मज़हब के नाम पे,हो रहे क्यों चारों तरफ ख़ून-ख़राबे हैं

मंचों पर शपथ लेने वाले साहिबों जितने सादिक नहीं हैं हम

जब मर के हो जाना एक दिन देहदान, तो तनिक नहीं अहम्

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


सेल्फ़ी लेकर सेलिब्रिटी संग स्टेटस में चेपना स्वभाव नहीं है

मदद कर किसी को,ले सेल्फ़ी, चमकाने में कोई चाव नहीं है

बुद्धिजीवी हैं सारे, पुलिंदे ज्ञानों के, उतने अधिक नहीं हैं हम

नेमी-धर्मी धुले दूध के सारे, उतने तो ठीक-ठीक नहीं हैं हम

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


Thursday, April 20, 2023

21.04.2023 को .. बस यूँ ही ...

( I ) :-

अगर किसी राज्य विशेष में "जुगाड़" और "पैरवी" शब्द आम चलन में हो, तो वहाँ के लोगबाग इन दोनों के मार्फ़त हासिल की गयी छीन-झपट को उपलब्धियों की श्रेणी में सहर्ष सहजता से रख देते हैं और ऐसी छीन-झपट करने वालों को समझदार, सफ़ल और व्यवहारिक का तमग़ा बाँटने में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के तथाकथित सुसंस्कारी लोग भी तनिक गुरेज़ नहीं करते, बल्कि लोग इस कृत के लिए शेख़ी बघारते नज़र आते हैं। वैसे तो अब तक वैसे राज्य विशेष के उपरोक्त माहौल को महसूस ही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप से जीते-जीते ऐसा लगता रहा, कि मानो सारी दुनिया ही ऐसी है या होती होगी।
परन्तु उत्तराखण्ड की अस्थायी राजधानी देहरादून आने के उपरान्त घर से लगभग महज़ दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित प्रसार भारती के प्रांगण में जाने के बाद, जहाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन एक ही प्रांगण में है, जान पाया कि सारी दुनिया "जुगाड़" और "पैरवी" की क़ायल नहीं है। अनायास हमें ऐसा क्यों लगा, इसकी चर्चा अभी आगे करते हैं।
कुछ अन्य और भी अन्यायपूर्ण घटनाएँ अक़्सर देखने/झेलने पड़ते हैं अपने आसपास कि कई स्थानीय पत्रिकाओं के सम्पादकों की निग़ाह में या कई साहित्यिक संस्थानों में भी अगर आपके-हमारे नाम के आगे-पीछे डॉक्टर (पीएचडी वाले), प्रोफ़ेसर, सरकारी अधिकारी या रिटायर्ड (पेंशनधारी भी) सरकारी अधिकारी लगा हो तो, आपकी-हमारी रचनाएँ भले ही तुकबंदी या पैरोडी हों, फिर भी अमूमन उनको विशेष तरजीह दी जाती है। प्रायः आपकी-हमारी पहचान आपके-हमारे पद से की जाती है, आपकी-हमारी प्रसिद्धि से की जाती है, ना कि आपकी रचनाओं के स्तर और उसकी गंभीरता से। और तो और स्वजाति विशेष या अपने क्षेत्र के होने पर भी विशेष कृपा दृष्टि रखी जाती है। वैसे तो पाया ये भी जाता है, कि सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है .. किसी का लल्लो-चप्पो कर के अपना काम निकालना, किसी एक के लल्लो-चप्पो से सामने वाले को बस ख़ुश हो जाना चाहिए।




परन्तु इन सभी से परे प्रसार भारती, देहरादून के प्रांगण स्थित आकाशवाणी में अपनी रचनाओं के वाचन/प्रसारण हेतु जाकर कार्यक्रम अधिशासी- श्री दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी से पहली बार दिसम्बर'2022 की शुरुआत में मिला तो उन्होंने 30.12.2022 को एक कवि गोष्ठी की रिकॉर्डिंग के दौरान अन्य दो कवयित्रियों और एक कवि के साथ मेरी भी तीन कविताओं के वाचन को मौका दिया था। जिसका प्रसारण 02.01.2023 को रात के 10 बजे से 10.30 बजे तक "कविता पाठ" कार्यक्रम के तहत किया गया था।




यहाँ पर ना तो मेरा पद पूछा गया, ना जाति, ना क्षेत्र और ना ही मुझे किसी भी तरह का लल्लो-चप्पो, जुगाड़ या पैरवी करनी पड़ी। बस .. फॉर्म भर कर रजिस्ट्रेशन की आवश्यक औपचारिकता भर और मेरी बतकही की एक प्रति भी। आकाशवाणी या दूरदर्शन के कुछ प्रतिबंध हैं, जिनके अन्तर्गत बस एक-दो शब्दों को अपनी बतकही से हटानी पड़ी यानि उन पर क़ायदे के मुताबिक सेंसर लगाए गए।

यूँ देखा जाए तो यहाँ जुगाड़, पैरवी, लल्लो-चप्पो जैसी कोई प्रतियोगिता नहीं दिखी; बस हम जैसे हिन्दी भाषी लोगों की प्रतियोगिता है तो यहाँ की स्थानीय भाषाओं से। जिनसे ही सम्बन्धित यहाँ ज्यादातर कार्यक्रम होते हैं। मसलन- गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी भाषाओं में।

ख़ैर ! .. अब आज की बतकही का रुख़ अलग दिशा में मोड़ते हैं .. बस यूँ ही ...

( II ) :-

आगामी शुक्रवार यानि 21.04.2023 को रात आठ बजे आप सभी को मिलवाएंगे हम हमारी "मंझली दीदी" से .. बस यूँ ही ...
आप भी मिलना चाहेंगे क्या ? .. आयँ !! ... कहीं आप सभी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जी की "मंझली दीदी" या फिर उस पर आधारित ऋषिकेश मुख़र्जी जी के निर्देशन में बनी श्वेत-श्याम फ़िल्म की तो नहीं सोचने लग गये ?
ना, ना .. हम तो उपन्यास और लघुकथा की मंझली बहन जी यानि मंझली दीदी- "कहानी" की बात कर रहे हैं .. हाँ ! .. और नहीं तो क्या ... अब अगर आपको भी उस कहानी से रूबरू होनी है, तो 21.04.2023/शुक्रवार के पहले अपने जीवन की दिनचर्या वाली आपाधापी के बीच मौका मिले तो .. आप सर्वप्रथम ...

1) अपने Mobile में *Play Store* से *newsonair* App को Download कर लीजिए।
2) फिर उसको Open कर के उसकी दायीं ओर सबसे ऊपर कोने में उपलब्ध दर्जनों भाषाओं के विकल्पों में से *हिन्दी (Hindi)* भाषा वाले Option को Select कर लीजिए।
3) उस के बाद बायीं ओर सबसे ऊपर वाली तीन Horizontal Lines को Click करने पर उपलब्ध Options में से तीसरे Option - *Live Radio* को Select कर लीजिए।
4) इस प्रक्रिया से खुले Web Page को नीचे की तरफ Scroll करते हुए Alphabetically क्रमवार A से U सामने आने पर *U* से *Uttarakhand* आते ही उसके अंतर्गत तीन Options में से एक *Dehradun* को Click कर लीजिए।
5) अब आप फुरसत के पलों में तन्हा-तन्हा या मित्रों के साथ या फिर सगे-सम्बन्धियों के साथ *आकाशवाणी, देहरादून* से प्रसारित होने वाले अन्य मनपसंद कार्यक्रमों का भी लुत्फ़ ले सकते हैं।


( III ) :-

परन्तु अब ऐसा नहीं हो, कि आप प्रसार भारती के अन्य मनोरंजक कार्यक्रम सुनने के चक्कर में, इस आने वाले शुक्रवार यानि 21.04.2023 को हमारी मंझली दीदी यानि हमारी कहानी से मिलना आप भूल जाएँ .. आपको तो पूरी तन्मयता के साथ सुन कर जानना ही चाहिए .. ये जानने के लिए कि ...

१) वह कौन सी भाषा है, जो बहुत ही कंजूस है ?
२) किसी लड़की का मायका और ससुराल एक ही शहर में हो, तो क्या-क्या होता है ?
३) दीपू अपने जन्मदिन के केक कटने के पहले ही सो क्यों गया था ?
४) पाँच वर्षीय सोमू के किस सवाल से उसके पापा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे ?
५) जातिवाचक संज्ञा भला कैसे और कब व्यक्तिवाचक संज्ञा बन जाता है ?
६) सोमू के पापा उसकी मम्मी यानि अपनी धर्मपत्नी को "तथाकथित" अर्धांगिनी क्यों कहते हैं भला ?
७) सोमू और उसके पापा के मन में पिछले बीस सालों से हो रहे उथल-पथल को शान्त करने में आप सभी मिलकर कैसे  सहयोग कर सकते हैं भला ?

अक़्सर जाने-अंजाने बुद्धिजीवी लोग भी किसी घटित "घटना" को भी "कहानी" कह देते हैं। मसलन- लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि - "तुम मेरी दुःख भरी कहानी सुनोगे तो रो पड़ोगे शायद।" जबकि वह अपने जीवन की दुःखद घटनाओं को बतलाना चाहता या चाहती है। पर मेरी कहानी के सन्दर्भ में दरअसल ... "कहानी" में "घटनाओं" का समागम है .. सच्ची कहें तो .. सच्ची घटनाओं का समागम है। आत्मसंस्मरण ही समझ लीजिए .. बस यूँ ही ...

Thursday, April 6, 2023

फूलदेई

 

        ( चित्र साभार - उत्तराखंड के "धाद" नामक संस्था से)

फूलदेई

थका-हारा हुआ-सा 

धरे हुए हर आदमी,

अपने-अपने काँधे पर 

अपनी-अपनी धारणाओं की लाठी,

बँधी हुई है जिनमें भारी-सी 

उनके पूर्वजों की 

पैबंद लगी एक गठरी,

है जिनमें सहेजे हुए अनेकों

परम्पराओं, प्रथाओं

और रीति रिवाजों की पोटली।


हर परम्परा, 

रीति रिवाज, प्रथा,

जो बने किसी की व्यथा

या हो फिर वो

किसी की भी हंता,

बिसरानी ही चाहिए 

शायद उन्हें, जैसे छोड़ी या 

छुड़ाई गयी थी सती प्रथा कभी,

और छोड़नी चाहिए आज ही 

परम्परा हमें बलि या क़ुर्बानी की भी।


है भला ये यहाँ विडंबना कैसी 

उत्तराखंड के पहाड़ों में भी ?

करते तो हैं यूँ बच्चे कृत 

पुष्पों के हनन का,

पर कहते हैं सभी कि ..

है फूलदेई* बाल पर्व सृजन का।

हनन को सृजन कहने की,

है भला ये परम्परा भी कैसी ?

बल्कि समझाना चाहिए बच्चों को, 

कि लगते हैं सारे पुष्प भले डाली पर ही।


माना .. ब्याही जाती हैं बेटियाँ 

भरी आँखों से ख़ुशी-ख़ुशी, 

पर है क्यों भला ये 

परम्परा कन्यादान की ?

गोया वो बेटियाँ ना हुईं, 

हो गईं निर्जीव वस्तु कोई 

या फिर कोई निरीह पशु-पंछी।

बेहतर हो अगर रक्तदान को भी

मिल कर कहें रक्तदान नहीं, 

बल्कि कहें .. रक्तसाझा हम सभी।


मिथक है या मिथ्या कोई, कि

है जुड़ा दान से तथाकथित पुण्य सारा।

कहें ना क्यों हम, हर दान को साझा

और हर साझा हो कर्तव्य हमारा।

सुलगा कर सारी परम्पराएँ पैबंद लगी 

ये दफ़न या दाह संस्कार जैसी,

करने चाहिए मृत शरीर या अंग साझा

ताकि मिले किसी को जीवन या

मिले किसी दृष्टिहीन को आँखों की रोशनी।

साहिब !!! कहिए ना देहसाझा, देहदान को भी .. बस यूँ ही ...

[ फूलदेई* - ब्रह्माण्ड में होने वाली तमाम ज्ञात-अज्ञात भौगोलिक घटनाओं में से एक है - संक्रांति; जिसके तहत कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का मुख्य कारक - सूरज हर महीने अपना स्थान बदल कर खगोलीय या ज्योतिषीय मानक के अनुसार तय बारह राशियों में से, एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश कर जाता है। यूँ तो सर्वविदित है, कि सौर पथ वाले खगोलीय गोले को बारह समान भागों यानि बारह राशियों में बाँटा गया है और सालों भर इन्हीं राशियों, जिनमें सूर्य प्रवेश करता है, उन्हीं के नाम के आधार पर ही बारह संक्रांतियों का नामकरण किया गया है।

हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा संक्रांति को वैदिक उत्सव के रूप में भारत के कई इलाकों में बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। यूँ तो पौराणिक मान्यताओं के आधार पर संक्रांति के अलावा भी कई अन्य भौगोलिक घटनाओं .. मसलन - ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या या एकादशी जैसी तिथियों को भी स्नान-ध्यान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य, मोक्ष-धर्म इत्यादि से जोड़ा गया है।

इन बारह संक्रांतियों में से जनवरी माह में 14 या 15 तारीख़ को पूरे भारत में त्योहार की तरह "मकर संक्रांति" मनाया जाता है, जिसे बिहार-झारखण्ड में "दही-चूड़ा" के नाम से भी जाना जाता है। इसके एक दिन पहले पँजाब-हरियाणा में या अन्य स्थानों पर भी बसे सिखों द्वारा लोहड़ी नाम से त्योहार मनाया जाता है। साथ ही 14 या 15 तारीख़ को ही अप्रैल महीने में "मेष संक्रांति" को भी त्योहार के रूप में मनाया जाता है। जिसे पंजाब में बैसाखी, उड़ीसा में पाना या महाबिशुबा संक्रांति, बंगाल में पोहेला बोइशाख, बिहार-झारखण्ड में सतुआनी जैसे प्रचलित नामों से जाना जाता है।

इन दो प्रमुख संक्रांतियों के अलावा 14 या 15 तारीख़ को ही जून महीने में "मिथुन संक्रांति" को भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर पृथ्वी को एक माँ के रूप में मानते हुए, उनके वार्षिक मासिक धर्म चरण के रूप में मनाया जाता है, जिसे राजा पारबा या अंबुबाची मेला के नाम से भी जानते हैं और प्रायः 16 जुलाई को "कर्क संक्रांति" भी कहीं-कहीं मनाया जाता है। 

साथ ही प्रायः 16 दिसम्बर को पड़ोसी हिन्दू देश दक्षिणी भूटान और नेपाल में "धनु संक्रांति" को बड़े ही धूम-धाम से मनाते हैं।

परन्तु इन सब से अलग "मीन संक्रांति" को त्योहार के रूप में मनाए जाने की प्रथा के बारे में उत्तराखंड के देहरादून में रहने के दौरान इसी वर्ष अपने जीवन में पहली बार जानने का मौका मिला है। इस दिन फूलदेई, फूल सग्यान, फूल संग्रात या फूल संक्रांति नाम से स्थानीय त्योहार मनाया जाता है। चैत्र माह के आने से सम्पूर्ण उत्तराखंड में अनेक पहाड़ी पुष्प खिल जाते हैं, मसलन - प्योंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस। 

यूँ तो देहरादून के शहरी माहौल में यह त्योहार लुप्तप्राय हो चुका है, परन्तु सुदूर पहाड़ों में इसे आज भी मनाया जाता है। इसे मुख्य रूप से बच्चे मनाते हैं, उन बच्चों को फुलारी कहते हैं। सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से टोली में निकले बच्चे खिले फूलों को तोड़ कर एकत्रित करते हैं और घर-घर जाकर दरवाजे पर वर्ष भर की मंगल कामना करते हुए वो तोड़े पुष्पों को रखते जाते हैं। इसमें बड़ों का भी योगदान रहता है। बड़े लोग बच्चों को आशीर्वाद के साथ-साथ त्योहारी के रूप में कुछ उपहार भी देते हैं। इन सारी पारम्परिक प्रक्रियाओं के दौरान फुलारी बच्चे फूल डालते हुए कुमाउँनी में गाते हैं–

फूलदेई छम्मा देई ,

   दैणी द्वार भर भकार.

   यो देली सो बारम्बार ..

   फूलदेई छम्मा देई

   जातुके देला ,उतुके सई .."

  और गढ़वाली में गाते हैं –

" ओ फुलारी घौर.

   झै माता का भौंर .

   क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर .

   डंडी बिराली छौ निकोर.

   चला छौरो फुल्लू को.

   खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को.

   हम छौरो की द्वार पटेली.

   तुम घौरों की जिब कटेली... "

सनातनी परम्पराओं, प्रथाओं और रीति रिवाज़ों की तरह ही इस भौगोलिक घटना - मीन संक्रांति को भी तथाकथित पौराणिक शिव-पार्वती, नंदी और शिव गणों जैसे पात्रों से जोड़ दिया गया है। एक अन्य मान्यता के मुताबिक इस त्योहार को एक स्थानीय लोककथा के आधार पर प्योंली नामक एक वनकन्या से भी जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ विस्तार से इन पौराणिक या लोककथा को लिखना समय की बर्बादी ही होगी .. शायद ... क्योंकि इन सारी मान्यताओं के महिमामंडन का विस्तारपूर्वक उल्लेख गूगल पर उपलब्ध है। ]


  

Thursday, March 16, 2023

ताने तिरपाल

पोखरों में सूने-से दोनों कोटरों के,

विरहिणी-सी दो नैनों की मछली।

मिले शुष्क पोखरों में तो चैन उसे,

तैरे खारे पानी में तब तड़पे पगली।


ताने तिरपाल अपने अकड़े तन के,

यादों में पी की बातें बीती पिछली।

कैनवास पर खुरदुरे-रूखे गालों के, 

खींचे अक़्सर अँसुवन की अवली।


बाँधे गठरी हर पल पल्लू में अपने,

भर-भर कर बूँदें आँसू की बावली।

डालें गलबहियाँ पल्लू उँगलियों में,

मची हो मन में जब-तब खलबली।


काश ! बुझ पाती चिता संग पी के,

सुलगन मीठी बेवा के तन-मन की। 

ना संदेशे, लगे अंदेशे, कई पीड़ाएँ,

झेलती विरहिणी बेवा-सी बेकली।




 

Monday, March 13, 2023

पर नासपीटी ...

टहनियों को
स्मृतियों की तुम्हारी
फेंकता हूँ 
कतर-कतर कर 
हर बार,
पर नासपीटी
और भी कई गुणा 
अतिरिक्त
उछाह के साथ
कर ही जाती हैं
मुझे संलिप्त,
हों मानो वो
टहनियाँ कोई
सुगंध घोलते
ग़ुलाबों की .. शायद ...

काश ! .. हो पाता
सहज भी 
और सम्भव भी,
फेंक पाना एक बार
उखाड़ कर
समूल उन्हें,
पर यूँ तो 
हैं अब
असम्भव ही,
क्योंकि ..
जमा चुके हैं जड़
उनके मूल रोमों ने 
समस्त शिराओं 
और धमनियों में
हृदय की हमारी .. बस यूँ ही ...


Thursday, March 9, 2023

बीते पलों-सी .. शायद ...

सुनता था,

अक़्सर ..

लोगों से, कि ..

होता है

पाँचवा मौसम

प्यार का .. शायद ...

इसी ..

पाँचवे मौसम की तरह

तुम थीं आयीं

जीवन में मेरे कभी .. बस यूँ ही ...


सुना था ..

ये भी कि ..

कुछ लोग

जाते हैं बदल अक़्सर 

मौसमों की तरह .. शायद ...

तुम भी उन्हीं

मौसमों की तरह अचानक .. 

यकायक .. 

ना जाने क्यों 

बदल गयीं .. बस यूँ ही ...


अब ..

उन लोगों का भी

भला ..

क्या है बावली ..

बोलो ना !

लोग तो बस

कहते हैं कुछ भी,

करते हैं बदनामी

बेवज़ह मौसम की,

आदत जो उनकी ठहरी .. बस यूँ ही ...


क्योंकि .. 

अब देखो ना ...

मौसम तो कई बार ..

बार-बार .. बारम्बार ..

जाते हैं .. आते हैं ...

आते हैं .. जाते हैं .. बस यूँ ही ...

लेकिन .. जा कर एक बार,

फिर एक बार भी

लौटी ना तू कभी ..

बीते पलों-सी .. शायद ...





Thursday, February 2, 2023

तनिक देखो तो यार ! ...

हैं शहर के सार्वजनिक खुले मैदान में किसी, 

निर्मित मंच पे मंचासीन एक प्रसिद्ध व्यक्ति ।

परे सुरक्षा घेरे के,जो है अर्धवृत्ताकार परिधि, 

हैं प्रतिक्षारत जनसमूह कपोतों के उड़ने की ।


पर कारा बनी सिकड़ी, अग्रणी के पंजों की, 

पूर्व इसके तो थे बेचारे निरीह स्वतन्त्र पंछी ।

थी ना जाने वो कौन सी घड़ी, बन गए बंदी, 

विचरण करते, उड़ान भरते, स्वच्छंद प्राणी ।


विशेष दर्शक दीर्घा में है बैठी 'मिडिया' भी,

कैमरे के 'फ़्लैश' की चमक रही है रोशनी । 

ढोंग रचते अग्रणी, हों मानो वह उदारवादी,

पराकाष्ठा दिखीं आडम्बर औ पाखण्ड की ।


कपोत उड़ चले, हुई जकड़न ढीली पंजे की ,

ताबड़तोड़ 'फ़्लैश' चमके,ख़ूब तालियाँ गूँजी।

तनिक देखो तो यार,है विडंबना कितनी बड़ी,

और दुरूह कितनी, वाह री दुनिया ! वाह री !



धर कर उड़ते पखेरू को कुछेक पल, घड़ी,

करना दंभ छदम् स्वतंत्रता प्रदान करने की।

है होता यही यहाँ अक़्सर, जब-२ कभी भी,

नारी उत्थान,नारी सम्मान की है आती बारी।


हैं सृष्टि के पहले दिन से ही स्वयंसिद्धा नारी,

जिस दिन से वो गर्भ में अपने हैं गढ़ती सृष्टि।

ना जाने क्यों समाज मानता कमजोर कड़ी ?

फिर ढोंग नारी दिवस का दुनिया क्यों करती ?


ज्यों बढ़ाते पहले पंजों में कपोतों की धुकधुकी,

करते फिर ढोंगी स्वाँग उन्हें स्वच्छंद करने की।

रचती पुरुष प्रधान समाज की खोटी नीयत ही, 

पर करते हैं मुनादी कि है यही नारी की नियति।


सदियों कर-कर के नारियों की दुर्दशा, दुर्गति,

है क्यों प्रपंच नारी विमर्श पे बहस करने की ?

तनिक देखो तो यार,है विडंबना कितनी बड़ी,

और दुरूह कितनी, वाह री दुनिया ! वाह री !






Thursday, November 17, 2022

मन की झिझरियों से अक़्सर .. बस यूँ ही ...

देवनागरी लिपि के वर्णमाला वाले जिस 'स' से कास का सफ़र समाप्त होता है, उसी 'स' से सप्तपर्णी की यात्रा का आरम्भ होता है। संयोगवश व्यवहारिक तौर पर भी एक तरफ कास खिलने के उपरांत एक अंतराल के बाद जब किसी पहाड़ी गौरवर्णी चिरायु वृद्ध-वृद्धा के झुर्रीदार परन्तु देदीप्यमान मुखड़े की तरह झुर्रियाने लगते हैं, तभी किसी पहाड़न की सादगी भरे सौंदर्य-से सप्तपर्णी के यौवन की मादकता समस्त वातावरण को सुवासित करने लग जाती है .. बस यूँ ही ...

इन्हीं कास और सप्तवर्णी के आगमन-गमन के दरम्यान ही हर वर्ष की भांति कुछ दिनों पूर्व ही हिन्दू त्योहारों के मौसम के सारे के सारे हड़बोंग, चिल्लपों, अफ़रा-तफ़री, आपाधापी की पूर्णाहुति हुई है .. शायद ... 

जिनके दौरान हम में से अधिकांशतः जन सैलाब संस्कार और संस्कृति की आड़ में इनके अपभ्रंश परम्पराओं के तहत तथाकथित ख़ुशी तलाशने और बाँटने के छदम् प्रयास भर भले ही कर लें, परन्तु आध्यात्मिकता से कोसों दूर रह कर प्रायः हम अपने-अपने आत्मप्रदर्शन की प्रदर्शनी लगाए आपस में मानसिक या आर्थिक स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा से जूझते हुए ही ज़्यादातर नज़र आते हैं इन मौकों पर .. शायद ...

पर उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी- देहरादून में गत मई' 22 से वर्तमान में रहते हुए ऐसे तथाकथित त्योहारों के मौसम में यहाँ के लोगों की अजीबोग़रीब कृपणता देखने के लिए मिली है। 

वैसे तो बचपन की पढ़ाई के अनुसार हमारे खान-पान, रहन-सहन पर हमारे भौगोलिक परिवेश का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असर पड़ता है। परन्तु मालूम नहीं किस कारण से बिहार-झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यहाँ के निवासी पूजा-अर्चना में कोताही करते नज़र आते हैं। इस दौरान यहाँ विशाल की बात तो दूर, बौने या मंझोले पंडाल भी नज़र नहीं आए और ना ही शहर या गाँव-मुहल्ले में कहीं भी विराट की विशाल प्रतिमाएँ दिखीं .. और तो और ध्वनि विस्तारक यंत्र से आकाश में तथाकथित विराजमान विधाता तक पैरोडी वाले भजनों की आवाज़ पहुँचाने वाले बुद्धिमान लोग भी नहीं दिखे। अब इनकी इतनी सादगी भरी परम्पराओं से तो कोफ़्त ही हो जाएगा; जिनको पंडालों, मेलों, रेलमपेलों, लाउडस्पीकरों की शोरों में ही अपने पावन परम्पराओं के निर्वहन नज़र आते हों। 

हैरत होती है कि यहाँ उत्तराखंड के लोग अपनी भक्ति-भाव की आवाज़ किस विधि से बिना लाउडस्पीकर के ऊपर आकाश में बैठे विधाता तक पहुँचा पाते होंगे भला ! ?

हो सकता है .. इस अलग राज्य की तरह ही इस राज्य के विधाता का विभाग भी आकाश में कोई अलग ही हो, जहाँ लाउडस्पीकर की आवाज़ के बिना ही उन तक उनके उत्तराखंडी भक्तों की बात पहुँच जाती होगी .. शायद ...

ख़ैर .. हमें इन सब से क्या लेना- देना ...

आज तो इन सब को भुला कर बस .. अभी हाल ही में ऋषिकेश के एकदिवसीय भ्रमण के दौरान आँखों के दृश्य-पटल पर अपनी छाप छोड़ते कुछ दृश्यों या कुछ विशेष घटनाओं के परिणामस्वरूप पनपी कुछ बतकही को छेड़ता हूँ .. बस यूँ ही ...


#(१)

यूँ तो है हर चेहरे पर यहाँ छायी मुस्कान,

पर है किसे भला इनकी वजह का संज्ञान .. बस यूँ ही ...


#(२)

खेलने की उम्र में .. पेशे में लगे बच्चे हों या

खिलने के समय .. पूजन के लिए टूटे फूल।


यूँ समय से पहले कुम्हला जाते हैं दोनों ही,

अब .. इसे संयोग कहें या क़िस्मत की भूल .. बस यूँ ही ...



#(३)

त्रिवेणी घाट पर केवल नदियाँ ही नहीं, 

साहिब ! ... दो दिल भी मिला करते हैं।

आते हैं आप यूँ यहाँ मोक्ष की तलाश में,

गोद में प्रकृति की हम तो मौज करते हैं।


लिए कामना स्वर्ग की आप आ-आकर,

लगा कर डुबकी नदी में स्नान करते हैं।

हम तो बस यूँ ही .. प्रेम में गोता लगाए,

स्वर्ग बने धरती ही, कामना ये करते हैं .. बस यूँ ही ...


#(४)

वज़ह नभ पर आनन के, मुस्कान की घटा छाने की,

आज़ादी ही नहीं, साहिब ! कई बार होती है क़ैद भी।


गोया हथकड़ियों से सजे जेल जाते स्वतन्त्रता सेनानी,

प्रिय की आँखों के रास्ते ह्रदय में समाती प्रेम दीवानी।


बाँहों में बालम के बिस्तर पर खुद को सौंपती संगिनी,

कैमरे के रास्ते गैलरी में क़ैद होती रेहड़ी वाली रमणी .. बस यूँ ही ...



#(५)

नज़रबन्द करने में भले ही लोग छोड़ें ना कोई कसर,

झाँक ही लेते हैं हम तो मन की झिझरियों से अक़्सर .. 

.. बस यूँ ही ...


Thursday, August 25, 2022

दूब उदासियों की .. बस यूँ ही ...

 (१)

सोचों की ज़मीन पर

धाँगती तुम्हारी

हसीन यादों की

चंद चहलकदमियाँ ..


उगने ही कब देती हैं भला

दूब उदासियों की ..

गढ़ती रहती हैं वो तो अनवरत

सुकूनों की अनगिनत पगडंडियाँ .. बस यूँ ही ...



(२)

देखता हूँ जब कभी भी

झक सफेद बादलों के 

अक़्सर ओढ़े दुपट्टे 

यूँ तमाम पहाड़ों के जत्थे ..


गुमां होता है कि निकली हो 

संग सहेलियों के तुम

मटरगश्ती करने

शहर भर के सादे लिबासों में .. बस यूँ ही ...









Thursday, August 11, 2022

धुआँ-धुआँ ही सही .. बस यूँ ही ...

(१) #

तिल-तिल कर,

तिल्लियों से भरी

दियासलाई वाली 

डिब्बी अनुराग की

सील भी जाए गर

सीलन से दूरियों की,

मन में अपने तब भी

रखना सुलगाए पर,

धुआँ-धुआँ ही सही ..

एक छोटी-सी 

अँगीठी यादों की.. बस यूँ ही ...


कायम रहेगी

तभी तो 

तनिक ही सही,

पर रहेगी तब भी

.. शायद ...

आस बाक़ी 

सुलगने की 

तिल-तिल कर

तिल्लियों से भरी

दियासलाई वाली

डिब्बी अनुराग की .. बस यूँ ही ...


अब दो और बतकहियाँ .. अपने ही 'फेसबुक' के पुराने पन्नों की पुरानी बतकहियों से :- 

(२) #

साहिब ! ..

आप सूरज की

सभी किरणें 

मुट्ठी में अपनी

समेट लेने की

ललक ओढ़े 

जीते हैं .. शायद ...


और .. हम हैं कि 

चुटकी भर 

नमक की तरह

ओसारे के

बदन भर 

धूप में ही

गर्माहट चख लेते हैं .. बस यूँ ही ...


(३) #

साहिब ! ..

आपका अपनी

महफ़िल को 

तारों से सजाने का

शौक़ तो यूँ 

लाज़िमी है ..

आप चाँद जो ठहरे .. शायद ...


हम तो बस 

एक अदना-सा 

बंजारा ही तो हैं ..

एक अदद 

जुगनू भर से

अपनी शाम

सजा लेते हैं .. बस यूँ ही ...






Sunday, August 7, 2022

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ...



देखता हूँ .. अक़्सर ...

कम वक्त के लिए

पहाड़ों पर आने वाले

सैलानियों की मानिंद ही

कम्बख़्त फलों का भी

पहाड़ों के बाज़ारों में 

लगा रहता है सालों भर

आना-जाना अक़्सर।

आने के कुछ ही दिनों बाद 

जो हो जाते हैं बस यूँ ही छूमंतर।

चाहे बाज़ारें हों गढ़वाली देहरादून के 

या कुमांऊँ वाले पिथौरागढ़ या 

फिर हो बाज़ारें अल्मोड़ा के।

कभी काफल, कभी पोलम,

कभी खुबानी, कभी आड़ू,

कभी बाबूगोशा, कभी घिंगोरा,

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ये सारे।

मानो पहाड़ी पेड़-पौधों पर

और .. स्वाभाविक है तभी तो

पहाड़ी बाज़ारों में भी

टिकना जानते ही नहीं फल,

ख़ास कर काफल,

किसी बंजारे की तरह .. शायद ...  


और तो और ..

पहाड़ी आसमानों में

टिकते हैं कब भला

बला के बादल यहाँ।

फट पड़ते हैं अक़्सर

मासूम पहाड़ियों पर 

ढाने के लिए क़हर।

स्वयं पहाड़ों को भी तो 

है आता ही नहीं टिकना,

ख़ास कर बरसातों में

सरकते हैं परत-दर-परत,

होते रहते हैं बारहा यहाँ

भूस्खलन बेमुरौवत। 

और हाँ .. मौसम भी तो यहाँ

होते नहीं टिकाऊ प्रायः।

यूँ तो सीखने चाहिए रफ़्तार

गिरगिटों को भी रंग बदलने के,

एक ही दिन में

पल-पल में बदलने वाले

इन पहाड़ी मौसमों से,

जो करा देते हैं एहसास कई बार

गर्मी, बरसात और जाड़े के भी

एक ही दिन में क्रमवार .. शायद ... 


क्या मजाल जो ..

थम जाएँ, 

टिक पाएँ,

यहाँ बरसाती पानी भी

कहीं भी, 

कभी भी सड़कों पर।

तरस जाती हैं आँखें यहाँ

बरसाती झीलों वाले नज़ारों को

देखने के लिए नज़र भर।

पर .. साहिब ! ...

सुना है कि ..

अक़्सर  'टी वी ' पर

दिखने वाले किसी भी

टिकाऊ सीमेंट के

मनोरंजक विज्ञापनों की मानिंद ही

पहाड़ों के निवासियों के आपसी

या प्रायः प्रवासियों के साथ भी

या फिर यदाकदा

सैलानियों के संग भी

बनने वाले ..

रिश्ते ...

होते हैं टिकाऊ बहुत ही .. शायद ...

जिसे निभाते हैं ये जीवन भर .. बस यूँ ही ...