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Wednesday, February 24, 2021

तसलवा तोर कि मोर - (भाग-२) ... {दो भागों में}.

कोई रंगकर्मी जब अपने नाम से कम और अपने जिए गए पात्र के नाम से लोगों में ज्यादा जाना-पहचाना या सम्बोधित किया जाने लगता है तो उसे उसके अभिनय की सफ़लता मानी जाती है। साथ ही अपने समय की मशहूर फ़िल्म "शोले" के संवादों की तरह किसी नाटक के संवाद भी हर तबक़े व हर आयु वर्ग की ज़ुबान पर धड़ल्ले से फ़िसलने लग जाए , तो उसे भी उस नाटक या फ़िल्म की सफलता की कसौटी मानी जाती है। अपने द्वारा लिखित , अभिनीत और निर्देशित नाटक के लिए सफलता के उपर्युक्त कसौटी के दोनों पहलूओं के बेताज बादशाह थे .. उन रेडियो के ज़माने के रेडियो के वह महान महानायक , जो थे तो मूलत: नाटककार और रंगकर्मी , पर उन्होंने नाटककार के अलावा कवि , कहानीकार और वार्ताकार के रूप में भी कई सारी रचनाओं को जन्म दिया था।

अपने समय के मशहूर समाचार पत्रों - आर्यावर्त, नवभारत टाइम्स और द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया (The Illustrated Weekly of India) के अलावा ; उस ज़माने की नामी पत्रिकाओं -  धर्मयुग, ज्योत्सना, नयी धारा के अलावा दृष्टिकोण, प्रपंच, भारती जैसी और भी अन्य पत्रिकाओं में भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक अनेक एकांकी, निबन्धों, कहानियों, कविताओं और आलोचनाओं के रूप में देखने के लिए मिलती रहती थी। उनको पद्मश्री, बिहार गौरव, बिहार रत्न आदि से सम्मानित किया गया था। कई उपन्यास, काव्य रूपक, नाटक, एकांकी संग्रह जैसी कई किताबें प्रकाशित तो हुई थीं , पर बहुत सारी रचनाओं की पाण्डुलिपि तो बस यूँ ही बर्बाद हो गईं थीं। यह बात उनके एक साक्षात्कार से ज्ञात होता है , जिसमें उनका कहना था कि उनकी बहुत-सी अप्रकाशित रचनाएं खो गयीं थीं , क्योंकि उन्हें किताब छपाने की चाटुकारिता वाली विद्या नहीं आती थी। उन्हें ताउम्र इस बात का अफ़सोस रहा कि उनके एक प्रसिद्ध नाटक की लोकप्रियता के कारण उनका गंभीर साहित्य का खज़ाना लोगों की नज़रों से परे हो गया था।
जब 1948 में "आकाशवाणी , पटना" की शुरुआत हुई थी , तो "चौपाल" नामक कार्यक्रम में वह "तपेश्वर भाई" के नाम से भागीदारी करने लगे थे। फिर 1950 में 'बिहार नेशनल कॉलेज' , पटना ( पटना विश्वविद्यालय के अन्तर्गत B. N. College के नाम से विख्यात , जिसके कुछ उपद्रवी छात्रों के कारण नेहरू जी को एक बार पटना के गाँधी मैदान में अपने दिए गए भाषण के तहत प्रसंगवश एक चुटीली शैली में इसके संक्षेपाक्षर (abbreviation) के विस्तार के लिए "बदमाश नालायक कॉलेज" जैसे ज़ुमले का इस्तेमाल करना पड़ा था ) के हिंदी विभाग में व्याख्याता (Lecturer) के रूप में करियर (Career) या आजीविका शुरू किए थे। फिर 1968 में  अपने अवकाशप्राप्त पिता के अपने पास रहने के अनुरोध पर पटना के अपने साहित्यिक दुनिया को छोड़ कर सासाराम में ही अपने पिता के पास रहते हुए , वहीं के 'शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय' ( S P Jain College ) में लगभग इक्कीस वर्षों तक एक सफल और समर्पित प्रधानाचार्य भी रहे थे।
प्रसंगवश बतलाते चलें कि "आकाशवाणी , पटना" हमारे पुश्तैनी घर से लगभग महज 500 मीटर की दूरी पर है। उसी के ठीक सामने "भारतीय नृत्य कला मन्दिर" का पुराना वाला भवन है , जिसके अंतर्गत 1963 में आरम्भ हुए एक प्रेक्षागृह के अलावा एक मुक्ताकाश मंच भी है। वैसे तो पटना के लिए आज़ादी के बाद 1948 से शुरू हुआ सबसे पुराना प्रेक्षागृह "रवीन्द्र भवन" ( रवीन्द्र परिषद् ) है। आज तो इनके अलावा भारतीय नृत्य कला मन्दिर का ही एक नया प्रेक्षागृह भवन है और साथ में "कालिदास रंगालय" और "प्रेमचंद रंगशाला" नामक दो नाट्यशालाएं भी हैं। उन लम्हों के गवाह रहे मेरे अभिभावक ( जो आज इस दुनिया में नहीं हैं ) मेरे बचपन में मुझे बतलाते थे कि उस समय "आकाशवाणी , पटना" की ओर से अपने ही प्रांगण में या "भारतीय नृत्य कला मन्दिर" के मुक्ताकाश मंच पर जीवंत नाटक हुआ करता था , जिनमें भाग लेने वाले कलाकारों में अपने मशहूर नाटक के साथ इन कलाकार की प्रमुख भागीदारी होती थी। जिस नाटक को अभिभावकगण रेडियो पर अक़्सर सुना करते थे , उसे जीवंत मंच पर देखना उन को रोमांच से भर देता था। आँखों देखा हाल बतलाते थे कि .. मंच पर फुस-पुआल की बनी हुई मड़ई , उस पर कद्दू-कोहड़ा का लत्तर ( की लता ) , बरेरी से टँगे पिंजड़े में तोता , बिछी हुई खटिया और धोती-कुर्ता में पुरुष पात्र के साथ सीधा पल्ला वाली साड़ी में महिला पात्रा .. मानो राजधानी के मंच पर गाँव जीवंत हो उठता था। हम तो केवल उनके कहे को सुन कर इतना विस्तार से लिख पा रहे हैं। पर जब वो सामने से देखते होंगे तो कितना रोमांच अनुभव करते होंगे , सोचिए न जरा ! लेकिन अफ़सोस कि मैं उन दिनों पैदा ( 1966 में जन्म हुआ था ) हुआ ही नहीं था।
हमें आज वर्त्तमान में 'लैंडलाइन' (landline) फ़ोन के साथ-साथ मिले मोबाइल फ़ोन की बेहतर सुविधा की तरह , उस ज़माने में रेडियो के साथ ही उसके सुविधाजनक रूप में मिले ट्रांजिस्टर ( Transistor ) को भी नहीं भूलना चाहिए .. शायद ...
तब फ़ौजी भाइयों और किसान भाइयों के लिए कई-कई तरह के कार्यक्रम प्रसारित हुआ करते थे , जिसे वे लोग ट्रांजिस्टर के सहारे ही तो सुना करते थे। हमारे तत्कालीन अभिभावक ये भी बतलाते थे कि 1962 में हुई चीन की लड़ाई में हमारे राष्ट्र की तत्कालीन गलत (?) नीति के कारण हार रहे भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए उनके उस लोकप्रिय नाटक का रेडियो पर प्रतिदिन प्रसारण किया जाता था। उस नाटक को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी लोकप्रियता मिली थी।
ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्तित्व का नाम था - " रामेश्वर सिंह 'कश्यप' " जिनका जन्म बिहार राज्य में शेरशाह के मक़बरा को आज भी संजोए हुए सासाराम जिला के सेमरा गाँव में हुआ था और उनके उस लोकप्रिय नाटक का नाम था - "लोहा सिंह" , जिसकी नाटक-श्रृंखला की लगभग चार सौ कड़ियों में प्रसारण हुआ होगा। दरअसल एक बार इनका लिखा हुआ एक भोजपुरी नाटक - "तसलवा तोर कि मोर" का { एक प्रचलित मुहावरा / तसला (एक बर्त्तन) तुम्हारा कि मेरा } प्रसारण रेडियो पर हुआ था , जिसके मुख्य पात्र का नाम था - "लोहा सिंह"। जनसाधारण को वह नाटक बहुत पसन्द आया था। पहले लोग अपनी फ़रमाईश डाक-विभाग द्वारा अपनी चिट्ठी में लिख कर आकाशवाणी / रेडियो को भेजा करते थे लगभग सप्ताह भर का रास्ता तय कर वह अनूठी फ़रमाईश अपने गंतव्य पर पहुँचती थी। ऐसी ही बहुसंख्यक फ़रमाईश पर उस नाटक का पुनःप्रसारण कई सारी श्रृंखलाओं के साथ "लोहा सिंह" के नाम से किया जाने लगा था। जिसके लेखक , निर्देशक और नायक भी 'कश्यप' जी ही स्वयं थे। प्रसंगवश यह बतलाने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए कि फ़िल्म या नाटक के पात्र को सफ़ल रंगकर्मी भी , किसी लेखक या कवि की तरह ही , अपने आसपास के किसी यथोचित पात्र को जीने की प्रायः कोशिश करते हैं। मसलन - फ़िल्मों के कलाकार , जो विविध पात्रों को परदे के पहले कैमरे के सामने जीते हैं ; उनमें से अधिकांश पात्रों के संवाद वितरण ( Dialogue Delivery ) , वेशभूषा (Getup ) और शरीर की भाषा ( Body Language ) उनकी नज़र के सामने से कभी-न-कभी गुजरी हुई किसी चरित्र विशेष की होती है। वैसे तो विविध पात्रों को जीने वाले कलाकारों में प्राण साहब और गुलशन ग्रोवर जी का नाम सबसे ऊपर रखा जाता है।
ख़ैर ! .. फ़िलहाल हम बात कर रहे हैं "लोहा सिंह" जी उर्फ़ "रामेश्वर सिंह 'कश्यप'" जी की , तो ये जान कर अचरज लग सकता है आपको कि उन्होंने अपनी अकूत लोकप्रियता हासिल करने वाली नाटक-श्रृंखला "लोहा सिंह" के मुख्य पात्र "लोहा सिंह" की भाव भंगिमा और बोलने की शैली की प्रेरणा अपने पिता के एक नौकर के अवकाश-प्राप्त फौजी भाई की गलत-सलत अंग्रेजी , हिन्दी और भोजपुरी मिला कर एक नयी भाषा बोलने की शैली से मिली थी क्योंकि उन फ़ौजी सज्जन के इस तरह बोलने से गाँव वालों पर इसका बड़ा रोबदार असर पड़ता था। मतलब .. लोग बहुत प्रभावित होते थे। अपने पिता राय बहादुर जानकी सिंह के अँग्रेजी हुकूमत के दौर में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ( DSP - Deputy Superintendent of Police - उप पुलिस अधीक्षक ) होने के बावज़ूद वह स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देने में तनिक भी नहीं हिचकते थे।आरम्भ से ही क्रांतिकारी विचार के होते हुए भी बहुत ही विनम्र और भावुक स्वभाव के थे। मृदल स्वभाव के भावुक "कश्यप" जी उस समय स्नातक, अंतिम वर्ष के छात्र थे। उस दौर में उन फ़ौजी के बोलने के सुर ( Tone ) और चरित्र ( Character ) से प्रभावित होकर उसे अपने में समाहित कर लिए थे , जो कालान्तर में "लोहा सिंह" का पात्र बन कर जीवंत हो गया था।
हिन्दी , अंग्रेजी और भोजपुरी की खिचड़ी-भाषा में " अरे ओ खदेरन को मदर जब हम काबुल का मोरचा में था नु " ( ओ खदेरन की माँ जब मैं काबुल के मोर्चा ( युद्ध में सबसे आगे का क्षेत्र ) पर स्थित था , तो ) बोले गए लोहा सिंह का संवाद सुन कर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। बच्चों से लेकर वृद्ध , मज़दूर से लेकर अधिकारी और मालिक से लेकर मातहत तक की ज़ुबान पर इस संवाद की परत चढ़ी रहती थी। खदेरन की माँ का अपने अंदाज़ में बोला गया तकियाकलाम वाला संवाद - " मार बढ़नी रे " (बढ़नी-बहरनी-झाड़ू) अनायास चेहरे के आकाश पर मुस्कान का इन्द्रधनुष उगा जाता था। खदेरन की मदर यानि माँ बनती थीं उस जमाने की प्रसिद्ध लोक गायिका प्रो विंध्यवासिनी देवी। साथ ही प्रो शांति जैन और प्रो एन एन पांडे जैसे लोग उस अमर नाटक-श्रृंखला के कलाकार थे। उस नाटक के बहुत ही मज़ेदार एक पात्र थे "फ़ाटक बाबा" और एक मज़ेदार पात्रा थीं "भगजोगनी"।
कहा जाता है कि उस दौर में लंदन काउंटी काउंसिल (London County Council - LCC), नेपाल , जोहान्सबर्ग और मॉरीशस जैसे देशों की सरकारों की माँग पर भारत सरकार इनके हास्य, व्यंग्य और ग्रामीण परिवेश से लेकर तत्कालीन देश-समाज को झकझोरने वाली "लोहा सिंह" नामक नाटक-श्रृंखला की ऑडियो कैसेट्स (Audio Cassettes) भेजवाती रही थी। "लोहा सिंह" नाटक की लोकप्रियता से प्रभावित होकर यूनेस्को ( UNESCO: United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization ) नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा प्रकाशित ‘रूरल ब्रॉडकास्टर’ ( Rural Broadcaster ) में संस्था ने "कश्यप" जी से अनुरोधपूर्वक उस नाटक के बारे में एक लेख -‘अबाउट लोहा सिंह’ (About Loha Singh ) लिखवा कर 1960 में प्रकशित किया था। उस नाटक को अगर सोप ओपेरा ( Soap opera - धारावाहिक ) कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ... वह नाटककार, निर्देशक और अभिनेता तीनों के रूप में और बिहार के अध्यक्ष की हैसियत से भी इप्टा ( IPTA - Indian People's Theatre Association - भारतीय जननाट्य संघ ) से जुड़े रहे थे।
उनको क़रीब से जानने वाले लोगों का कहना था कि उनको अपनी रचनाओं से बच्चों के समान प्यार था। वह हर रचना एक नयी कलम से लिखते थे और उसे बक्से में रख देते थे। फिर बाद में उसमें काट-छांट करते थे। इस तरह लगभग बीस हजार कलम उनके घर में सजे हुए थे।
बिहार के मशहूर फिल्मकार ( गंगाजल , अपहरण जैसी फ़िल्मों के ) - प्रकाश झा इस नाटक पर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। पर फ़िल्मीकरण के तहत कुछ बदलाव के लिए "कश्यप" जी उर्फ़ "लोहा सिंह" जी तैयार नहीं हुए थे और जब जरुरी बदलाव के लिए हामी भरने का मन बनाए तो अपनी बात प्रकाश झा को कहने के पहले ही 1992 में दुनिया छोड़ गए थे। जिस के कारण उनकी आख़िरी मंशा मन में ही रह गई थी।
ऐसी छिड़ी बातों के लम्हों में ना जाने क्यों ऐसे गुजरे लोगों , जो अपने आप में ही कला के विश्वविद्यालय को समेटे हुए होते हैं और चंद अपनों ( कुछेक रिश्तेदार और कुछ मन के करीब लोगों ) के लिए 1970 में आयी किशोर साहू जी की फ़िल्म - 'पुष्पांजलि' का वो गाना , जिसे आनंद बक्षी साहब ने लिखा था , लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने संगीतबद्ध किया था और मुकेश जी ने गाया था ; की आवाज़ बेसाख्ता कानों में गूँजने लगती है .. शायद ...



आइए .. उपरोक्त रसहीन बतकही के बाद इस सारगर्भित गाने को सुन कर लुत्फ़ लेते हुए अपने मन को कुछ हल्का करने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ...

(वैसे तो .. गाने का 'लिंक' 'वेव वर्शन' वाले पन्ने पर दिख रहा है)


Wednesday, February 17, 2021

तसलवा तोर कि मोर - (भाग-१) ... {दो भागों में}.

वैसे तो सर्वविदित है कि बीसवीं सदी की शुरुआती दौर में ही आमजन के लिए रेडियो-प्रसारण की शुरुआत न्यूयार्क के बाद हमारे परतंत्र भारत में भी हो गई थी। हालांकि विश्व स्तर पर इसके आविष्कार का श्रेय वैसे तो अपने नाम से पेटेंट करवा लेने के कारण इटली के वैज्ञानिक मार्कोनी को दिया जाता है , पर तत्कालीन समय गवाह रहा है कि उस रेडियो का विकास हमारे देश के वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु के आविष्कार किए गए बेतार रेडियो के आधार पर ही हुआ था।

रेडियो के आने के कई दशकों के बीत जाने के बाद 2011 के 3 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र  ( UN - United Nations ) की एक विशेष एजेंसी - "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" ( UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization ) , जिस का मुख्यालय पेरिस में अवस्थित है, ने 13 फ़रवरी के दिन को " विश्व रेडियो दिवस " के रूप में मनाने की घोषणा की थी। तब से हम सभी इसको बख़ूबी कम-से-कम सोशल मिडिया पर तो मनाते ही आ रहे हैं। पर .. डर लगता है , उन लोगों से जो इसे कोई विदेशी चलन मानते हुए इसका अपने यहाँ अतिक्रमण या घुसपैठ समझ कर इसको मनाना या मानना छोड़ ना दें कहीं .. शायद ...

इस के उपलक्ष्य में चार दिन पहले लोगबाग द्वारा अपनी-अपनी तरह से सोशल मिडिया पर इस से सम्बंधित प्रकाशित उपलब्ध कुछ पोस्टों पर नज़र पड़ी तो जरूर , पर लगा कि कहीं कुछ छूट रहा है या रेडियो से संबंधित ऐसे एक-दो कोई प्रसिद्ध व्यक्तिविशेष हैं , जिनकी चर्चा नहीं होने के कारण वे सामने से मायूस हो कर मानो अपनी चर्चा के लिए हम सभी से गुहार लगा रहे हैं। वैसे तो "सुनीता नारायणन" को कम या नहीं जानने वाली और "सपना चौधरी" को बख़ूबी जानने और पहचानने वाली हमारी मौजूदा आबादी तो मानो उन तत्कालीन ख़ास नामों को या तो पूरी तरह बिसरा चुकी है या फिर तनिक भी जानती ही नहीं। तभी तो ऐसे लोगों के बारे में वेबसाइटों पर नगण्य जानकारियाँ उपलब्ध हैं। हो सकता है .. ऐसे मौकों पर उन की कमोबेश चर्चा करनी भी उनके प्रति एक श्रद्धांजलि का ही रूप हो जाए .. शायद ...
जब कभी भी हम रेडियो या उसके विभिन्न कार्यक्रमों की बातें कर रहे हों , तो फ़िल्मी गीतों पर आधारित अपने समय के मशहूर कार्यक्रम - बिनाका गीतमाला, जो बाद में इस कार्यक्रम की प्रायोजक कम्पनी के उत्पाद का नाम बिनाका टूथपेस्ट से बदल कर सिबाका हो जाने पर सिबाका गीतमाला के नाम से प्रसारित होने लगा था, के उद्घोषक अमीन सयानी जी के ज़िक्र के बिना ये बातें शायद अधूरी ही रह जाए। जिनकी भौंरे की गुनगुनाहट-सी लयात्मक आवाज़ युक्त सम्बोधन - " बहनों और भाईयों " मानो हर तबक़े के जनसमुदाय के कानों में सरगम की फ़ुहार से भींजा जाता था। उन्हें उद्घोषकों का भीष्म पितामह भी अगर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ..शायद ...
पचास से अस्सी तक के दशक में बिनाका गीतमाला कार्यक्रम सुनने के लिए मानो प्रत्येक बुधवार के रात आठ बजे से नौ बजे तक लोगों की दिनचर्या थम-सी जाती थी। तब लोगों के पास मनोरंजन के साधन भी तो सीमित ही हुआ करते थे। ना तो आज की तरह टेलीविज़न था, ना ही मोबाइल और सोशल मिडिया जैसे मंच की कल्पना भर भी। मनोरंजन के नाम पर ले-दे कर सिनेमा हॉल था , मुद्रित साहित्यिक सामग्रियाँ थीं और रेडियो व ट्रांजिस्टर थे।
तब घर या दुकान में रेडियो रखने वालों को उसका लाइसेंस लेना पड़ता था और हर साल यथोचित देय शुल्क देकर उसका नवीकरण भी कराना पड़ता था ; क्योंकि पहले रेडियो सुनने के लिए "डाक विभाग- भारतीय तार अधिनियम-1885" के अंतर्गत लाइसेन्स उसी तरह का बनवाना पड़ता था , जिस प्रकार से आज वाहन या हथियार रखने या अन्य किसी काम के लिए लाइसेंस बनवाना पड़ता है। उस दौर में बिना लाइसेंस के रेडियो सुनना अपराध माना जाता था। वैसे 1987 में इसको बंद कर दिया गया।
तब तो सब के पास रेडियो होता भी नहीं था। नतीज़न - लोगबाग अपने मुहल्ले के किसी के भी घर जहाँ रेडियो उपलब्ध हुआ करता था , वहाँ अपने-अपने सम्बन्ध की प्रगाढ़ता के अनुसार घर के भीतर जाकर या बाहर से ही, या फिर किसी पान ( तब गुटखा नहीं हुआ करता था ) की गुमटी के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो कर सम्पूर्ण कार्यक्रम सुना करते थे। उन में से कई गुमटी वाले तो रेडियो को लाउडस्पीकर से जोड़ देते थे , तो उसके आसपास का पूरा मुहल्ला ही अपने-अपने घरों में बैठे ही सुन लिया करता था। साल के अंत में बिनाका गीतमाला के अंतर्गत उस साल के पहले पायदान पर आने वाले उस एक नायाब फ़िल्मी गीत को लेकर लोग किसी चुनाव के परिणाम आने के पहले लगायी जाने वाली अटकलों की तरह आपस में अपनी-अपनी अटकलें साझा करते थे। इस के लिए लोगों द्वारा आपस में कई तरह की बाजियाँ तक भी लगायी जाती थीं।
उस समय ग़ैरकानूनी सट्टेबाजी जैसे किसी चलन का प्रचलन नहीं हुआ करता था , वैसे अगर होगी भी तो भी इसका अंदाज़ा तो नहीं है हमें।  ख़ैर ! ... अगर होगी भी तो हमें क्या करना भला ? आज भी तो कई विसंगतियाँ हैं अपने समाज में तो .. हम कर ही क्या लेते हैं भला उसे दूर करने के लिए .. है ना ? अगर टपोरी भाषा का प्रयोग करने के लिए दो पल की छूट मिले तो कह सकते हैं कि ऐसे में हम क्या ही उखाड़ लेते हैं भला , सिवाय तथाकथित सत्यनारायण स्वामी की कथा के लिए पंडित जी के आदेशानुसार पास के किसी मैदान से दूब उखाड़ने के ? .. शायद ...
वैसे तो अमीन सयानी जी की आवाज़ आज भी सुनने के लिए या यूँ कहें कि कानों में रस घोलने की ख़ातिर कई वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। इसीलिए आज अमीन सयानी जी की चर्चा करने जा भी नहीं रहे हैं  हम ; बल्कि एक ऐसे व्यक्तिविशेष की बात आज करते हैं जो कई दशकों तक भारतीय रेडियो-कार्यक्रम पर ही नहीं , बल्कि भारत के बाहर भी अपना सिक्का जमाए रखे। हमारे समाज के लोगों को प्रायः बहुराष्ट्रीय शब्द से जुड़ा किसी भी तरह का जुड़ाव शान महसूस करवाता है। खासकर विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ या उसके उत्पाद। पर अब कई भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और उनके उत्पाद भी हैं हमारे बाज़ार में जो हमें गर्व महसूस करवाते हैं। तो .. अपनी कला की पहचान विदेशों में भी बनाने वाले ये शख़्स एक भारतीय बहुराष्ट्रीय उत्पाद की तरह हम देशवासियों को गर्व महसूस करवाने वाले बहु-प्रतिभाशाली कलाकार थे।
दुर्भाग्यवश वह आज हमारे बीच नहीं हैं , पर उनके लिखे गए और स्वयं के गढ़े गए पात्र के अभिनय में बोले गए संवाद आज भी कई कानों में घर बनाए हुए हैं। समसामयिक विषयों पर उस अपने गढ़े हुए पात्रों के मुँह से गलत-सलत अँग्रेजी, हिन्दी और भोजपुरी की मिलीजुली नयी भाषा में समसामयिक विषयों पर चुटीला प्रहार भी कर जाते थे , तो लगता था कि किसी ने ठिठोली करते हुए बस .. चिकोटियाँ भर काटी हैं। तब लोग टाँग-खिंचाई करते हुए उनके व्याकरण या वर्तनी को सुधारने में अपना वक्त बर्बाद कर अपनी गर्दन नहीं अकड़ाते थे , बल्कि उनकी कही गई बातों के भावों को समझने की कोशिश करते थे। उनकी बातों में आज के विरोधीजीवियों की मानिंद घायल करती मदान्ध कड़वी चोट करती-सी बातें नहीं हुआ करती थी .. शायद ...
दरअसल आजकल की इन व्यस्तता भरी ज़िन्दगानी के लिए तो यह रचना लम्बी होती जा रही है ; तो .. आज यहीं पर अर्द्धविराम लेते हैं और अगले "तसलवा तोर कि मोर - (भाग-२) ..." में उन व्यक्तिविशेष के बारे में यथासंभव विस्तार से बातें करते हैं। साथ ही उस में यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि इस बतकही { आलेख/संस्मरण (?) } का शीर्षक किसी कहावत से क्यों चुराया गया है  .. बस यूँ ही ...