Saturday, April 18, 2020

मरूस्थल की कोख़ में ...

तय करता हुआ, डग भरता हुआ जब अपने जीवन का सफ़र
बचपन के चौखट से निकल चला मैं किशोरावस्था की डगर
तुम्हारे प्यार की गंग-धार कुछ लम्हें ही सही .. ना कि उम्र भर
जाने या अन्जाने पता नहीं .. पर हाँ .. मिली ही तो थी मगर
अनायास मन मेरा बन बैठा था बनारसिया चौरासी घाट मचल ...

बीच हमारे-तुम्हारे ना जाने कब .. कैसे जाति-धर्म आई उभर
संग ख़्याल लिए कि कम ना हो सामाजिक प्रतिष्ठा का असर
फिर तो हो कर अपने ही किए कई कसमें-वादों से तुम बेख़बर
बनी पल भर में परायी भरवा कर अपनी मांग में सिंदूर चुटकी भर
रह गया जलता-सुलगता मन मेरा मानो जलता हुआ थार मरुस्थल ...

जन्माया उस मरूस्थल की कोख़ में एक मरूद्यान हमने भी पर
फैलायी जहाँ कई रचनाओं की सोन चिरैयों ने अपने-अपने पर
होने लगे मुदित अभिनय के कई कृष्ण-मृग कुलाँचे भर-भर कर
हस्तशिल्प के कैक्टसों ने की उदासियाँ सारी की सारी तितर-बितर
जल मत जाना देख कर अब तुम मेरी खुशियों की झीलों के जल ...


Thursday, April 16, 2020

कभी सलमा की साँसों में ...

बस यूँ ही ...  हवा  के लिए मन में उठे कुछ अनसुलझे सवाल .. मन को मंथित करते कुछ सवाल .. जिनके उत्तर की तलाश के उपकर्म को आगे बढ़ाते हुुए .. हवा के ही कुछ मुहावरों में पिरो कर ... बस .. एक प्रयोग .. बस यूँ ही ...

" वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
हम मानवों को भला
किस की हवा लग गई ?
बस .. सब की हवा पलट गई
कोई अवतारों की ख़ातिर
तो कोई पैगम्बरों के नाम पर
हवा से लड़ने लगे हैं सभी
समानुभूति की तो सोचो ही मत
सहानुभूति भी तो अब हवा हो गई ...

वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
अनसुलझी पहेली तू सुलझा ना जरा
है क्या बला भला ये रेखा हाथ की,
ललाट पर अंकित किस्मत अनदेखी,
पिछले जन्म की कर्म-कमाई
या फिर इसी जन्म के अपने-अपने
पाप-पुण्य की खाता-बही
जो .. कोई हवा में उड़ रहा यहाँ
और हवा पी कर रह रहा कोई ...

वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ...
हवा निकाल दे कोई बुद्धिजीवी किसी की
अतः उनके हवा से बातें करने से पहले
सोचा क्यों ना आज तुम्हीं से
बात कर लें हम रूबरू .. आमने-सामने
ऐ री हवा ! .. बतला ना जरा ..
अपनी दास्तान .. अपनी पहचान भला
जाति-धर्म बतला और .. अपना ठौर-ठिकाना
या है तू नास्तिक-अधर्मी या .. कोई बंजारा ? ... "

" हा-हा-हा-हा
वाह्ह्ह्ह्ह् रे मानव ! वाह ..
माना मेरी दिशाएँ हैं बदलती
पर बदली है तूने तो धरती की दशा
मैं तो फक्कड़, घुमक्कड़ .. मेरा क्या
निकलूँ जो कभी फेफड़े से पीटर के
समा जाता हूँ कभी सलमा की साँसों में
तो कभी गुजरूँ नथुनों में नीलेश के 
राष्ट्रीय ध्वज हो या झंडा ताज़िया संग मुहर्रम का
या फिर रामनवमी का कोई महावीरी झंडा
एक जैसा ही तो मैं सब को हूँ फहराता
कब किसी सीमा पर रुकता भला मैं मतवाला
अब मेरी जाति-धर्म .. तू ही बतला ना जरा " ...

" वाह .. वाह ...
वाह्ह्ह्ह् री .. हवा !!! ... "



Tuesday, April 14, 2020

तट-सा मन मेरा ... - चन्द पंक्तियाँ - (२५) - बस यूँ ही ...

बस यूँ ही ...

इन उदासी भरे पलों में आओ कुछ रुमानियत जीते हैं ..
मायूसी भरे लम्हों में यूँ कुछ सकारात्मक ऊर्जा पीते हैं ..
आओ ना !...  ( कोरोना की दहशत और लॉकडाउन की मार्मिक अवधि में ... ).

#(१) हर पल तुम :-

गूँथे आटे में ज़ब्त
पानी की तरह
मेरे ज़ेहन में
हर पल तुम
रहते हो यहीं
चाहे रहूँ मैं जहाँ ...

लोइयाँ काटूँ जब
याद दिलाती हैं
अक़्सर तुम्हारी
शोख़ी भरी
गालों पर मेरे
काटी गई चिकोटियाँ ...

पलकें मूँदी हों
या कि खुली मेरी
घूमती रहती है
छवि तुम्हारी
मानो गर्म तेल में
तैरती इतराती पूड़ियाँ ...

#(२) तट-सा मन मेरा :-

निर्झर से सागर तक
किसी और की होकर
शहर-शहर गुजरती
बहती नदी-सी तुम
बहती धार-सा
प्यार तुम्हारा ...

छूकर गुजरती धार
उस अजनबी शहर के
तट-सा मन मेरा
बहुत है ना .. जानाँ !
भींग जाने के लिए
आपादमस्तक हमारा ...