Saturday, November 23, 2024

दो टके का दो टूक ... (३)


अब आज इस बतकही के आख़िरी और तीसरे भाग "दो टके का दो टूक ... (३)" में .. यहाँ .. जो कोई भी पधारे हैं, उनके धैर्य को मन से नमन .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है, कि "दुम दबाकर भागना" एक मुहावरा है, परन्तु गत वर्ष दिवाली के दिन सुबह- सुबह मुझे इसे अक्षरशः सत्य होते हुए भी देखने का अवसर मिला था ; जब हम उस दिन प्रतिदिन की तरह सुबह, बल्कि दिवाली (12 नवम्बर 2023, रविवार) सह रविवारीय अवकाश के साथ-साथ आसपास में फ़ैली तथाकथित त्योहार की उमंग की तरंग में डूबे .. विशेषतौर से उस अवकाश के दिन आदतन एक बड़े बर्त्तन में सुसुम और सामान्य दिनों से भी ज़्यादा दूध लेकर घर से निकल कर मुहल्ले के नुक्कड़ तक गए थे ; जहाँ ठंड के कारण सड़क के किनारे मुहल्ले भर की गली के कुत्तों का (Street Dogs) (और कुत्तियों का भी) जमावड़ा लगा रहता है और वे वहाँ नर्म- नर्म पहाड़ी धूप की गर्माहट का आनन्द लेते हुए , प्रायः वहीं सड़क पर पसरे मिलते हैं। 

हमारे वहाँ तक जाने के क्रम में अभी उनकी और हमारी दूरी लगभग बीस-पच्चीस मीटर ही शेष रही होगी, तभी आसपास किसी अदृश्य स्थल पर किसी अतितरंगित प्राणी ने दिन के उजास में ही दिवाली की तथाकथित परम्परा को निभाते हुए .. अतितीव्र ध्वनि वाले पटाख़े को आग दिखा दिया होगा, तो .. .. .. .. . ले लोट्टा !!! .. हम हक्का- बक्का देखते ही रह गए और .. श्वानों की टोली हमारे हाथ में दूध से भरे बर्त्तन को देखने के बाद भी वहाँ से अचानक पल भर में लुप्त हो गई और ... और तो और .. प्रायः भूख लगने पर सुबह- शाम हमारे घर के दरवाज़े पर आकर मुख्य द्वार के लोहे के फ़ाटक को अपने पँजों से ज़ोर-ज़ोर से हिला कर अपने आगमन का संकेत देने वाला "जैकी" और मुहल्ले के कुछेक परिवारों का चहेता "जैकी" .. अपने सभी प्रेमियों के समक्ष प्रेम- प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुम हिलाने वाला "जैकी" भी उन सभी के साथ ही अपनी दुम दबा कर बहुत ही तेज़ी से भाग रहा था। उसे बार-बार बुलाने पर भी वह हमारे पास नहीं आया और ना ही रुका। 

ख़ैर ! .. बाक़ियों का तो कोई अपना बसेरा- ठिकाना नहीं है, तो आसपास उचक-उचक कर तलाशने पर भी उन लोगों का तो कुछ भी पता नहीं चल पाया .. ना जाने सारे अपनी जान बचा (?) कर कहाँ छुप गए थे। पर बड़ी मुश्किल से कुछ ही दूरी पर उसी टोली का एक चितकबरा कुत्ता मिला, जो हिम्मत कर के कुछ ही दूरी पर जा कर दूध की उम्मीद में ठिठक गया था ; तो उसको दूध पिलाने के बाद "जैकी" के स्थायी ठिकाने की ओर जाना हमको उचित लगा , जहाँ वह एक निम्न मध्यम परिवार के घर में रहता है .. जो हमारे घर (किराए के मकान) से कुछ ही दूरी पर है। बाज़ाब्ता उसके लिए उन लोगों ने अपने घर के बरामदे में एक स्थायी खाट लगा रखी है। वहाँ पहुँच कर, बाहर से ही "जैकी~ जैकी~" की आवाज़ लगाते ही वह खाट से उतर कर हमारे सामने आ गया और सामने ही आदतन एक-दो बार साष्टांग दण्डवत् करने के बाद वह पेट भर दूध पी लिया। कुछ शेष छोड़ भी दिया।

हर बार इनमें एक ख़ास गुण दृष्टिगोचर होता है, कि ये लोग केवल अपना पेट भरने तक ही खाते- पीते हैं, पर हम इंसानों की तरह पेट की जगह अपना मन भरने तक अपने पेट में कोंचते नहीं हैं .. शायद ...

उस वक्त आदतन उसको सहलाते- थपथपाते समय हमको उसकी धुकधुकी काफ़ी तीव्र महसूस हो रही थी। इतने दहशत में उसे महसूस करके तत्काल हमारा मन द्रवित हो गया था। मन विचलित भी अवश्य हुआ था, कि अभी-अभी तो ये अपने स्थान से ही लुप्त हुए हैं, पर .. अगर .. आतिशबाज़ी की यूँ ही अति होती रही तो .. हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज- शहर भर से ये लुप्त और फिर .. विलुप्त भी तो हो सकते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में आज की बतकही के तथ्य को धैर्यपूर्वक समझना ही होगा .. शायद ... 

सर्वप्रथम तो आतिशबाज़ी कभी भी पर्यावरण के लिए न्यायसंगत रही ही नहीं है , क्योंकि सामान्यतः सामान्य पटाख़ों में बारूद और अन्य ज्वलनशील रसायन ही तो होते हैं, जो जलाए जाने पर फट कर शोर और रोशनी पैदा करते हैं। साथ ही भारी मात्रा में वायु और ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं। और पर्यावरण की सुरक्षा के बिना हम सुरक्षित रह भी नही सकते हैं .. शायद ... हालांकि तथाकथित "ग्रीन पटाख़ों" में हानिकारक रसायन ना के बराबर होते हैं, जिससे वायु प्रदूषण कम होता है।

अधिकांश लोगों का प्रायः मुद्दा होता है, कि अन्य त्योहारों के लिए आपत्ति नहीं जतायी जाती, फिर दिवाली के लिए ही दोहरी मानसिकता क्यों ? यूँ तो "दोहरी मानसिकता" कहीं भी गलत है .. घर- परिवार में, समाज में, देश में, हर जगह .. परन्तु मालूम नहीं हम दिवाली के अलावा अन्य वायु प्रदूषण फ़ैलाने वाले किस त्योहार की बातें करते हैं भला .. पर यूँ तो .. केवल त्योहार ही क्यों भला .. लोग तो शादी- विवाह के मौक़ों पर, अपने मनपसन्द क्रिकेट टीम के जीतने पर, किसी मनपसन्द राजनीतिक दल के जीतने पर, कोई बड़ा केस-मुक़दमा (उचित या अनुचित तरीके से भी) जीतने पर, तथाकथित नववर्ष के अवसर पर भी पर्यावरण के लिए सर्वदा हानिकारक पटाख़े यहाँ जलाए ही जाते हैं .. शायद ...

यूँ तो धूम्रपान से , मिलावट वाले पेट्रोल को प्रयोग करने वाले वाहनों से निकले धुएँ से भी वायु प्रदूषण होता ही रहता है। कुछ वर्षों से तो कुछ राज्यों में पराली (पुआल) जलाने से भी वायु प्रदूषण फ़ैलने की चर्चाएँ आम हैं .. शायद ...

दूसरी तरफ़ हमने ये भी ग़ौर किया है , कि दशहरे के दौरान तथाकथित रावण दहन के दरम्यान भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से आतिशबाज़ी की जाती है, पर उसका भी अमूमन विरोध नहीं होता .. कोई आपत्ति नहीं जतायी जाती क्योंकि .. दिवाली के मौके पर घर-घर में जलाए जाने वाले पटाख़ों की तरह उस तथाकथित रावण के पुतले घर-घर में नहीं जलाए जाते, बल्कि वह तो पूरे शहर भर में या फिर गाँव-मुहल्ले में केवल एक ही जलाया जाता है, पर .. यूँ तो एक नहीं .. तीन-तीन होते हैं पुतले- तथाकथित रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले भी .. प्रदूषण की सम्भावनाएँ तो तब भी बनती हैं, परन्तु तुलनात्मक रूप से कम ही बन पाती हैं, क्योंकि दिवाली के दौरान तो कुछेक पर्यावरण समर्थक जागरुक घर- परिवारों को छोड़ कर आतिशबाज़ी प्रायः धड़ल्ले से घर-घर में जलायी जाती है .. शायद ... 

आपको शायद ये कुतर्क लगे, पर .. अब तर्क हो या कुतर्क .. हमारी समझ में जो आ रहा है, वह साझा कर रहे हैं, कि इसके पीछे के इस गणित को समझना होगा , कि अगर एक मुहल्ले में किसी एक 'साउंड बॉक्स' पर भजन, ग़ज़ल या रूमानी गाना भी बज रहा हो तो .. कानों में मिठास घोलता महसूस होता है और 'साउंड बॉक्स' की जगह दस- बीस या पचास- सौ बड़े वाले 'डी जे बॉक्स' या 'लाउडस्पीकर' बजने लग जाएँ, तो वही भजन- ग़ज़ल कान को कर्कश लगने लगेगा, जिसे हम ध्वनि प्रदूषण की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं। आप मानते हैं इस बात को, तो हम अपनी बात आगे बढ़ाएँ .. बढ़ाएँ ना ?  ...

अब तनिक अपने देश भारत की जनसंख्या के गणित को समझ लेते हैं। उपलब्ध वर्तमान आँकड़ों के मुताबिक शायद भारत की जनसंख्या के लगभग 70-80% लोग हिन्दू धर्म, 16-20% इस्लाम, 2% ईसाई, 2% सिक्ख और 1% बौद्ध धर्म के अनुयायी बसते हैं। मतलब 70-80% हिन्दू जो दिवाली का त्योहार मनाते हैं और 20% अपने मनाने वाले अन्य त्योहार में पटाखे जलाते होंगे .. शायद ...

अब हम तनिक ग़ौर करें, कि 70-80% आबादी द्वारा की गयी आतिशबाज़ी से फैले प्रदूषण और 20% द्वारा फैलाए गए प्रदूषण समान होंगे क्या ? (आज के संदर्भ में उपरोक्त आँकड़े उन्नीस- बीस भी हो सकते हैं .. शायद ... 🙏)

हालांकि आतिशबाज़ी जिस किसी भी मौके पर होती हो, एक बुद्धिजीवी और जिम्मेवार नागरिक ना सही, एक अच्छे और नेक इंसान होने के नाते हम सभी को इसका विरोध करना ही चाहिए .. शायद ... वैसे हम तो किसी भी मौक़े पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली आतिशबाज़ी को उचित नहीं मानते हैं .. बस यूँ ही ...

वैसे भी बारूदों और आतिशबाज़ी का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है .. शायद ... तो .. धर्मानुसार भी इसका सम्बन्ध हमारे पुरखों की परम्पराओं से भी जोड़ना उचित नहीं है। साथ ही इनसे परेशान होने वाले गली के लावारिस कुत्तों, गायों, बन्दरों या अन्य चौपायों के साथ-साथ पेड़ों पर विश्राम कर रहे पक्षियों को ना जाने .. जाने-अंजाने कितनी ही नाना प्रकार की मानसिक और शारीरिक यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ... 

पर इन सबसे अन्तर किसको पड़ता है भला .. जिस सभ्य समाज में धर्म के नाम पर पशुओं की बलि-क़ुर्बानी जायज़ हो, जिस सभ्य मानव-समाज में स्वादिष्ट व्यंजन के लिए जीव-हत्या गर्वोक्ति होती हो .. तो ऐसे में .. ऐसे लोगों के लिए उपरोक्त हमारी दो टके का दो टूक वाली बतकही बेमानी है .. शायद ...

अगर इस बेकार की बतकही से आज के बाद आतिशबाज़ी ना जलाने के लिए कुछेक सम्वेदनशील मानव का हृदय- परिवर्तन हो जाए .. एक नेक मन का हृदय- परिवर्तन हो जाए .. तो .. दिवाली तो .. सदियों से हर वर्ष आने की तरह अगले साल भी आएगी .. हम रहें ना रहें .. आगे भी आती ही रहेगी तो .. इस वर्ष ना सही .. हम अपनी भावी पौध- पीढ़ी को कुछ इस तरह मानसिक- हार्दिक रूप से सींचे की भावी दिवाली सालों-दर-साल प्रकाशोत्सव ही बन कर रहे .. प्रदूषणोत्सव में तब्दील होने से बच जाए .. ताकि हम सहर्ष अपनों को प्रदूषणोत्सव के स्थान पर सदैव  प्रकाशोत्सव की शुभकामनाएँ प्रेषित कर सकें .. बस यूँ ही ...

नहीं तो .. ..  हम तो फ़िलहाल .. कबीर जी के निम्न दोहे को दोहरा कर ही अपने मन को कम-से-कम ढाढ़स दे देंगे, कि ...

" कबीरा तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास, 

  जैसी करनी-वैसी भरनी, तू क्यों भये उदास। "

अब आज इतना ही .. फिर मिलते हैं .. अपनी अगली बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के साथ .. बस यूँ ही ...

  

Thursday, November 21, 2024

दो टके का दो टूक ... (२)


अब आज इस बतकही के शेष-अवशेष को "दो टके का दो टूक ... (२)" में हम जानते-समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाला तथाकथित हिंदूओं का एक समुदाय दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाता है भला ! .. बस यूँ ही ...

दरअसल पूरे वर्ष भर किसी भी धर्म-सम्प्रदाय द्वारा अपनी-अपनी आस्था के अनुसार मनाया जाने वाला कोई भी त्योहार या धार्मिक अनुष्ठान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समस्त समष्टि को जोड़ने का ही कार्य करता है .. शायद ... 

अब यदि ऐसे अवसर पर समष्टि को तोड़ने का या फिर निज पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का कोई भी कृत्य होता हो, तो ऐसे कृत्य कम से कम हमारे पुरखों द्वारा तो हमें विरासत -स्वरूप कतई नहीं सौंपे गए होंगे। निश्चित रूप से पुरखों की थाती के अपभ्रंश रूप ही ये सारे के सारे नहीं भी, तो .. अधिकांश अपभ्रंश प्रचलन हमारे वर्तमान समाज में प्रचलित हैं .. शायद ...

ऐसे विषयों पर हमारे बुद्धिजीवी समाज के प्रबल प्रबुद्ध गण भी सकारात्मक विश्लेषण करने की जगह प्रायः अंधानुकरण करने में ही स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते देखे जाते हैं। नतीजतन हाल ही में बीती दिवाली के मौके पर इस वर्ष ही नहीं, वरन् हर वर्ष दो खेमों में बँटे लोग आतिशबाज़ी के पक्ष और विपक्ष में टीका-टिपण्णी करते हुए दिखते तो हैं, परन्तु हल के नाम पर .. वही ढाक के तीन पात .. शायद ...

जबकि हमारे पड़ोस के कट्टर हिंदूवादी देश - नेपाल में पूरी तरह से आतिशबाज़ी प्रतिबंधित है। इस से सम्बन्धित किसी भी सामग्री-उत्पाद के उत्पादन और विपणन पर भी रोक है। वैसे तो तस्करी या अन्य किसी जुगाड़ से चोरी-छिपे वहाँ पटाख़ों का उपलब्ध होना, बिकना और जलाना एक अलग ही बात है , जो है तो वहाँ के कानून के अनुसार एक दंडनीय अपराध ही।

ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता  .. हमारे देश-समाज में धर्म-परम्परा की आड़ में अगर कुछ विनाशकारी या हानिकारक परम्पराएँ हैं भी तो .. उन्हें प्रतिस्थापित करना भी हमारा ही धर्म है। इनमें बलि प्रथा , जल्लीकट्टू , दिवाली के दिन पिंजड़े में बंद उल्लू का दर्शन , दशहरे में पिंजड़े में बंद नीलकंठ पक्षी का दर्शन , मृत्युभोज , बकरीद के दिन तथाकथित क़ुर्बानी जैसी अंधपरम्पराएँ भी शामिल हैं। वैसे भी कोई भी धर्म व्यष्टि संगत के साथ-साथ समष्टि संगत भी होनी ही चाहिए .. शायद ... 

यूँ तो हम लोगों ने अपनी दिनचर्या में जाने-अंजाने नाना प्रकार के अनगिनत प्रतिस्थापन कर रखे हैं .. न जाने हमने कब पजामे से धोती को और पतलून से पजामे को प्रतिस्थापित किया है। भाषा-बोली के मामले में भी संस्कृत से लेकर पालि, प्राकृत, अवहट्ट, पुरानी हिन्दी, अपभ्रंश हिन्दी तक में कई प्रतिस्थापन किए हैं। अब हम भाषा- बोलियों में, परिधानों में, खान-पानों में, पकवानों में निरन्तर अनेकों प्रतिस्थापन किए हैं , तो धार्मिक परम्पराओं में भी एक- दो सकारात्मक परिवर्तन- प्रतिस्थापन करके कोई गुनाह तो नहीं ही करेंगे ना हम ? .. शायद ...

हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी दिवाली मनाई तो जाती है, पर भिन्न तरीके से और भिन्न मान्यताओं के साथ। वहाँ तथाकथित राम आगमन वाली कोई मान्यता है ही नहीं , बल्कि वहाँ तथाकथित लक्ष्मी व विष्णु के पूजन वाली मान्यता है और .. सबसे विशेष बात तो ये है, कि दीपावली के दिन पालतू ही नहीं, बल्कि गली के सभी कुत्तों की भी पूजा की जाती है। बाज़ाब्ता उन्हें साफ़-सुथरा कर के गुलाल, दही व अक्षत् के मिश्रण का टीका उनके माथे पर लगा कर और फूलों की माला पहना कर लोग उनकी आरती उतारते हैं। फिर उन्हें उनके मनपसन्द व्यंजनों को भरपेट खिलाया जाता है। 

जबकि हमारे यहाँ तो कुत्तों के दसियों मुहावरे दोहरा- दोहरा कर उन्हें ताउम्र हेय दृष्टि से देखकर हम कोसते रहते हैं। मसलन - धोबी का कुत्ता, ना घर का, ना घाट का / सराय का कुत्ता / दहलीज़ का कुत्ता / अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है / कुत्तों को घी हज़म नहीं होता / अँधी पीसे, कुत्ता खाए / कुत्ते की दुम, टेढ़ी की टेढ़ी / कुत्ते की तरह पेट पालना / कुत्ते की ज़िंदगी जीना / कुत्ते की मौत मरना / कुत्ते की तरह दुम दबा कर भागना / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / ऊँट चढ़े पर कुत्ता काटे / पुचकारा कुत्ता सिर चढ़े / सीधे का मुँह कुत्ता चाटे / कुत्ते डोलना / हाथी चले बाज़ार, कुत्ता भौंके हजार / बासी बचे न कुत्ता खाय / घर जवांई कुत्ते बराबर / भौंकने वाले कुत्ते कभी काटते नहीं / कुत्ते को हड्डी प्यारी / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / खौरही कुतिया, मखमली झूल / अपने कुत्तों को बुलाओ इत्यादि -इत्यादि।

उपरोक्त सारे मुहावरे तो सर्वविदित हैं, पर प्रसंगवश दोहरा कर हम में से ज़्यादातर लोगों की अपनी दोहरी मानसिकता को दोहराने की कोशिश भर कर रहे हैं, कि एक तरफ़ तो हमारे यहाँ क्रमशः कुत्ते और चूहों को तथाकथित भैरव एवं गणेश की सवारी मानने की मान्यताएँ हैं ; तो दूसरी तरफ़ हम चूहों को जान से मारने व अपने-अपने घरों से भगाने के विभिन्न तरीके अपनाते हैं तथा कुत्तों के लिए हमारी मानसिक कलुषिता को दर्शाने के लिए हमारे व्याकरण में उपलब्ध उपरोक्त कहावतें ही पर्याप्त हैं .. शायद ...

ख़ैर ! .. बतकही हो रही है नेपाल की दिवाली की, जिसे वहाँ "तिहार" कहा जाता है , जो पाँच दिनों तक मनाई जाती है। हमारे देश में जिस दिन छोटी दीपावली मनाते हैं, वहाँ कौओं की पूजा की जाती है, जिसे "काग तिहार" कहते हैं तथा हमारे यहाँ जिस दिन दिवाली मनाते हैं, वहाँ "कुकुर तिहार" मनाते हुए कुत्तों की पूजा की जाती है। जिसके पीछे हमारी तरह उनकी भी कई तथाकथित धार्मिक लोक मान्यताएँ हैं। इसी दिन "नरक चतुर्दशी" नामक त्योहार भी मनाया जाता है।

फिर तीसरे दिन "गाय तिहार" व लक्ष्मी पूजा की जाती है , जो हमारे देश के गोवर्धन पूजा व लक्ष्मी पूजा से मेल खाती है। इसी क्रम में चौथे दिन "गोरू तिहार" व "महा पूजा" होता है, जिसके तहत बैलों और परिवार के वृद्धों की पूजा की जाती है तथा अगले दिन यानि पाँचवे दिन "भाई टीका" नामक त्योहार मनाते हैं , जो हमारे देश में मनाए जाने वाले भैया दूज ता भाई पोटा की तरह ही है।

इस प्रकार "तिहार" केवल रोशनी का ही त्योहार नहीं है, बल्कि यह जीवन, प्रकृति, जानवरों और पारिवारिक बंधनों का उत्सव है। यह कौवे, कुत्ते, गाय और बैलों की पूजा द्वारा मनुष्यों और जानवरों के बीच के रिश्ते के मजबूत बंधन को दर्शा कर उनका सम्मान करता है। यह प्रकृति और आध्यात्मिकता के बीच एक गहरा संबंध विकसित करता है और लोगों को अपने पर्यावरण के साथ भी सद्भाव की महत्ता की याद दिलाता है।

'सोशल मीडिया' से पता चला है, कि इस वर्ष हमारे देश में भी छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में पुराने बस स्टैंड स्थित एक कुत्ता केंद्र में बड़ी संख्या में कुत्तों की पूजा करके "कुकुर तिहार" मनाया गया है। यह छोटा ही सही, पर यह सकारात्मक प्रयास हमारे मानव समाज के लिए अनुकरणीय है .. शायद ...

अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (३)" में साझा करते हैं और अगर .. आप हमारी तरह बेवकूफ़ हैं व हमारी बतकही को झेलने का धैर्य रखते हैं, तो .. गत वर्ष की दीपावली की एक संवेदनशील घटना- दुर्घटना की अनुभूति पढ़ने आ सकते हैं या फिर ... 🙏