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Wednesday, August 28, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१२) - बस यूँ ही ...

(१)* कपूर-बट्टियाँ

यथार्थ की पूजन-तश्तरी में
पड़ी कई टुकड़ों में बँटी
धवल .. निश्चल ..
निःस्पन्दित .. बेबस ..
तुम्हारे तन की कपूर-बट्टियाँ

अनायास भावनाओं की
बहती बयार संग बहती हुई
तुम्हारे मन की कपूरी-सुगन्ध
पल-पल .. निर्बाध .. निर्विध्न ..
घुलती रहती है हर पल ..
निर्विरोध .. निरन्तर ..
मेरे मन की साँसों तक

हो अनवरत सिलसिले जैसे
तुम्हारे तन की कपूर-बट्टियों के
मन की कपूरी-सुगन्ध में
होकर तिल-तिल तब्दील
मेरे मन की साँसों में घुल कर
सम्पूर्ण विलीन हो जाने तक ...

(2)*अक़्सर परिंदे-सी

हर पल ...
मेरे सोचों में
सजी तुम
उतर ही आती हो
अक़्सर परिंदे-सी
पर पसारे
मेरे मन के
रोशनदान से
मेरे कमरे के
उपेक्षित पड़े मेज़ पर
बिखरे कागज़ों पर

और ...
लोग हैं कि ..
बस यूँ ही ...
उलझ जाते हैं
कविताओं के
भाव और बिम्ब में

और तुम ...!!
सच-सच बतलाओ ना !
तुम्हें तो इस बात का
एहसास  है ना !??? ...