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Thursday, July 27, 2023

पुष्पा नहीं, सुसवा ...

आपको भी शायद याद होंगे ही तेलुगु भाषी भारतीय अभिनेता- अल्लू अर्जुन की फ़िल्म "पुष्पा: द राइज" के सबसे ज्यादा बहुचर्चित और लोकप्रिय दोनों संवाद जिसे 'बॉलीवुड' के श्रेयस तलपड़े ने हिंदी में 'डबिंग' किया है। पहला संवाद जिसमें वह कहते हैं- "मैं पुष्पा... पुष्पराज... मैं झुकेगा नहीं स्स्साला .." और दूसरे संवाद में बोलते हैं- “पुष्पा नाम सुन के फ्लावर समझे क्या... फ्लावर नहीं, फायर है। ” .. याद है ना .. ये दोनों संवाद ? ...


उसी फ़िल्मी संवाद के तर्ज़ पर अभी-अभी किसी की सोंधी-सी फ़ुसफ़ुसाहट ने हमारे कर्णपटल पर दस्तक दी है- "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। " .. आप सब भी ऐसा सुन पा रहे हैं क्या ? .. नहीं ? ..  नहीं क्या ? ...


ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. हो सकता है आपके आसपास की ध्वनि के प्रदूषण में आपको नहीं सुनायी दे रही हो ये सोंधी-सी फुसफुसाहट .. कई दफ़ा तो एक ही छत के नीचे गहरी नीरवता में अपनों के क़रीब रह कर भी हम एक-दूसरे के मन की मीठी बातों को भी सुन-समझ नहीं ही पाते हैं .. है ना ? ... 


फ़िलहाल अभी हम चर्चा कर रहे हैं "सुसवा साग" का, जो उत्तराखंड की एक विशेष पहचान है। जैसे मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय है "नोनी" या "नोनिया" का साग। सुसवा साग एक मौसमी उपज है, जो समस्त उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर बहते पानी के प्राकृतिक स्रोतों में और उसके आसपास स्वतः उग आता है, ठीक "कर्मी साग" के पैदावार की तरह। प्रायः सुसवा का साग अक्टूबर के आसपास उपजता है और अमूमन मार्च-अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।  


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के आसपास के इलाकों में भी अब से पहले यह प्राकृतिक रूप से एक नदी विशेष की उपज हुआ करता था। स्थानीय जानकार वृद्ध-वयस्क जन बतलाते हैं कि इस नदी में उपजने वाले सुसवा साग के कारण ही इस नदी विशेष को "सुसवा नदी" के नाम से बुलाया जाता था या है भी। तब कुछ गरीब तबक़े के लोग इस निःशुल्क प्रकृति-प्रदत्त साग को शहरी क्षेत्रों में बसे हुए हम जैसे साग प्रेमियों से बेच कर अपने परिवार का जीवनयापन करते थे। 


हालांकि उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर बनने वाले नए राज्य- उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून बनने के बाद, पहले से ही मनमोहक स्वच्छ आबोहवा और मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण की वज़ह से अन्य राज्यों से यहाँ आकर स्थायी-अस्थायी बसने वालों की लगी हुई होड़ के कारण यहाँ की जनसंख्या ताबड़तोड़ बढ़ती गयी है। जिसके फलस्वरूप उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ता गया है। नतीजन अब प्रदूषित सुसवा नदी में सुसवा साग का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। परन्तु .. चूँकि ये साग और नदी, दोनों ही हमनाम हैं और अतीत में ही सही, दोनों के गहरे सम्बन्ध रहे हैं तो साग के साथ-साथ प्रसंगवश नदी की भी कुछ तो चर्चा करनी जायज़ ठहरती है .. शायद ...


दरअसल सुसवा नदी गंगा की सहायक नदियों में से एक है, जो उत्तराखंड के दक्षिणी शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और देहरादून की घाटियों से गुजरती हुई सौंग नदी की सहायक नदी बन कर मैदानी क्षेत्र के रास्ते गंगा नदी में जा मिलती है। जैसे हमारे अभिभावक होते हैं और हमारे अभिभावक के भी अभिभावक होते हैं, उसी प्रकार गंगा की सहायक नदी सुसवा की भी सहायक नदियाँ हैं। वो सब भी अब निष्प्राण-सी ही दिखती हैं। उन सहायक नदियों के भी नामभर के लिए ही नाम शेष बचे हैं-  बिंदाल नदी और रिस्पना नदी। स्थानीय जानकार जन बतलाते हैं कि रिस्पना नाम दरअसल ऋषिपर्णा नाम का अपभ्रंश स्वरुप है और यही अपभ्रंश नाम ही वर्तमान में प्रचलित भी है।


कहते हैं कि सुसवा नदी कभी अपने पौष्टिक व स्वादिष्ट सुसवा साग और मछलियों के साथ-साथ देहरादून में उपजने वाले अपने विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में लोकप्रिय बासमती चावल के खेतों में अपने पानी की सिंचाई से उस चावल विशेष में सुगंध भरने के लिए जानी जाती थी। वही सुसवा नदी की स्वच्छ धार आज हम बुद्धिजीवियों के तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ कर, अल्पज्ञानियों की बढ़ती जनसंख्या की तीक्ष्ण धार वाली भुजाली से क्षत-विक्षत हो कर सिसकी लेने लायक भी शेष नहीं बची है .. शायद ...


फलतः बासमती चावल में सुगंध भरने वाली नदी आज स्वयं ही दुर्गन्धयुक्त हो गयी है। लगभग निष्प्राण हो चुकी इस नदी में बरसात की शुरुआत में पानी भरने के क्रम के साथ-साथ शहर भर की गंदगियों सहित मिलने वाले बड़े-बड़े नालों ('सीवर') के हानिकारक 'प्लास्टिक', 'थर्माकोल' समेत 'मैग्नीशियम', 'कैल्शियम' और अन्य कई विषैले रसायन .. मसलन- 'क्रोमियम', 'जिंक', 'आयरन', शीशा, 'मैंगनीज़', 'ग्रीस', तेल इत्यादि बहुतायत मात्रा में आकर मिलते हैं। नतीजन इसके पानी के उपयोग से या सम्पर्क में आने से भी कैंसर, विशेष कर बड़ी आँत का कैंसर, चर्म रोग, 'कोमा', 'गॉल ब्लैडर', गुर्दे की पथरी, 'हाइपर टेंशन', हृदयघात या मोटापा जैसी खतरनाक बीमारी होने की प्रबल सम्भावना रहती है। इसके साथ ही इसमें कचरे के रूप में मिले हानिकारक तत्व वाले पानी से सिंचाई करने पर अनाज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती हैं, जो परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं .. शायद ... 


इसीलिए इन दिनों देहरादून के आसपास के इलाकों में सुसवा साग प्रेमी लोगों के लिए कहीं-कहीं अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ लोगों द्वारा सुनियोजित ढंग से इसकी खेती की जाती है। अक्तूबर के आसपास इसे रोपा जाता है, जो लगभग डेढ़ माह में काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक इसे खेती करने वाले लोगों द्वारा छः-सात बार काटा जाता है। हर बार काटने के बाद यह बरसीम चारा की तरह तेजी से पनप भी जाता है। चूँकि इसकी पैदावार केवल पानी पर निर्भर करती है, वो भी बहते हुए पानी पर, तो खेतों में ठीक उसी तरह की बहते पानी जैसी व्यवस्था करनी होती है, जैसी नदियों में होती है। खेतों में पानी रुकने से सुसवा की उपज को खराब होने की आशंका रहती है। हालांकि उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में जहाँ अभी तक शहरी प्रदूषण की पैठ नहीं हुई है, वहाँ अभी भी प्राकृतिक रूप से बिना खेती किये हुए ही बहते पानी के स्रोतों में और उसके आसपास यह मौसमानुसार स्वतः उपजता है और स्थानीय सुसवा प्रेमियों को अपना सोंधापन निछावर करता रहता है।


उत्तराखंडी लोगों को मालूम है, कि सुसवा साग बहुत ही स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें 'विटामिन सी', 'प्रोटीन' और 'आयरन' जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें कैलोरी बहुत ही कम होती है, पर भरपूर मात्रा में 'एंटीऑक्सीडेंट' होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर से बचने में सहायता करते हैं। यह अन्य कई खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो हमारी हड्डियों की रक्षा करता है। अन्य स्रोतों के साभार से यह पता चलता है कि विदेशों में भी कई जगहों पर इसको Water Cress (जलकुम्भी) के नाम से बुलाते हैं। वहाँ पर यह ज्यादातर सलाद की तरह उपभोग किया जाता है।


आइए ! .. मिलकर एक बार सुसवा वाले संवाद को अपनी ज़ुबान से बोल कर आज की बतकही की इतिश्री करते हैं .. बस यूँ ही ... - "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। "

















सुसवा के लिए यथोचित मौसम में देहरादून की स्थानीय सब्जी मंडी-बाज़ारों में बेचने के लिए वर्तमान में भी प्रायः गरीब लोग ही टोकरी में लेकर बैठते या बैठती हैं या फिर कुछ पुरुष लोग अपनी साइकिल पर लादे कॉलोनीयों-मुहल्लों में घूम घूम कर फेरी लगाते नज़र आ जाते हैं। इस वर्ष पुनः प्रतीक्षारत हैं हम सुसवा के मौसम के आगमन के .. बस यूँ ही ...

Monday, July 17, 2023

हरेला ...

सावन माह वाले अमावस्या के दिन "हरेला" नामक सांस्कृतिक विरासत वाला एक पारम्परिक लोकपर्व उत्तराखंड में मनाया जाता है। यही पर्व हिमाचल प्रदेश में भी "हरियाली" के नाम से और छत्तीसगढ़ में "हरेली" के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष 2023 में यह पर्व आज यानि 17 जुलाई को है। उत्तराखंड में इस लोकपर्व के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा 2021 से राजकीय अवकाश घोषित किया जा चुका है।

दरअसल पारम्परिक मान्यता के अनुसार इस पर्व को मनाने के लिए लोगों द्वारा किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी में मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पाँच-सात प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। फिर लोग नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह पानी का छिड़काव करते रहते हैं। दसवें दिन इन बीजों से निकले पौधों को काटा जाता है। चार-छः इंच लम्बे इन पौधों को ही "हरेला" कहा जाता है, जिन्हें आस्थाजनित बहुत आदर के साथ घर-परिवार के सभी सदस्य अपने सिर पर रखते हैं। "हरेला" घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में बोया व काटा जाता है। एक लोक मान्यता है कि हरेला जितना बड़ा होगा, उतनी ही बढ़िया भावी फसल होगी। साथ ही लोग तथाकथित भगवान से अच्छी फसल होने की कामना भी करते हैं।

यूँ तो साल में तीन बार "हरेला" मनाने की परम्परा है। एक तो चैत माह में, जिसमें माह के प्रथम दिन बीज बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है। दूसरा सावन यानि श्रावण माह में, जिसके तहत सावन माह शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद सावन के प्रथम दिन काटा जाता है। तीसरा आश्विन माह में, जिनमें नवरात्र के पहले दिन बीज बोया जाता है और दशहरा यानि दशमी के दिन काट लिया जाता है। 

आस्तिक कर्मकांडी घटनाओं से जुड़ी बचपन की कुछ यादों के अनुसार बिहार-झाड़खण्ड में भी आश्विन माह वाले नवरात्र के पहले दिन तथाकथित कलश स्थापना के तहत उस कलश यानि मिट्टी के घड़े के चारों ओर कच्ची मिट्टी में जौ बोया जाता था और दशहरा के दिन उन दस दिनों में पनपे कोमल पौधों को  काटा जाता था, जिसको पूजा कराने वाले 'पंडी जी' यानि ब्राह्मण द्वारा घर के सभी सदस्यों को कान पर रखने के लिए दिया जाता था और आज भी पारंपरिक तरीके से ऐसा किया जाता है। 

पर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में सावन माह वाला "हरेला" विशेष रूप से मनाया जाता है। यह लोकपर्व भी संक्रान्ति के तरह ही कृषि से सम्बन्धित पर्व है, जो साल भर में कई बार और कई राज्यों में अलग-अलग नाम से और अपनी-अपनी लोक आस्था के अनुसार पारम्परिक ढंग से मनाया जाता है।

परन्तु आधुनिक दौर में इसका स्वरुप परिवर्तित होकर इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ-साथ लोगबाग अपने परिवेश में किसी भी फल देने वाले या छाया प्रदान करने वाले या फिर औषधीय गुणों वाले बहुउपयोगी भावी वृक्षों के छोटे स्वरूप में पौधों का रोपण करते हैं। इनमें से कई लोग तो केवल 'सोशल मीडिया' या 'मीडिया' में स्वयं की औचित्यहीन क्षणिक लोकप्रियता हेतु 'सेल्फ़ी' लेने के लिए ऐसा करते हैं और बाद में उन पौधों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं होता है। पर सभी ऐसे नहीं होते हैं .. शायद ... 

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है उन पौधों का संरक्षण। हर वर्ष मनाए जाने वाले "हरेला" जैसे लोकपर्व के अवसर और विश्वस्तरीय "विश्व पर्यावरण दिवस" पर लगाए जाने वाले पौधों को अगर सही-सही संरक्षण मिलता रहता तो अब तक सही मायने में हमारी धरा लगभग हरी-भरी हो जाती .. शायद ...

संयोगवश नौकरी के सिलसिले में गत वर्ष से उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में रहने के फलस्वरूप यहाँ के "धाद" नामक एक सामाजिक संस्थान द्वारा "हरेला" की पूर्व संध्या पर शहर के गाँधी पार्क के मुख्य द्वार के पास आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम और यहाँ से घन्टाघर होते हुए कनॉट प्लेस तक की जनयात्रा में शामिल होने का मौका कल रविवार को शाम में मिला। उस सांस्कृतिक कार्यक्रम और जनयात्रा के बारे में विस्तार से कुछ ना कह कर, हम उस दौरान आदतन ली गयी कुछ तस्वीरों और वीडियो को यहाँ जस का तस साझा कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...

जाते-जाते "हरेला" की औपचारिक शुभकामनाओं के साथ-साथ पुनः हम अपनी बात दोहराना चाहते हैं कि हम "दिवस" के हदों में "दिनचर्या" को क़ैद करने की भूल करते ही जा रहे हैं। नयी युवा पीढ़ी के समक्ष हम बारम्बार "दिनचर्या" की जगह "दिवस" को ही महत्वपूर्ण साबित करने की भूल करते जा रहे हैं। साथ ही हम सभी मिलकर पर्यावरण का मतलब पेड़-पौधों तक ही सीमित कर के पर्यावरण के विस्तृत अर्थ को कुंद करते जा रहे हैं। जबकि पर्यावरण के तहत हमारे आसपास मौजूद समस्त प्राणियों और समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण और संवर्धन ही सही मायने में "हरेला" है .. शायद ...

आइये .. हम सब मिलकर पेड़-पौधों की गुहार को  एक नारा के रूप में दुहराते हैं .. बस यूँ ही ...

हम पेड़-पौधों को सदा संरक्षित और संवर्धित कीजिए।

पर्यावरण के लिए अपनी जनसंख्या नियंत्रित कीजिए।























Thursday, June 29, 2023

निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा ...

हम फ़िलहाल तो फ़िल्म- "हम दिल दे चुके सनम" के इस्माइल दरबार जी के संगीत और कविता कृष्णमूर्ति जी की आवाज़ से सुज्जित राजस्थान की पारंपरिक लोक धुन पर आधारित गीत- "निंबूड़ा-निंबूड़ा .. निंबूड़ा ..~~~" को गाने या बजाने वाले नहीं हैं। बस एक तुकबंदी सूझी तो बतकही भय कर दिए कि "निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा" .. बस यूँ ही ...

वैसे तो "निंबूड़ा-निंबूड़ा" वाले गीत पर अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन को नृत्य करते हुए हम सभी ने सम्भवतः देखा ही है और निबूड़ा के अर्थ और द्विअर्थी विशेषार्थ भी समझते ही हैं। पर अभी फ़िलहाल तो हमें "लिंगुड़ा" को जानना है .. बस यूँ ही ...

वैसे तो अगर मनपसंद खाना और गाना साथ-समक्ष हो, तो मानव मन पुलकित हो जाता है। बशर्ते मनपसंद खाना का पैमाना स्वाद नहीं, बल्कि सेहत के लिए केन्द्रित हो। केवल मानव ही क्यों, विज्ञान ने प्रयोग द्वारा बतलाया है, कि पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर भी संगीत का असर होता है। साथ ही पुरखों की सीख को मानें तो- "जैसा अन्न, वैसा मन" यानि हमारे भोजन का असर हमारे तन के साथ-साथ मन पर भी पड़ता है .. शायद ...

हम अक़्सर घर या बाहर में भी किन्हीं को भी जब-तब जाति-उपजाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-बोली, रूप-रंग, कद-काठी, सभ्यता-संस्कृति, क्षेत्र-पहनावा, पद-पैसा, गाड़ी-बंगला इत्यादि जैसे पैमाने के आधार पर किसी मनुष्य विशेष के बारे में नुक्‍ताचीनी करते हुए या उसके विश्लेषण में उलझते हुए देखते-सुनते हैं, तब उनकी छोटी सोच के लिए मेरा एक सामान्य-सा कथनाश्रय (तकिया-कलाम) होता है, कि "दुनिया बहुत ही बड़ी है" या फिर ये कि "दुनिया बहुत ही रंगीन है" ... 

शायद सच में ही इतनी बड़ी है भी ये दुनिया कि अगर अथाह विराट ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण जानकारियों की बातें ना करके तुलनात्मक एक गौण अंशमात्र- समस्त धरती पर ही उपलब्ध हर क्षेत्र में व्याप्त एक-एक तत्व-वस्तु या हरेक पादप-प्राणी को हम जानने-समझने की बातें तो दूर .. हम केवल ताउम्र उनके नाम सुनने या देखने भर की भी बातें सोचें तो .. हमारे श्वसन और स्पंदन की जुगलबन्दी पर चलने वाला हमारा यह जीवन भले ही हर क्षण या हरेक क्षणांश में अपघटित होते-होते इस धरती से तिरोहित हो जाए, परन्तु सूची ख़त्म नहीं होगी .. शायद ...

हमने अपनी अब तक की आयु में जिन-जिन फल-सब्जियों या अनाजों का नाम तक नहीं सुना था, उन्हें नौकरी के सिलसिले में गत एक वर्ष से वर्तमान में भी उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में रहते हुए, व्यक्तिगत रूचि के कारण भी, देखने और खाने में बहुत ही रोमांच अनुभव हो रहा है। हमारे जैसे भौगोलिक मैदानी क्षेत्र वाले निवासी के लिए तो  आश्चर्यजनक हैं पहाड़ी क्षेत्र के ये प्राकृतिक उत्पाद सारे के सारे। किसी भी पैतृक भौगोलिक परिवेश से इतर परिवेश में एक पर्यटक की तरह कुछ दिनों के लिए जाना-आना या 'गूगल' पर 'सर्च' करके वहाँ की जानकारियों को खंगालना और दूसरी तरफ वहाँ जाकर सालों भर रहते हुए वहाँ की हर ऋतुओं को जीना-महसूस करना .. दो भिन्न अनुभूति कराते हैं .. शायद ...

कई विशेष पहाड़ी प्राकृतिक उत्पादों की एक साथ यहाँ चर्चा करते हुए इन्हें साझा करना तो सम्भव नहीं, तो कई भागों में साझा करने के लिए सोच ही रहे हैं हम साल भर से। दिन पर दिन सूची लम्बी होती जा रही है और मेरे मोबाइल की गैलरी भी भरती जा रही है .. साथ में मानसिक दबाव भी .. बस यूँ ही ...

आज वर्तमान मौसम में ही उपलब्ध एक सब्जी से शुरुआत करते हैं, जिसे गत वर्ष चूक जाने के बाद आज ही सुबह-सवेरे लाया स्थानीय सब्जी-मंडी से। यहाँ के लोग इसे लिंगुड़ा या लिंगड़ा कहते हैं। 



                  लिंगुड़ा - बाज़ार से लाने के बाद 👆


               लिंगुड़ा - टुकड़ों में काटने के पहले 👆

(1) लिंगुड़ा :-

दरअसल लिंगुड़ा पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली फर्न प्रजाति की एक वनस्पति है, जिसकी सब्जी को यहाँ बेहद ही पौष्टिक, स्वादिष्ट और गुणकारी माना जाता है। 

और माना भी क्यों ना जाए भला !? .. बतलाया जाता है, कि इसके कोमल डंठल और सर्पिलाकार फुनगी में 'विटामिन ए', 'विटामिन बी कम्पलेक्स', 'विटामिन सी', 'ओमेगा-3', 'ओमेगा-6', 'आयरन', 'जिंक', 'पोटाशियम', 'कॉपर', 'मैंगनीशियम', 'फैटी ऐसिड', 'फॉस्फोरस', 'सोडियम', 'कैरोटीन' व अन्य कई 'मिनरल्स' प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

जिनकी वजह से यह मधुमेह, कुपोषण, हृदय रोग, चर्म रोग, अनियंत्रित 'कोलेस्ट्रोल', अनियंत्रित रक्तचाप, कमजोर पाचन शक्ति, 'एनीमिया' जैसे खतरनाक रोगों में लाभप्रद है। साथ ही हमारी अंदरुनी शक्ति यानि 'इम्यूनिटी पॉवर' और आँखों की रोशनी को भी बढ़ाने वाली सब्जी मानी जाती है।


लिंगुड़ा - सब्जी बनाने से पहले टुकड़ों में कटी हुई👆


               लिंगुड़ा - लोहे की कड़ाही में पकते हुए 👆

जानकारी मिली है, कि यह  उत्तराखण्ड (लिंगुड़ा, लेंगड़ा लुंगड़ू या लिंगड़) के अलावा हिमाचल प्रदेश (लिंगरी) और सिक्किम (नियुरो) और असम जैसे पहाड़ी राज्यों में भी लगभग जेठ-अषाढ़ महीने में स्वतः जंगलों और पहाड़ों के किनारे नमी वाले स्थानों में उग जाता है।

प्रायः स्थानीय लोग जंगलों-पहाड़ों से चुनकर इस की सब्जी या अचार बनाते हैं। इनके अलावा कुछ लोग अपनी आय के लिए शहरी बाज़ारों में इसकी बिक्री भी करते है, जहाँ से हमारे जैसे लोग खरीद कर खाने का अवसर प्राप्त करते हैं .. बस यूँ ही ...

आज सुबह की थाली में अन्य भोजन सामग्री के साथ लिंगुड़ा की सब्जी पहाड़ी झंगोरे के भात के साथ .. बस यूँ ही ... 🙂😛🙂



Thursday, November 17, 2022

मन की झिझरियों से अक़्सर .. बस यूँ ही ...

देवनागरी लिपि के वर्णमाला वाले जिस 'स' से कास का सफ़र समाप्त होता है, उसी 'स' से सप्तपर्णी की यात्रा का आरम्भ होता है। संयोगवश व्यवहारिक तौर पर भी एक तरफ कास खिलने के उपरांत एक अंतराल के बाद जब किसी पहाड़ी गौरवर्णी चिरायु वृद्ध-वृद्धा के झुर्रीदार परन्तु देदीप्यमान मुखड़े की तरह झुर्रियाने लगते हैं, तभी किसी पहाड़न की सादगी भरे सौंदर्य-से सप्तपर्णी के यौवन की मादकता समस्त वातावरण को सुवासित करने लग जाती है .. बस यूँ ही ...

इन्हीं कास और सप्तवर्णी के आगमन-गमन के दरम्यान ही हर वर्ष की भांति कुछ दिनों पूर्व ही हिन्दू त्योहारों के मौसम के सारे के सारे हड़बोंग, चिल्लपों, अफ़रा-तफ़री, आपाधापी की पूर्णाहुति हुई है .. शायद ... 

जिनके दौरान हम में से अधिकांशतः जन सैलाब संस्कार और संस्कृति की आड़ में इनके अपभ्रंश परम्पराओं के तहत तथाकथित ख़ुशी तलाशने और बाँटने के छदम् प्रयास भर भले ही कर लें, परन्तु आध्यात्मिकता से कोसों दूर रह कर प्रायः हम अपने-अपने आत्मप्रदर्शन की प्रदर्शनी लगाए आपस में मानसिक या आर्थिक स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा से जूझते हुए ही ज़्यादातर नज़र आते हैं इन मौकों पर .. शायद ...

पर उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी- देहरादून में गत मई' 22 से वर्तमान में रहते हुए ऐसे तथाकथित त्योहारों के मौसम में यहाँ के लोगों की अजीबोग़रीब कृपणता देखने के लिए मिली है। 

वैसे तो बचपन की पढ़ाई के अनुसार हमारे खान-पान, रहन-सहन पर हमारे भौगोलिक परिवेश का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असर पड़ता है। परन्तु मालूम नहीं किस कारण से बिहार-झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यहाँ के निवासी पूजा-अर्चना में कोताही करते नज़र आते हैं। इस दौरान यहाँ विशाल की बात तो दूर, बौने या मंझोले पंडाल भी नज़र नहीं आए और ना ही शहर या गाँव-मुहल्ले में कहीं भी विराट की विशाल प्रतिमाएँ दिखीं .. और तो और ध्वनि विस्तारक यंत्र से आकाश में तथाकथित विराजमान विधाता तक पैरोडी वाले भजनों की आवाज़ पहुँचाने वाले बुद्धिमान लोग भी नहीं दिखे। अब इनकी इतनी सादगी भरी परम्पराओं से तो कोफ़्त ही हो जाएगा; जिनको पंडालों, मेलों, रेलमपेलों, लाउडस्पीकरों की शोरों में ही अपने पावन परम्पराओं के निर्वहन नज़र आते हों। 

हैरत होती है कि यहाँ उत्तराखंड के लोग अपनी भक्ति-भाव की आवाज़ किस विधि से बिना लाउडस्पीकर के ऊपर आकाश में बैठे विधाता तक पहुँचा पाते होंगे भला ! ?

हो सकता है .. इस अलग राज्य की तरह ही इस राज्य के विधाता का विभाग भी आकाश में कोई अलग ही हो, जहाँ लाउडस्पीकर की आवाज़ के बिना ही उन तक उनके उत्तराखंडी भक्तों की बात पहुँच जाती होगी .. शायद ...

ख़ैर .. हमें इन सब से क्या लेना- देना ...

आज तो इन सब को भुला कर बस .. अभी हाल ही में ऋषिकेश के एकदिवसीय भ्रमण के दौरान आँखों के दृश्य-पटल पर अपनी छाप छोड़ते कुछ दृश्यों या कुछ विशेष घटनाओं के परिणामस्वरूप पनपी कुछ बतकही को छेड़ता हूँ .. बस यूँ ही ...


#(१)

यूँ तो है हर चेहरे पर यहाँ छायी मुस्कान,

पर है किसे भला इनकी वजह का संज्ञान .. बस यूँ ही ...


#(२)

खेलने की उम्र में .. पेशे में लगे बच्चे हों या

खिलने के समय .. पूजन के लिए टूटे फूल।


यूँ समय से पहले कुम्हला जाते हैं दोनों ही,

अब .. इसे संयोग कहें या क़िस्मत की भूल .. बस यूँ ही ...



#(३)

त्रिवेणी घाट पर केवल नदियाँ ही नहीं, 

साहिब ! ... दो दिल भी मिला करते हैं।

आते हैं आप यूँ यहाँ मोक्ष की तलाश में,

गोद में प्रकृति की हम तो मौज करते हैं।


लिए कामना स्वर्ग की आप आ-आकर,

लगा कर डुबकी नदी में स्नान करते हैं।

हम तो बस यूँ ही .. प्रेम में गोता लगाए,

स्वर्ग बने धरती ही, कामना ये करते हैं .. बस यूँ ही ...


#(४)

वज़ह नभ पर आनन के, मुस्कान की घटा छाने की,

आज़ादी ही नहीं, साहिब ! कई बार होती है क़ैद भी।


गोया हथकड़ियों से सजे जेल जाते स्वतन्त्रता सेनानी,

प्रिय की आँखों के रास्ते ह्रदय में समाती प्रेम दीवानी।


बाँहों में बालम के बिस्तर पर खुद को सौंपती संगिनी,

कैमरे के रास्ते गैलरी में क़ैद होती रेहड़ी वाली रमणी .. बस यूँ ही ...



#(५)

नज़रबन्द करने में भले ही लोग छोड़ें ना कोई कसर,

झाँक ही लेते हैं हम तो मन की झिझरियों से अक़्सर .. 

.. बस यूँ ही ...