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Tuesday, December 17, 2019

एक ऊहापोह ...

था सुनता आया बचपन से
अक़्सर .. बस यूँ ही ...
गाने कई और कविताएँ भी
जिनमें ज़िक्र की गई थी कि
गाती है कोयलिया
और नाचती है मोरनी भी
पर सच में था ऐसा नहीं ...

गाता है नर-कोयल .. है यही सही
नाचता है सावन में नर-मोर भी
यत्न करते हैं हो प्रेम-मदसिक्त दोनों ही
रिझाने की ख़ातिर अपनी ओर
बस मादाएँ अपनी-अपनी
रचा सके मिलकर ताकि
सृष्टि की एक नई कड़ी ...

जान कर ये बातें बारहा
एक ऊहापोह है तड़पाता
छा जाती मुझ पर उदासी और ..
अनायास आता है एक ख़्याल
पूछता हूँ खुद से खुद सवाल ..
अरे ! ... नहीं आता गाना मुझे
और ना ही मुझे नाचना भी
अब .. रिझाउँगा उन्हें मैं कैसे
कैसे उन्हें मैं भला भाऊँगा भी

चाहता हूँ मन से केवल उनको ही
इतना ही पर्याप्त भला नहीं क्या !? ..
एक बार तनिक .. वे बतलातीं भी ...