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Sunday, February 16, 2020

हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ... - भाग- ३ - ( आलेख /संस्मरण/ एक विचार ).


" नालायक हो गया है। इतना बुलाने पर भी नहीं आया ना पप्पुआ !? " - ये पप्पू के चचेरे बड़े चाचा जी की आवाज है जो पप्पू के छोटे सगे भाई बबलू को अपने पप्पू भईया को संयुक्त पारिवारिक पूजा में साथ बैठने के लिए उसके अध्ययन-कक्ष से बुलाने कुछ देर पहले भेजे थे और उसके साथ नहीं आने पर लौटे हुए बबलू से पूछ रहे हैं।

फिर मँझले दादा जी यानी पप्पू के इसी चचेरे बड़े चाचा जी के पिता जी यानी उसके मृत दादा जी के मँझले भाई की आवाज आई - " साल भर में एक बार आने वाला त्योहार है। पता नहीं अपने आप को समझता क्या है। चार अक्षर पढ़-लिख क्या गया है , एकदम दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है इसका। "
" नहीं आना है ना आए .. कम से कम अपना कलम-दवात तो भेज देता पूजा के लिए ..." - छोटे वाले दादा जी बीच का रास्ता निकालते हुए बोले।

" नहीं आ रहा है तो छोड़िए उसको। पूजा की मुहूर्त निकली जा रही है। सबको तेज भूख भी लगी है। अभी बजरी खाने में भी समय लगेगा वह अलग। एकदम बदतमीज हो गया है।"- उन्हीं बड़े चचेरे चाचा जी की बड़बड़ाहट थी, जिनको उनके द्वारा पप्पू के बुलाने पर भी उसके ना आने के कारण उनको अपनी मानहानि लगने से उत्पन्न गुस्से को शांत करने के लिए निकल रही थी - " देखे नहीं उस दिन बांसघाट (बिहार की राजधानी पटना में गंगा नदी के किनारे बसे कई श्मशान घाटों में से एक) पर छोटका बाबू जी के 'दसमा' (पप्पू जिस सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध रखता है, वहाँ किसी सगे के मरने के बाद दाहसंस्कार के दसवें दिन सभी पुरुष अपना बाल मुड़वाते हैं और दोनों हाथों-पैरों के सारे नाखून कटवाते हैं) में बाल नहीं ही मुंडवाया, केवल नाखून कटवाया। हीरो बन गया है। खाली कुतर्क करता रहता है। "

अक़्सर हमारे अभिभावक अपने बच्चों को डांटने , कोसने या मारने-पीटने का काम उस बच्चे के सुधारने या सुधरने के लिए कम बल्कि  अपने स्वयं के मन के गुस्सा को शांत करने के लिए ज्यादा ही करते हैं।
जिस त्योहार की बात हो रही है वह दरअसल दीपावली के एक दिन बाद हिन्दी कैलेंडर के मुताबिक़ कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन हिन्दू सम्प्रदाय के तथाकथित कायस्थ जाति के लोग अपने तथाकथित कलम-दवात के देवता यानी ईष्ट भगवान- चित्रगुप्त का पूजन कर के मनाते हैं। इसे चित्रगुप्त-पूजा या दवात-पूजा या कलम-दवात की पूजा भी कहते हैं। बिहार में इस जाति को लाला भी कहते हैं। ये जाति बारह उपजातियों में बँटी हैं जो पूरे देश और विदेश में भी अलग-अलग जातिसूचक उपनाम के साथ पाई जाती हैं।इस त्योहार के दिन अन्य हिन्दू जाति के लोग यमद्वितीया के नाम से मनाते हैं। कहीं-कहीं बजरी कूटने के नाम से भी जाना जाता है।

"चित्रगुप्त व्रत कथा" नामक धार्मिक पुस्तिका में लिखी गई पूजन-विधि का अनुसरण करते हुए उस कथा का संस्कृत या हिन्दी या फिर बारी-बारी से दोनों भाषा में वाचन किया जाता है। कहीं-कहीं तथाकथित ब्राह्मण यानि पंडी (पंडित) जी को इस वाचन के लिए बुलाया जाता है या फिर घर का ही कोई भी एक सदस्य इसे पढ़ता है और अन्य सभी ध्यानपूर्वक सुनते हैं। परिवार के सभी सदस्य सुबह से उपवास में रहते हैं और पूजन-समापन के बाद ही चरणामृत और प्रसाद ग्रहण करने के बाद अगर किन्ही पुरुष की बहन रही तो उसके हाथों से कूटे गए बजरी (इसको बजरी कूटना ही कहते हैं) खाकर उसके हाथों बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।

हम में से अधिकांश को यह ज्ञात होगा कि एक समय था जब फाउन्टेन पेन यानि कलम और दवात की स्याही का संगम ही लिखने का एकमात्र साधन था। एक दिन पहले ही रात में घर के सारे कलम-दवात इक्कठे कर लिए जाते थे। सुबह उन सब की पानी-साबुन के साथ धुलाई होती थी। उस दिन कोई भी कलम नहीं छूता था यानि लिखने का काम नहीं होता था। बच्चे लोग खुश होते थे कि उस दिन पढ़ाई-लिखाई से छुटकारा मिल जाती थी या आज भी मिल जाती है। पूजा के लिए विशेष कंडे लाए जाते थे और उसे चाकू से छील कर पुरखों की संस्कृति और परम्परा को निभाते हुए उसी को दवात वाले स्याही में डूबा कर एक कागज़ पर रोली और घी से बनाए गए चित्रगुप्त भगवान की कार्टूननुमा चित्र के नीचे कुछ मंत्र लिखे जाते थे और आज भी इस परम्परा की निर्वाह की जाती है। मंत्रों के नीचे फिर सभी उसी कागज पर अपनी-अपनी सालाना आमदनी और खर्च लिखते हैं। बड़ी चतुराई से आमदनी से ज्यादा खर्च लिख कर दिखाया जाता है, इस मान्यता के साथ कि आमदनी से ज्यादा खर्च लिख कर दिखाने से भगवान जी उस अंतर की भरपाई करने के लिए आमदनी अपनी कृपा से बढ़ा देंगें। मतलब बच्चों को बचपन से ही अन्जाने में बड़े-बुजुर्ग छल-प्रपंच सिखाते हैं।
वैसे डॉट पेन और बॉल पेन के आने के पहले तक लिखने का एकमात्र साधन फाउंटेन पेन और पेन्सिल ही थी। उस कलम के लिए नीले, काले, लाल और हरे रंग की तरल स्याही, जो काँच के दवात में उपलब्ध थी , को भर कर कलम में लगे नीब के सहारे लिखा जाता था।

हाँ तो .. वे लोग पप्पूआ के नहीं आने पर पूजा प्रारम्भ कर दिए। ना चाहते हुए भी कानों में बड़े चचेरे भईया द्वारा उस तथाकथित पावन कथा की आवाज़ कान तक आ रही है। पहले कुछ अंश संस्कृत में फिर उसके अर्थ हिन्दी में पढ़ा जा रहा है। प्रायः संस्कृत तो बस अंक लाने तक ही रट कर समझ कर आता है .. तो हिन्दी वाले वाक्य पप्पू समझ पा रहा है।

" भीष्म जी बोले - हे युधिष्ठिर ! (शायद वही महाभारत वाले हैं) पुराण संबंधी कथा कहता हूँ। इसमें संशय नहीं कि इस कथा को सुनकर प्राणी सब पापों से छूट जाता है। "

पप्पू मन ही मन बुदबुदाता है - " मन तो कर रहा कि पूरे परिवार, समाज, देश .. सभी बुद्धिजीवियों से सवाल करूँ कि अगर किसी कथा के सुन भर लेने से पाप से छुटकारा मिल जातीA हो तो क्या ऐसी कथा सुननी चाहिए !? ऐसी कथा समाज में पाप के फैलाव में मददगार साबित नहीं होगा क्या !? तब तो रोज पाप करो और एक दिन क्यों साल के 365 - 366 (अधि/वृद्धि वर्ष में) दिन ये कथा सुनकर पापी पापमुक्त हो जाए। नहीं क्या !???

" सतयुग में नारायण भगवान् से , जिनकी नाभि में कमल है। उससे चार मुँह वाले ब्रह्मा जी पैदा हुए ... ब्रह्मा जी ने मुख से ब्राह्मणों को, बाहुओं से क्षत्रियों को , जंघाओं से वैश्यों को और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया और ... "

अब नाभि में कमल, चार मुँह वाले ब्रम्हा जी और उनके मुख, बाँह, जाँघ व पैर से अलग-अलग जाति के मनुष्य का जन्म लेना जैसी ऊटपटाँग बातें वहाँ अपने बुजुर्गों के साथ पालथी मारकर बैठे और कथा सुन रहे अंग्रेजी मीडियम से प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले चचेरे छोटे भाई बंटी के समझ से परे थी। वह चुपके से सू-सू के बहाने उठ कर एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने उसी पप्पू भईया के पास भाग आया। सवाल दागने लगा - " पप्पू भईया ऐसा सच में होता है क्या !? मतलब हम सोच रहे हैं कि आगे की उच्च क्लासों में या कहीं कॉलेज में इस तरह का विज्ञान भविष्य में हमको पढ़ाया जाए। अभी तक के जीव-विज्ञान के किताब, कोर्स या क्लास में ऐसा सब नहीं पढ़ाया गया है। "
पप्पू के छः दादा जी में से चार दादा जी का भरा-पूरा परिवार परदादा जी की संपत्ति वाले एक ही बड़े से मकान के अलग-अलग हिस्से में रहता है। कुल तैंतीस लोगों की सदस्यता है। बाक़ी के दो दादा जी का परिवार पटना से बाहर के शहरों में जहाँ नौकरी करने गए वहीं जगह-जमीन लेकर बस गए।

गुस्से से पप्पू की मुट्ठियाँ भींच जाती है और वह जोर से अपनी भिंची मुट्ठी अपने और सामने ही आकर बैठे बंटी के बीच पड़े मेज पर पटकता है - " बंटी ... ऐसा कुछ भी सच ना था  और ना है। अगर सच होती ये सारी बातें तो निश्चित तौर पर हमारे-तुम्हारे पाठ्यक्रम में जोड़कर हमें पढ़ाई जाती। अचरज तो इस बात की है कि पोंगापंथी वाला इंसान अगर कोई नासमझी करे तो बात समझ में आती है पर अपने ही घर में देखो ना सारे चाचा जी लोग, दादा जी लोग, मेरे पापा , तुम्हारे पापा .. कोई पदाधिकारी, कोई वकील, कोई डॉक्टर, कोई इंजिनीयर, कोई प्रोफेसर .. सारे के सारे पढ़े-लिखे लोग हैं ... साथ में सारे पढ़ने वाले भाई-बहन ... सब के सब साल-दर-साल इस कथा को अन्धानुसरण करते हुए दुहरा रहे हैं। अपनी जाति-विशेष और उनमें भी कई उपजाति-विशेष की धारणा पाले गर्दन अकड़ाए हुए हैं। " - जग से गिलास में पानी डाल कर पी कर आगे बोला - " चलो ... तुम आ गए .. अच्छा किए। इनको बोल कर समझा नहीं सकते, बोल कर विरोध नहीं कर सकते तो ... कम-से-कम ऐसे मौकों में शामिल ना होकर तो विरोध जताया ही जा सकता है ना भाई। "
दोनों आँखों में आँखें डाले मुस्कुराते हैं। अब बंटी के बोलने की बारी थी - " अपने वर्त्तमान अभिभावक या गुजरे पुरखे ना सही भईया .. हमारी और आगे आने वाली पीढ़ी कभी ना कभी तो इस मिथक की कलई उघाड़ सकेगी और मिथक के पीछे का ठोस धातु हम अंधपरम्परा और अंधश्रद्धा के चश्मे को हटाकर अपनी नंगी आँखों से निहार पायेंगें।"

लगभग 1980 के इस बीते घटना का चौदह वर्षीय चश्मदीद कुतर्की पप्पू  दरअसल  मैं  ही हूँ।

Thursday, December 5, 2019

" सूरज आग का गोला है। " (लघुकथा).

हमारे भारतीय समाज में परिवार की आदर्श पूर्णता वाले मापदण्ड यानि दो बच्चें - हम दो , हमारे दो - और ऐसे में अगर दोनों में एक तथाकथित मोक्षदाता- बेटा हो, तब तो सोने पर सुहागा। उसी मापदण्ड के तरह ही ट्रक-ड्राईवर रमुआ और उसकी धर्मपत्नी- रमरातिया को भी एक सात साल की बिटिया- सुगिया और एक पाँच साल का बेटा- कलुआ है।

दोनों भाई-बहन अपने गाँव के ही पास वाले एक ही मिडिल स्कूल के एक ही कक्षा- तीन में पढ़ते हैं। दरअसल  सुगिया के दो साल बड़ी होने के बावजूद उसकी पढ़ाई भी भाई कलुआ के साथ ही शुरू करवाई गई थी।

एक दिन सामान्य-विज्ञान की कक्षा में शिक्षक पढ़ा रहे थे - " बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "
उसी समय दोनों भाई-बहन कक्षा में ही ऊँघ रहे थे। शिक्षक महोदय की नज़र उन दोनों पर पड़ते ही वे आग-बबूला हो गए। अपने हाथ की हमजोली ख़जूर की छड़ी सामने के मेज पर पटकते हुए बोले - " का (क्या) रे तुम दोनों रात भर खेत में  मिट्टी कोड़ रहा था का (क्या)? चल ! इधर आके (आकर) दुन्नो (दोनों) मुर्गा बन के खड़ा हो जाओ। "
कलुआ अपनी शरारती आदतानुसार मुर्गा बनने के पहले बोल पड़ा - " सर ! हम तअ (तो) मुर्गा बन ही जाएंगे, पर सुगिया दीदी के तअ (तो) मुर्गी बने पड़ेगा ना !? "
कक्षा के सारे विद्यार्थी ठहाका मार के हँस पड़े। पर प्रतिक्रिया में शिक्षक के चिल्लाते हुए डाँटते ही - " चुप !!! .. शांति से रहो सब। ना तो सब के धर (पकड़) के कूट देंगें। समझे की नहीं !? " सब सटक सीता-राम हो गए।

तभी सुगिया रुआंसी हो कर बोल पड़ी -" सर ! हमलोग सच में रात भर सो नहीं पाए हैं। कल भोरे (सुबह) से लेकर रातो (पूरी रात) भर आ स्कूल आबे (आने) के समय तक घर के  बगल में फूल्लन चच्चा (चाचा) के घरे (घर) "जागरण" हो रहा था सर। खूब जोर-जोर से लाउडस्पीकर में "हरे रामा- हरे कृष्णा - कृष्णा, कृष्णा - हरे-हरे " चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी सर।"-  लगभग रो पड़ी थी सुगिया - " अब एकरा में हम दुन्नो (दोनों) भाई-बहिन के का (क्या) दोष है सर!? आज भर माफ़ कर दीजिए ना। अब से ना करेंगे ऐसा।"

"जाओ ! जा के बैठो दुन्नो (दोनों) अप्पन-अप्पन (अपना -अपना) सीट पर। " - शिक्षक महोदय के इतना कहते ही दोनों अपने-अपने जगह पर वापस जा कर बैठ गए।

लेकिन कलुआ तो ठहरा शरारती .. जाते-जाते तपाक से पूछ बैठा सर से - " आयँ ! सर ! भगवान जी बहिरा (बहरा) हैं का (क्या) !? .. जे (जो) एतना (इतना) जोर से सब चिल्लाते हैं। उ (वो) भी भोरे (सुबह) से लेके (लेकर) रातो (पूरी रात) भर। एकदम से मन अनसा (चिड़चिड़ा) जाता है। " - अपनी दीदी-सुगिया की ओर मुँह करके - " है की ना दीदी !? ".

" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तो फिर मुर्गा बना देंगे तुमको। " - शिक्षक के गुर्रारते ही कलुआ शांत हो गया।

शिक्षक महोदय इस व्यवधान के बाद फिर से विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिए - " हाँ तो बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "

तभी कलुआ से रहा नहीं गया। भरी कक्षा में खड़ा हो कर बीच में ही आश्चर्य भरे लहजे में अपने शिक्षक से बोला - " पर सर ! मम्मी आ दादी तअ कहती है कि सूरज भगवान हैं। ठेकुआ वाला भगवान। आउर (और) उनकी दु ठो (दो) पत्नी भी है। एगो (एक) रथ भी है जिसको सात गो घोड़ा मिलकर दौड़ाता है। उसी से तो दिन और रात होता है। "

" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तअ (तो) अभी सच में मुर्गा बना देंगे तुमको। बहुत ज्यादा मुँह चलाता है। " - शिक्षक जी जोर से बमक कर उसे घुड़के और फिर पढ़ाने लगे - " हाँ .. तो बच्चों सूरज आग का गोला है। "

( "गो"/"ठो" - बिहार राज्य में स्थानीय भाषा में अंक या संख्या को बोलते समय उनके बाद "गो" या "ठो" का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। )

Thursday, November 21, 2019

"फ़िरोज़ खान" के बहाने ...

आज के ग्लोबल दुनिया में किसी भाषा या किसी पहनावा या फिर किसी व्यंजन विशेष पर किसी विशेष जाति, उपजाति या धर्म विशेष वाले का आधिपत्य जैसी सोच जो शत्-प्रतिशत गलत है और इस पर एक ही साथ गुस्सा एवं हँसी दोनों आता और आती है।
ऐसे में किंकर्तव्यविमूढ़ वाली मनोदशा होने लगती है। फलतः मन का विष आज के विज्ञान के योगदान वाले सोशल मिडिया ( सनद रहे कि इसमें भगवान नाम के तथाकथित मिथक का कोई भी योगदान नहीं है) के पन्ने पर उल्टी कर देना सबसे आसान लगता है। इसके अलावा हम कुछ कर भी तो नहीं पाते। बहुत हुआ तो एक-आध दाँत निपोरते अपनी सेल्फी चमका या चिपका देते हैं।
वो भी विज्ञान की बदौलत, इसमें भी भगवान का कोई योगदान नहीं रहता। हम भारतीयों का भी नहीं .. क्योकि मोबाइल फोन और फेसबुक जैसे सारे सोशल मिडिया का आविष्कार भी भारत के बाहर ही हुआ है। हम केवल ब्लॉग जगत का नारा लगाना जानते हैं।
बस ...
दरअसल इसके बीज भी हमने ही रोपे हैं। समाज को जाति, उपजाति और धर्म के बाड़े में बाँट कर। हमने कभी सोचा ही नहीं कि जब तक इस जाति, उपजाति और धर्म के परजीवी अमरबेल पनपते रहेंगे, तब तक हमारे ख़ुशहाली के वृक्ष 'पीयराते' (पीला पड़ते) रहेंगे।
वैसे भी हमारे पुरखों के रिवाज़ या (अन्ध)-परम्परा या (कु)-संस्कृति को त्यागने में मेरी सभ्यता-संस्कृति नष्ट होने लगती है। तथाकथित बुद्धिजीवियों के मन खट्टे होने लगते हैं। हमारे पुरखों ने वर्षो पहले ही .. वर्षों तक तत्कालीन काम के आधार पर बाँटे गए समाज के कुछ जाति विशेष के कान में श्लोक के शब्द की ध्वनितरंग जाने भर से उनके कान में शीशा पिघला कर डालने की बात करते रहे थे और डालते भी रहे थे। ऐसा इतिहास बतलाता है। हम एक तरफ परम्परा(अन्ध) ढोने की बात करते हैं तो ये सब उसी कुत्सित मानसिकता का प्रतिफल है शायद।
अब जब किसी जाति, उपजाति या धर्म विशेष का आधिपत्य किसी भाषा, पहनावा या व्यंजन विशेष पर नहीं हो सकता तो ... फिर आज तथाकथित आज़ादी के बहत्तर साल बाद भी हम जाति, उपजाति और धर्म के नाम पर "आरक्षण" जैसा मुफ़्त का लंगर, भंडारा या भीख का आनन्द क्यों ले रहे हैं ???? ये या तो सभी आर्थिक रूप से जरूरतमंद को मिले या फिर ना मिले। आश्चर्य या तकलीफ तो तब होती है जब इन बहत्तर सालों के दरम्यान हमारी दो या तीन पीढ़ी भी इसका लाभ लेकर आज कल्फ़दार पोशाकों में चमकते हैं। अरे शर्म आनी चाहिए हम लोगों को। हमें स्वयं इसके विरूद्ध आवाज़ उठानी चाहिए कि हमको ये भीख नहीं चाहिए। हम सामर्थ्यवान हो चुके हैं। हमारे पिता जी, दादा जी सब इसका लाभ ले कर समकक्ष खड़े हैं समाज में।
अब जब तक एक तरफ हम मिथक पाले अपने आप को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चित्रगुप्त, विश्वकर्मा की तथाकथित औलाद यानि सुपर डीएनएधारी घोषित कर के स्टार्चयुक्त अकड़ में गर्दन अकड़ाते रहेंगें तो समाज आगे भविष्य में भी बँटा ही रहना है।
हमें मिलकर सोचना होगा कि - एक तो धर्म और जाति के नाम पर "भाषा" किसी की विरासत नहीं तो "आरक्षण" भी नहीं होनी चाहिए।
दूसरी ये कि जब तक ये मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे के आड़ में जाति, उपजाति और धर्म की आनुवंशिक परजीवी अमरबेल हम पनपाते रहेंगे, समाज में ख़ुशी के वृक्ष को नहीं पनपा सकते।

 भगवान, अल्लाह, ईसा, मंदिर, माजिद, गिरजा के नाम पर एक मिथक पाल कर क्या कर रहे हैं हम ????
अपनी भावी पीढ़ी को क्या परोस रहे हैं हम ???

भगवान है कि नहीं --- इसका सही उत्तर जानना हो तो पूछिए उस एक अबला लड़की से ... या उसके परिवार से जिसके साथ हाल में बलात्कार हुआ हो ।

सब मिल कर पूछिए ना उस से .... जाइए ....