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Sunday, December 15, 2019

अलाव ...

अलाव पहला जलाया होगा आदिमानव ने
हिंसक जंगली पशुओं से रक्षा की ख़ातिर
जब चिंगारी चमकी होगी अचानक पत्थरों से
अब भी यूँ तो जलते आए हैं अलाव हर साल
कड़ाके की ठंड से बचने की ख़ातिर
हर बार गाँव के खेतों-खलिहानों में
घर-आँगन और चौपालों में
होते हैं सरकारी इंतजाम इस के
कभी-कभी शहरी चौक-चौराहों पर
सार्वजनिक बाग़-बगीचे .. मुहल्लों में
तापते हैं जिसे वृद्ध-युवा, अमीर-गरीब
हिन्दू-मुसलमान सभी बिना भेद-भाव किए ...

पर जलते हैं अलाव और भी तो कई यहाँ
होते हैं मौके भिन्न-भिन्न .. तरीके भी कई-कई
मसलन ... दुःख से सिक्त किसी अपने की
लपलपाती लौ लिए चटकती चिता
या फिर ख़ुशी बटोरे आई होली के पहले
फ़ाल्गुनी पूर्णिमा की जलती होलिका
फिर कभी लोहड़ी के मचलते लौ संग नाच बल्ले-बल्ले
और साथ मिठास घोलती लाई और लावा
या फिर गाँव-शहर का हो रावणदहन
संग पहने आतिशबाज़ी का जामा
सेनाओं की उत्सवाग्नि हो या फिर ..
बलात्कार के बाद गला घोंटी हुई
या कराहती .. छटपटाती .. अधमरी-सी ज़िन्दा
सरे राह जलाई गई निरीह कोई बाला
कहीं यतायात बाधित करती उन्मादित भीड़
जलाए गए टायर .. उड़ता काला धुआँ
और सुना है ... विरहनी हो या बेवा कोई
तपता है मन-तन दोनों सुलगते अलाव-सा ...

जल चुके अब तक बहुत सारे अलाव यहाँ
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
अपनी सोयी सोचों को सुलगाते हैं
नए विचारों की लौ धधकाते हैं
अब आओ ना हम सब मिलकर ...
एक परिवर्त्तन का अलाव जलाते हैं
जलाते हैं उनमें बाँटते इन्सानों वाले
हर किताबों को .. इमारतों को ..
जबरन चन्दा वाले पंडालों को
बड़े-बड़े कँगूरों को .. ऊँची मीनारों को
अन्धपरम्पराओं को .. कुरीतियों को
जाति-धर्म के बँटवारे वाली सोचों को
हर पल .. हर घड़ी .. बाँटती है जो
एक ही क़ुदरत से बने हम इंसानों को ...