शहर की
सरकारी
या निजी
पर लावारिस,
कई-कई
दीवारों के
'कैनवासों' पर,
कतारों में
उग आए
कंडों पर
अक़्सर ..
कंडे थापती,
मटमैली
लिबास में,
बसाती
गीले
गोबर के
बास से,
उन
औरतों की
उकेरी गयी,
किसी कुशल
शिल्पी की
'मॉडर्न आर्ट'-सी,
पाँचों ही
उँगलियों की
गहरी छाप-से ...
उग आए
हैं मानों ..
भँवर तुहारे
दोनों ही
गालों पर,
मेरे होठों की
छाप से
उगे हुए,
आवेग में
ली गयीं
हमारी
गहरी
चुंबनों से
और ..
उम्र के साथ
उग आयी
हैं शिकन भी,
सालों बाद
माथे पर
तुम्हारे,
हमारे
प्यार की
तहरीर बन कर,
बिंदी को
तब तुम्हारी,
बेशुमार
चूमने से .. बस यूँ ही ...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 25 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteनमस्कार सर, कैनवास हो या ज़ेहन कुछ निशान तो जीवन भर के लिए रह जाते है। जो रिश्ते मन,आत्मा को छू ले वो भी यादगार ही होता है।
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार तुम्हारा .. इस बतकही की आत्मा को स्पर्श करने के लिए .. बस यूँ ही ...
Deleteबहुत सुंदर रचना,जीवन संदर्भ से जोड़ती इस छवि को आपने सार्थक बना दिया । लाजवाब।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ..
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ..
Deleteसुन्दर सृजन। बस यूं ही नहीं :)
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Delete.. बस यूँ ही ...☺☺ :)
ईश्वर प्रदत्त कलाकारी के लिए क्या कहना । सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Delete(पर क्षमाप्रार्थी .. ईश्वर प्रदत ना कह के, प्रकृति प्रदत कहें तो .. बस यूँ ही ...)
जी हमें ये कलाकारी कम पसंद आयी ।
ReplyDeleteयूँ लगा कि उनके कपोल गोबर समान जहाँ आप नक्काशी कर आये । कोई और बिम्ब न मिला ?
अब आप कितना ही सही ठहरायें , आपकी बात से सहमत नहीं हो पाऊँगी ।
मुझे तो लग रहा सारे में गोबर और कंडे बिखरे पड़े ।
बस यूँ ही
वैसे रचना का भाव बेहतरीन है ।
क्या खूब कहा ।
Deleteजी ! आभार आपका ...
Deleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
ReplyDeleteवैसे तो आपका विश्लेषण सिर-आँखों पर .. ☺☺ पर ..
(१) "जी हमें ये कलाकारी कम पसंद आयी ।" -
"कम" ही सही, पर पसंद आयी, यही इतना ही आपकी ज़र्रानवाज़ी है 🙏🙏
(२) "अब आप कितना ही सही ठहरायें , आपकी बात से सहमत नहीं हो पाऊँगी ।" -
अब आप कितना ही गलत ठहरायें , आपकी बात से सहमत नहीं हो पाऊँगा । 😃😃
(३)"मुझे तो लग रहा सारे में गोबर और कंडे बिखरे पड़े ।" -
नज़र से ना देख कर, अगर नजरिए से निहारेंगी तो .. शायद ...☺☺
(और आप गोबर को इस तरह हेय नज़र से नहीं देख सकतीं, अन्ततः उसी से हमारे तथाकथित गणेश भगवान जी बनते हैं 🙉🙉)
चलते-चलते एक बात और, पर पत्थर-गड्ढे वाले चाँद से तो हम अक़्सर सुन्दर चेहरे की तुलना करते थकते नहीं हैं क्योंकर.. बस यूँ ही ...)
गोबर को हेय नहीं समझ रही । बस रुखसार पर चुम्बन से पड़ी झुर्रियों की कल्पना गोबर से नहीं कर पा रही । रही चाँद की बात तो भले ही उसमें गड्ढे , पत्थर हों ,दिखता तो सुंदर है न ! गोबर भी सुवासित होता तो आपकी बात मान लेती ।
Deleteखैर .....कवि हृदय , चाहे जैसा सोचे ,
यूँ ही सा 😄😄
😅😅😅
Deleteअब आप तथाकथित प्रेमी की तथाकथित प्रेमिका का मज़ाक बना रहीं हैं .. उसके गालों के "भँवरों" को "झुर्रियाँ" बता कर 😢😢😢
चाँद कितना भी सुन्दर दिख जाए, पर "दूर से ही", और वो भी सूरज से उधार ली गई रोशनी से .. शायद ...
अब आप "दूर से ही" 😁😁, गोबर भी निहार कर कल्पना करेंगीं तो ... उसकी बुरी बास आपकी साँसों में नहीं समाएगी 😀😀😀😃😃😃 .. बस यूँ ही ...
( वैसे सच्ची-सच्ची कहूँ तो, आप से इस तरह की विश्लेषणात्मक वार्तालाप कर के, अच्छा लगता है .. और आपको 🤔🤔🤔 ).
ये भी खूब ।
Deleteजी ! आभार ...
Deleteवाह कंडे से भी इतनी खूबसूरत कल्पना की जा सकती है !! सच है कविमन का जवाब नही !
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार. 17 जनवरी 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी एक पुरानी बतकही को अपनी पाक्षिक प्रस्तुति में शामिल करने के लिए ...
Deleteप्रेम में हर शय खूबसूरत लगती है... कल्पनाओं के नभ पर खूबसूरती की परिभाषा के लिए प्रयुक्त कोई भी विशेषण मनोभावों की सच्ची अनुभूति होती है।
ReplyDeleteआपकी भावप्रवण रचना प्रेम के रस से भीगी लगी मुझे और कोई भी उपमा महसूस ही नहीं हुई।
सादर।
जी ! नमन संग आभार आपका .. आपके अपने अंदाज़ में की गयी विशेष यथोचित प्रतिक्रिया के लिए ...
Deleteगोबर के कंडों की आर्ट वह भी मॉर्डन माथे की झुर्रियां प्रेम के प्रतीक ...चुम्बन की शिकन!!!
ReplyDeleteवाह!!!
अद्भुत।
जी ! नमन संग आभार आपका .. बिम्बों को यथोचित स्पर्श करने के लिए ...
Deleteबेहतरीन अभिव्यक्ति,कवि मन कहीं भी कुछ ढूंढ लेता है
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसच कहूं तो रचना के समक्ष प्रस्तुत टिप्पणियों ने मन मोह लिया। गोबर की कहूं तो मैं किसान परिवार की बेटी हूं। और खेती किसानी का राजा है 😀😀🙏
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. टिप्पणियों से आपके मन को मोहने के लिए, पर आपकी टिप्पणियों के समक्ष तो सभी पनाह माँगते नज़र आते हैं .. शायद ...😊
Deleteअपने आप को किसान परिवार की बेटी तो बतला दिया पर बहू होने के बारे में नहीं ...🙏
जी सुबोध जी, मैं बहु भी किसान परिवार की ही हूं पर किसी को खेती करते अपनी आंखों से नहीं देखा। ससुर जी समेत घर के सभी पुरुष नौकरी करते हैं। यूं देखा जाए तो मेरे ससुरजी के पास मायके से तीन गुना से ज्यादा कृषि भूमिहै पर खेती बटाई, ठेके पर रहती है जबकि मेरे भाई खेती बाड़ी खूब कर रहे हैं वो भी नौकरी के साथ ही। मैंने। बचपन में खूब देखें हैं बैलों और ट्रैक्टर से जुताई और कटाई भी । अब भी भले जाऊं कुछ दिन के लिए खेत निहारने जरूर जाती हूं। और बाड़े के खूंटे पर भी गऊयें और भैंस बंधी हैं । जिनसे घर के दूध की बड़ी स्वास्थ्यवर्धक व्यवस्था है। जहां पशु वहां गोबर की महिमा अटूट है 😀🙏
Delete🙏 जी ! नमन संग आभार आपका .. हमारे एक सवाल से जनित आपके सार्वजनिक उत्तर द्वारा आपके सम्पूर्ण परिवार के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारियां मिली .. आपने जो शब्दचित्रण किया तो अनायास उपकार फ़िल्म का वो दृश्य के साथ वो गाना कानों में गूँजने लगा - "मेरे देश की धरती सोना उगले , उगले हीरे मोती ..." .. बस यूँ ही ...
Deleteवाह!
ReplyDelete