Thursday, December 7, 2023

पुंश्चली .. (२२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२१)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ - " क़ानून और एन जी ओ .. सही कह रहे तुम .. वैसे तो .. "

गतांक के आगे :-

समर - " वैसे तो .. एक बात हम कहें ? .. फिर आप बोलिएगा .. "

रेशमा - " जरूर .. "

समर - " हमारा चेहरा अभी नया है इस मुहल्ले में और हम वक़ील चाचा को जानते भी नहीं अभी और ना ही हमें वह .. इसीलिए हम टोके नहीं आप दोनों के बीच में वर्ना .. हम उनसे पूछते कि अगर अपने आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा से 'काउंट डाउन' के अंतिम चरण के बाद किसी भी अंतरिक्ष यान को 'लॉन्च' करते समय यदि वहाँ उपस्थित किसी वैज्ञानिक को छींक आ जाएगी तो .. क्या उस यान को रोक लेना चाहिए .. या क्या उस यान को फिर से 'प्लेटफॉर्म' पर हम लौटा लायेंगे कि फलां को छींक आ गयी है, जतरा ख़राब हो गया है, अभी थोड़ा रुक कर दुबारा 'लॉन्च' करेंगे। मतलब .. उसे वापस कर के फिर से 'काउंट डाउन' .. "

समर की इस बात को सुनकर रेशमा के साथ-साथ यहाँ उपस्थित सभी हँसने लगे हैं। समर भी इन लोगों की हँसी में शामिल होकर फिर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए रेशमा की प्रशंसा करते हुए बोल रहा है, कि ...

समर - " आप बिंदास हो कर किसी को उसकी दकियानूसी सोच पर जिस तरह बेहिचक टोक देती हैं .. अच्छा लगा हमको। हम भी तो कई बार लोगों को टोक पाते हैं और .. कई बार झेंप के कारण नहीं बोल पाते हैं। "

रेशमा - " तुम्हें लगता होगा कि मालूम नहीं सामने वाला बुरा मान जाएगा और तुमको बुरा-भला कहेगा या फिर उसके साथ तुम्हारे सम्बन्ध बिगड़ जायेंगे .. है ना ? "

समर - " हाँ ! .. बिल्कुल सही कह रही हो आप .. "

रेशमा - " पर .. यदि तुम्हारे मन के तराजू पर कोई भी तथ्य सही लगे तो .. बातें मन में नहीं रखनी चाहिए .. बक देनी चाहिए। समझे ? .. अगर नहीं बोलोगे तो .. मन में दबी-दबी वही बातें तुम्हारे दिल के दौरे का कारण बन जाएगी एक दिन .." 

अब प्रसंगवश अपने सभ्य समाज के एक आम प्रचलन की बात कर ही लेते हैं। अभी हम चर्चा कर रहे थे वक़ील चाचा की, तो .. वक़ील चाचा, दारोग़ा मामा, 'मजिस्ट्रेट' जीजा जी, प्रोफ़ेसर फ़ूफ़ा जी, 'टिचराइन' दीदी, नेता मौसा जैसे सम्बोधन हमारे बुद्धिजीवी समाज में आम हैं। इन तरह की परिस्थितियों में इंसान के नाम वाला या सम्बन्ध वाला संज्ञा गौण हो जाता है और उनके पद या व्यवसाय वाले विशेषण मुखर हो जाते हैं। दरअसल उनके पद को बातों-बातों में सम्बोधन के बहाने उभारने में स्वयं के और सामने वाले के अहम् को पोषण मिलता है .. शायद ...

रेशमा - " जाने भी दो ना समर .. तुम भला उस समाज से क्या अपेक्षा कर सकते हो .. जिस समाज में हरी मिर्ची और नींबू का उपयोग लोग अपने स्वास्थ्य और स्वाद के लिए खाने से भी कहीं ज्यादा प्रत्येक शनिवार को टोने-टोटके के लिए दरवाजे पर लटकाने में करते हैं .. "

समर - " वाकई .. और हर सप्ताह ही .. एक सप्ताह के बाद उसके टंगे-टंगे सूख जाने पर कचरे में फेंक देते हैं "

रेशमा - " समर .. हम भी तो इस समाज में कचरे की तरह ही तो ढोए जा रहे हैं ना ? .. तुम क़ानून और एन जी ओ की बात कर रहे थे ना अभी .. माना कि हमें .. युगों बाद मतदान का, शिक्षा का, रोजगार का और सामाजिक स्वीकार्यता का भी समान अधिकार दिया गया है। है ना ? .. और तो और .. पिछड़े वर्ग का आरक्षण भी दिया गया है। "

मयंक - " हाँ तो ! .. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किन्नरों को लिंग के तीसरे वर्ग के रूप में मान्यता देने के बाद से हमारा देश विश्व में ऐसा पहला देश बन गया है। "

समर - " तभी तो शबनम मौसी, किन्नर सोनम चिश्ती, मधु किन्नर जैसे कई किन्नरों को समाज के लिए अपना योगदान प्रदान करने का मौका मिला है। नहीं क्या ? .. "

शशांक - " कई सारे सरकारी और ग़ैर सरकारी संगठन आपलोगों के लिए दिन-रात सेवारत हैं। "

रेशमा - " वो सब तो ठीक है .. आप सभी सही बात बतला रहे हैं, पर .. आप बोलिए मयंक भईया कि .. आप लोगों को किसी भी 'मॉल', 'सिनेमा हॉल', 'स्कूल-कॉलेज', सरकारी या निजी कार्यालय जैसे सार्वजनिक स्थल या फिर किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में भी 'वाशरूम' के लिए 'ही' (HE) और 'शी' (She) के अलावा भी कोई तीसरी तख़्ती या 'बोर्ड' टँगी दिखी है क्या कभी ? "

रेशमा अपने 'डिस्पोजेबल कप' से चाय की आख़िरी घूँट को अपने मुँह में उड़ेलते हुए उस 'कप' को सामने ही पड़े 'डस्टबीन' में फेंक कर, फिर से अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए कह रही है ...

रेशमा - " कोलकाता में कुछ बसों को छोड़ कर पूरे देश भर के 'बस', 'ट्राम', 'डबल डेकर' जैसे सार्वजनिक परिवहनों में "केवल महिलाओं के लिए" की तरह "केवल किन्नरों के लिए" भी लिखा दिखता है क्या कहीं ? "

रेशमा के इन प्रश्नों के पूछे जाने पर यहाँ उपस्थित सभी निरूत्तर होकर रेशमा से अपनी नज़रें बचाने का प्रयास करते नज़र आ रहे हैं। 

रेशमा - " किसी से सुना या जाना भी है क्या कि .. अपने देश के किसी भी चुनाव क्षेत्र में महिला या किसी जाति विशेष के लिए आरक्षित 'सीट' की तरह किन्नरों के लिए भी कोई 'सीट' आरक्षित है ? है क्या ? "

मन्टू - " नहीं ... "

पास ही में कलुआ इनलोगों की बातों के विषय से आंशिक या पूर्णतः अनभिज्ञ पहले तो खड़ा-खड़ा .. फिर थक कर चुक्कु-मुक्कु बैठा, किसी चोटी की तरह, एक दूसरे में गूँथी हुई अपने दोनों हाथों की उँगलियों के गुँथे हुई हिस्से पर अपने सिर के पिछले हिस्से को टिका कर मुलुर-मुलुर सब का मुँह देखते हुए .. थोड़ी-बहुत .. कुछ भी बात अपने दिमाग़ में अँटाने की कोशिश कर रहा है। 

अचानक चाँद उसकी ओर देख कर रसिक चाय वाले को बोलता है कि ...

चाँद -" रसिक भाई ! .. आप दुकान बढ़ाने के बाद कलुआ को पढ़ने के लिए मयंक भईया के पास क्यों नहीं भेज देते हैं ? दो-चार अक्षर पहचानने लग जाएगा तो अपने भावी  जीवन का गणित भी समझ पाएगा। .. समझ रहे हैं न.  .. जो हम कहना चाह रहे हैं ? " 

अभी चाँद रसिक को नसीहत दे ही रहा है, तभी सरकारी बालिका विद्यालय की कुछ लड़कियों की एक टोली अपने स्कूल की ओर जाने के क्रम में सामने से गुजर रही है और उन्हीं में से एक छात्रा अपनी टोली से दो-चार क़दम आगे कुलेलें करते और चौकड़ी भरते हुए एक पुराने फ़िल्म का गाना गाती जा रही है ...

छात्रा - " पंछी बनूँ , उड़ती फिरूँ, मस्त गगन में ~~~ "

तभी रेशमा उस बच्ची के बोल के बाद उसके सुर में सुर मिलाते हुए अपनी सुरीली आवाज़ में उस का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करती है ...

रेशमा - " आज मैं आज़ाद हूँ, दुनिया की चमन में .. हिल्लोरी हिल्लोरी ..~~~ "

वह छात्रा मुस्कुराते हुए रेशमा की ओर मुड़ कर देख रही है। तभी रेशमा भी मुस्कुरा कर उस से प्यार से पूछती है...

रेशमा - " स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम का पूर्वाभ्यास तुम राह चलते कर रही हो ? .. आँ ?.. "

वह छात्रा झेंपती और सकुचाती-मुस्कुराती हुई और भी तेजी से आगे निकल जाती है।

समर - "अब चलना चाहिए अमर भईया .."

अमर - " हाँ .. चलो .. "

रेशमा - " इतनी जल्दी भी क्या है समर भाई .. थोड़ी देर और .. तुम्हें तुम्हारे पाठ्यक्रम में रामवृक्ष बेनीपुरी जी की एक रचना- "गेहूँ और गुलाब" पढ़ायी जायेगी, जो हमने पढ़ी है, जिसमें उन्होंने कभी ये लिख कर .. कि .. मानव-शरीर में पेट का स्थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की। " 

अचानक रेशमा की नज़र मयंक की ओर जाती है, जो उसी की ओर देख रहा है। उसे यह भान होता है कि दरअसल वह यही बात कई दफ़ा मयंक और शशांक के साथ भी कर चुकी है। वह इस विषय को बोलते वक्त प्रायः द्रवित हो जाती है। अभी भी वह .. 

रेशमा - " हम मानवों के पेट, हृदय और मस्तिष्क की चर्चा के साथ-साथ पशुओं से तुलना करने की कोशिश तो की जरूर है रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने, पर .. हमारे जननांगों की चर्चा तो नहीं की है एक बार भी। मतलब .. उनकी नज़रों में हम इंसानों के पेट, हृदय और मस्तिष्क ही हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक और मुख्य भी हैं और होनी भी चाहिए .. नहीं क्या ? "

समर - " हाँ .. बातें तो सही हैं .."

अक़्सर हर इंसान अपने पक्ष की बात होने पर, उसे विस्तारपूर्वक अविराम होते रहने देना चाहता है। वह बातों के वर्तमान सिलसिले के दौरान तत्क्षण अपने हर पहलू का विस्तार चाहता है।

रेशमा - " हमारे जन्मजात अविकसित जननांगों के कारण ही हम में एक संतानोत्पत्ति की क्षमता की ही तो कमी है। इस कमी में भी हमारा कोई दोष नहीं, वरन् यह एक क़ुदरती विज्ञान है, जिसकी त्रुटियों का ही यह प्रतिफल होता है .. हमारा अविकसित गुप्तांग या जननांग। वैसे भी तो हमारे देश की जनसंख्या आवश्यकता से अधिक है। ऐसे में अगर हमारे जैसे कुछ लोग बच्चे पैदा नहीं कर पाते हैं, तो इससे कौन सी आफ़त आ जायेगी .. हमारे समाज में .. हमारे देश में या .. इस धरती पर ? .. आँ ! .. "

शशांक - " कुछ भी तो नहीं .."

रेशमा - " एक कमी को छोड़ दें, तो .. इसके अलावा सभी कुछ तो है हमारे पास .. रामवृक्ष बेनीपुरी जी की भाषा में पेट, हृदय और मस्तिष्क .. तीनों ही है हमारे पास, तो फिर .. समाज में हमारी उपेक्षा की वज़ह ? .. वो भी ब्राह्मणों द्वारा समाज को गलत ढंग से बरगलाने की परम्परागत तरीके से कि .. हमारी यह स्थिति हमारे किसी पूर्व जन्मों के पाप का प्रतिफल है। सच में ऐसा है क्या मयंक भईया .. ? "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】