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Sunday, May 30, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-३).【अन्तिम भाग】.

हमारे देश भारत में पृथ्वी यानी धरती को हम धरती माता कह कर स्त्री का दर्जा देते आए है। उड़ीसा राज्य के कई भागों में लोगों की मान्यता है कि आषाढ़ मास में चौदह जून यानी आषाढ़ संक्रान्ति के दिन से चार दिनों तक भूदेवी (पृथ्वी/धरती माता), जो इनकी मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु की पत्नी हैं, रजस्वला होती हैं। इस चार दिनों के दौरान खेतीबारी, बुआई, कटाई जैसे जमीन से जुड़े सारे काम बन्द कर दिए जाते हैं, ताकि उनकी मान्यताओं के अनुसार भूदेवी को आराम दे कर वे लोग खुश रखना चाहते हैं। सामान्यतः स्त्री रजस्वला होने के बाद से ही संतानोत्पत्ति में सक्षम हो जाती है। इसीलिए उन चार दिनों के बाद ही वे लोग खेतों में बीज डालते हैं, ताकि उनकी फसल की पैदावार अच्छी हो। स्थानीय लोग यह चार दिन त्योहार के रूप में मनाते हैं और इस रज पर्व को अपनी उड़िया भाषा में "रजो पर्व" कहते हैं।

इस रजपर्व में पहला दिन रज, दूसरा दिन मिथुन संक्रांति, तीसरा दिन बासी-रज कहलाता है। सजावट, गीत-संगीत (सोजा-बोजा) से शुरू होकर चौथे दिन वासुमति स्नान (गाधुआ) अर्थात भूदेवी स्नान के बाद इस पर्व का समापन होता है। इन चारों दिन बालिकाओं, युवतियओं और वयस्क महिलाओं की भी तो मानो बहार-सी छायी रहती है। घर के कामों से इनकी छुट्टी रहती है। वे लोग मेंहदी-आलता से सज-सँवर कर नए-नए कपड़े पहनती हैं। कई स्थानों पर तो खाना बनाने तक का काम उन चार दिनों में पुरुषों को ही करना पड़ता है। महिलाएँ घर का काम बंद कर के झूला झूलती हैं, खेल-मस्ती करती हैं। इन दिनों पीठा और चाकुली पीठा जैसा स्थानीय व्यंजन मुख्य खाना होता है। छेना पोडा, कनिका जैसे पकने में ज्यादा समय लगने वाले मीठे पकवान पर्व के पहले ही बना कर रख लिए जाते है। पाँचवे दिन महिलाएँ सिर/बाल धोकर ही किसी भी शुभ मांगलिक कार्य में शामिल होने लायक ख़ुद को पाती हैं। लब्बोलुआब ये है कि इनके आषाढ़ के वो चार दिन मस्ती भरे होते हैं .. शायद ...

आज भी परंपराओं के नाम पर असम के ही बंगाईगाँव ज़िला (बोंगाईगाँव) के सोलमारी गाँव में किसी भी लड़की को पहली बार रजस्वला होने पर उस लड़की की पहले दिन ही किसी केले के पेड़ से शादी करवा कर किसी भारतीय विवाह की तरह जश्न मनाया जाता है। इस अनोखी शादी को वे लोग "तोलिनी शादी" कहते हैं। इस अंधपरम्परा का बुरा पक्ष भी है कि लड़की को केले के पेड़ से शादी करवाने के बाद उस को ऐसे कमरे में बंद कर दिया जाता है, जहाँ सूरज की रोशनी ना आती हो और उस दौरान वह किसी का चेहरा तक भी नहीं देख सके। भोजन के नाम पर केवल कच्चा (बिना उबला) दूध और फल दिया जाता है, क्योंकि उस अवधि में पका हुआ खाना उनके अनुसार उस लड़की के लिए निषेध होता है। उसको रक्तस्राव बन्द होने के बाद नहा-धोकर (सिर-बाल) तथाकथित शुद्धिकरण होने तक जमीन पर ही सोना भी उसकी दिनचर्या में शामिल होता है। यह हमारे समाज की विडंबना ही है कि जिस अनूठी प्राकृतिक प्रक्रिया के लिए लड़कियों या स्त्रियों को गर्व महसूस करनी चाहिए, उसी से उन्हें हमारी दोहरी मानसिकता वाले समाज के सामने झेंपना पड़ता है .. शायद ...

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों  (दोनों का सयुंक्त रूप- पुराना आंध्र प्रदेश) के अधिकांश हिस्सों में जब किसी लड़की को पहली बार माहवारी आता है, तो इसके ग्यारह दिनों के बाद ... "पुष्पवती महोत्सवम्" (खिले हुए फूल का उत्सव) नामक एक समारोह का आयोजन किया जाता है। वह हमारे किसी भारतीय शादी-विवाह के आयोजन जैसा ही आडंबरयुक्त और खर्चीला होता है, जो परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के साथ सम्पन्न होता है। परन्तु इसका बुरा पक्ष यह है कि इस चक्कर में उस किशोरी की ग्यारह-बारह दिनों की स्कूल की पढ़ाई छुट जाती है। माहवारी के अगले पाँच से ग्यारह दिनों तक उनकी मान्यताओं के अनुसार उस लड़की को नहाने की अनुमति नहीं होती है। जब कि वैज्ञानिक तौर पर इस दौरान नहाना बेहद जरूरी होता है क्योंकि इससे संक्रमण का भय कम होता है। संक्रमण से बांझपन या अन्य कई बीमारियों के होने का भी खतरा रहता है और दूसरी तरफ नहाने से मनोदशा भी अच्छा होता है। साथ ही इस दौरान होने वाली पेट-शरीर के ऐंठन में भी आराम मिलता है। उसे घर में एक तय जगह पर अपनी आवश्यक दिनचर्या की चीजों के साथ रहना होता है। इन दिनों उसका शौचालय भी अलग होता है, ठीक किसी कोरोनाग्रस्त मरीज के स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के जैसा। इस दौरान शारीरिक-हार्मोनल के अलावा और भी कई तरह के बदलाव होते हैं, जिस से कमर और पेट में दर्द, उल्‍टी होना, चक्‍कर आना और पैरों में दर्द आदि लक्षण उभर कर सामने आते हैं। ऐसे में उसे परिवार से अलग-थलग रहने पर अनचाही मानसिक पीड़ा और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है .. शायद ...

जैसा कि माना जाता है कि हमारा देश विविधताओं से सम्पन्न देश है, तो एक ओर जहाँ केरल के सबरीमाला मंदिर में सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट/Supreme Court) की अनुमति के बाद भी आज तक दस साल की लड़की से लेकर पचास साल तक की महिला का प्रवेश वर्जित है। कारण है- वही हमारी अंधपरम्परा, विकृत धार्मिकता अंध-आस्था  और अंधविश्वास वाली सामाजिक मान्यताएँ, जिसके अनुसार इन उम्रों में लड़कियाँ या महिलाएँ अपने मासिक धर्म चक्र के कारण रजस्वला (रजवती/ऋतुमती) होने से अशुद्ध हो जाती हैं। परन्तु दूसरी तरफ हमारे ही देश के असम राज्य के कामाख्या मन्दिर में कोई भी रजस्वला लड़कियाँ या महिलाएँ अपने मासिक धर्म के दौरान भी प्रवेश कर के पूजा सम्पन्न कर सकती हैं।

सर्वविदित है कि हिन्दू धर्म की पौराणिक कथाओं के अनुसार तथाकथित भगवान विष्णु द्वारा अपने सुदर्शन चक्र से देवी माता सती/दुर्गा के इक्यावन भागों में अंग-भंग करने पर देवी का योनि-भाग कामाख्या में गिरा था। असम की राजधानी दिसपुर जो कि इस राज्य के महानगर- गुवाहाटी (गौहाटी) का ही एक हिस्सा है और इसी गौहाटी शहर से लगभग दस किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित कामख्या शक्तिपीठ मन्दिर में हिन्दू मान्यताओं के तहत देवी सती के उसी तथाकथित कटे योनि-भाग की पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ वर्ष के आषाढ़ महीने में हर वर्ष चार दिनों के लिए लगने वाले अंबुवाची मेला के दौरान लोकमान्यता के अनुसार तीन दिनों के लिए बाईस से पच्चीस जून तक माता रजस्वला होती हैं। जिस कारण से कामाख्या मंदिर उन तीन दिनों के लिए बंद रखा जाता है। चौथे दिन, छ्ब्बीस जून को माता को नहला कर तथाकथित शुद्धिकरण के बाद आस्थावान भक्तगणों के दर्शन के लिए खोल दिया जाता है। यह कामाख्या मंदिर का आषाढ़ के वो चार दिन वाला सबसे बड़ा अनुष्ठान-उत्सव माना जाता है।

सर्वविदित है कि हमारे देश में नवरात्री के अवसर पर या अन्य कई अनुष्ठानों के दौरान कुँवारी कन्याओं की पूजा की जाने की परम्परा है। बजाप्ता उनके पाँव पखारे जाते हैं, पाँव छुए जाते हैं। पर यहाँ "कुँवारी" का अर्थ मैं निजी तौर पर "अनब्याही" लड़की समझता आया था गत वर्ष तक। मेरी यह अनभिज्ञता शायद पूजा-पाठ जैसे आडम्बरों में लिप्त नहीं रहने के कारण हो सकता है। पर गत वर्ष .. बस यूँ ही ... एक विचार-विमर्श के तहत एक जानकार से यह जान कर हैरान हो गया कि "कुँवारी" कन्या का मतलब उन लड़कियों से है, जो अभी तक पहली बार रजस्वला नहीं हुई हैं। इसमें हमें सब से हैरान करने वाली बात यह लगी थी कि जब कोई लड़की प्राकृतिक अनूठे वरदानस्वरुप पहली बार रजस्वला हो कर मानव नस्ल की कड़ी रचने के लिए सक्षम होती है; तब वह पूजने के लायक क्यों नहीं रह जाती है भला !? ...

कैसी बिडंबना है कि जो प्रक्रिया हमारे जीवन की कीमियागरी का आँवल है, हम उसी की खुल कर चर्चा करने से कतराते नज़र आते हैं। ठीक अपनी उस दोहरी मानसिकता की तरह, जिसके तहत हम जिस के लिए अक़्सर "गन्दी बात" कह कर मुँह बिचकाते हैं; उसी "गन्दी बात" के कारण विश्व में जनसंख्या के मामले में शिखर पर रहने वाले हमारे एक पड़ोसी देश के साथ होड़ लगाते हुए अपने देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ा कर अपनी भावी नई पीढ़ियों के लिए उनके भावी जीवन को दुष्कर से भी दुष्कर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं .. शायद ...

यूँ तो इस तरह वेब पन्नों को अपनी बकबक से भर कर सोशल मीडिया पर चिपकाने से जरूरतमन्द समाज में बदलाव तो नहीं आ सकता, बल्कि बहुत सारे एनजीओ या सरकारी संस्थानों के अलावा कई लोगों के निजी तौर पर आगे बढ़ कर बुनियादी तौर पर हाथ बढ़ाने से परिदृश्य कमोबेश बदल रहा है। फिर भी अपने देश-समाज के अधिकांश हिस्सों में, जहाँ पर सैनिटरी नैपकिन से महिलाएँ आज भी या तो अन्जान हैं या फिर जानते हुए भी पुराने कपड़ों से काम चलाने के लिए मज़बूर हैं; इस दिशा में अभी भी बहुत काम किए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहली आवश्यकता है कि इस विषय पर खुल कर आपस में बात करने की; क्योंकि यह ना तो शर्मिदगी का विषय है और ना ही छुपाने का। आपस में बात करने से इसके लिए जो कुछ भी सामाजिक भ्रांतियां व मिथक हैं, वो दूर होंगी। मासिक धर्म को लेकर जब सब की चुप्पी टूटेगी, तो इस से जुड़ी वर्जनाएँ भी टूटेगी और गाँव-मुहल्ले की झेंपने वाली महिलाएँ और पुरानी सोच और बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं की कमी के कारण झेलनेने वाली महिलाएँ भी जागरूक होंगीं और उन दिनों में उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। इसके लिए हमें जागरूक होकर समाज को भी जागरूक करना होगा .. शायद ...

काश ! .. हमारा समाज रजस्वला लड़कियों या महिलाओं के मामले में सबरीमाला मन्दिर के नियम की तरह रूढ़िवादी होने के बदले कामाख्या मन्दिर के नियम जैसी उदार मानसिकता अपना पाता .. बस यूँ ही ...


Saturday, May 29, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२).

प्रायः किसी भी शहर की जीवन शैली (Life Style) के आधुनिकीकरण की रफ़्तार बहुत हद तक वहाँ की प्रवासी आबादी (Migrant Population) की मिलीजुली जीवन शैली से प्रभावित होती रहती हैं। चाहे उस प्रवास का कारण- किसी प्रकार का उपनिवेशवाद हो या उस शहर के कल-कारखानों या अन्य संसाधनों से मिलने वाले रोजगार के अवसर हों या फिर कोई और भी अन्य अवसर। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद इत्यादि जैसे कई महानगरीय क्षेत्रों (Metropolitan City) के अलावा झारखण्ड के बोकारो, जमशेदपुर (टाटानगर), पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर, छत्तीसगढ़ के भिलाई इत्यादि जैसे तमाम शहर भी इसके प्रमाण हैं .. शायद ...

पर वर्तमान में प्रवासी आबादी की मिलीजुली जीवन शैली के प्रभाव की कमी को टेलीविजन जैसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) और सोशल मीडिया (Social Media) भी पूरी करती नज़र आती हैं। जिससे छोटे से छोटे मुहल्ले-गाँव-क़स्बे तक की जीवन शैली के आधुनिकीकरण ने आसानी से पाँव पसारने की कोशिश की है। इसमें सहयोग करने के लिए या यूँ कहें कि इन सब से अपना स्वार्थ साधने के लिए कई राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों ने भी अपने उत्पादों के एक रूपये से लेकर पाँच-दस रूपये तक के पाउच पैकिंगों (Pouch Packing) से बाज़ारों को सजाया है; ताकि इस भौतिक आधुनिकीकरण की होड़ में छोटे-मंझोले इलाकों के न्यूनतम से न्यूनतम आय वाले भी शामिल हो कर आधुनिकीकरण की आभासी तृप्ति पा सकें और किसी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की तरह दूसरी ओर कम्पनियाँ भी मालामाल हो सकें .. शायद ...

परन्तु किसी महानगरीय क्षेत्र में रह कर इन भौतिक आधुनिकीकरण के बावजूद भी बहुधा हम मानसिक रूप से उसी समाज की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते पाए जाते हैं, जिस पैतृक समाज से हम संबद्ध होते हैं। यही कारण है कि आज भी गाँव तो गाँव, कई महानगरीय क्षेत्रों में भी कई दवा दुकानों या जेनरल स्टोरों (General Stores) पर कई ग्राहकों (स्त्री, पुरुष दोनों ही) को दुकानदार के हाथों में अपने किसी मनचाहे सैनिटरी नैपकीन (Sanitary Napkins) के ब्रांड (Brand) के नाम लिखे हुए एक कागज़ के टुकड़े की पुड़िया थमा कर, उससे अख़बार में लिपटा हुआ सैनिटरी नैपकीन सकुचाते हुए लेते देखा जाता है .. शायद ...

बचपन में तब तो ये बातें समझ से परे होती थीं, जब घर की कोई महिला अभिभावक किसी अन्य हमउम्र या छोटे सदस्य को ये बोलते सुनी जाती थीं कि - "फलां ! .. जरा खाने के लिए मर्तबान से अचार निकाल दो।" या "फलां ! .. जरा-सा दो-चार दिनों तक सुबह-शाम तुम ही पूजा-घर में दिया जला देना। कुछ दिनों तक हम नहीं छू सकते।" .. और ... यह सिलसिला लगभग हर महीने चार-पाँच दिनों तक देखने-सुनने के लिए मिलता था। बाल-मन उलझन महसूस करता कि आख़िर इस नहीं छूने की वज़ह क्या हो सकती है? तब खुद के बीमार होने की बात जैसा कुछ गोलमोल जवाब दे कर चुप करा दिया जाता था। जैसे .. अक़्सर चुप करा दिया जाता था, जब घर में किसी नन्हें मेहमान के आगमन होने पर घर के हम छोटे बच्चे बड़ों से ये पूछते कि "ये छोटा शिशु कहाँ से आया है ?" .. तो बड़े हँसते हुए बतलाते कि .. "चाची या भाभी के पेट में जो बड़ा-सा घाव (गर्भ) होने से पेट बड़ा-सा हो गया था ना ... तो उसी का ऑपरेशन करवाने अस्पताल गई थी .. तो वहीं से ले कर आई हैं।" पर आज सभी समाज-गाँव-शहर में  शत्-प्रतिशत तो नहीं, पर .. अधिकांश जगहों पर परिदृश्य बदल चुका है। अब आज तो घर के छोटे-बड़े हम सभी एक साथ घरों में बैठ कर इत्मिनान से टेलीविजन पर विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने मनपसन्द कार्यक्रमों को देखते हुए, बीच-बीच में आने वाले कई-कई सैनिटरी नैपकिनों या कंडोमों के कई ब्रांडों के रोचक विज्ञापन सहज ही देखते रहते हैं। साथ ही हमारे साथ हमारी नई पीढ़ी की उपज कई सीरियलों में प्रेम-दृश्यों के भी अवलोकन बख़ूबी करती हैं और उसको समझती भी हैं .. शायद ...
फिर भी .. आज भी कई बार भूलवश या असावधानीवश किसी लड़की या स्त्री के पोशाक के पीछे की ओर उन दिनों वाले रक्त के दाग़ किसी राह चलते मनचले को दिख जाए तो .. उनकी फूहड़ फब्तियों का सबब बन जाता है और कुछ दोहरी मानसिकता वालों के लिए कुटिल मुस्कान का साधन। जब कि हमारी सोच टेलीविजन पर अक़्सर उस डिटर्जेंट पॉवडर (Detergent Power) विशेष के विज्ञापन के तर्ज़ पर ये होनी चाहिए कि - "कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं।" .. शायद ...

अब भले ही जर्मनी के किसी 'वॉश यूनाइटेड' नामक एनजीओ ने सन् 2014 ईस्वी में अठाईस मई को पूरी दुनिया में हर वर्ष "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाने के सिलसिला की शुरुआत की हो, परन्तु हमारे भारत के कई राज्यों में सदियों से इस दिवस को त्योहार के रूप में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। हालांकि उनके स्वरुप अपनी मूल भावना से भटक कर अंधपरम्परा, विकृत धार्मिकता, अंध-आस्था  और अंधविश्वास की दलदल में अपभ्रंश हो चुके हैं .. शायद ...

वैसे तो आज भी कई समाज में घर की किसी लड़की को पहली बार रजस्वला होने पर इस बात को छिपाया जाता है। इसके बारे में हम खुलकर बात नहीं कर पाते, बल्कि ... फुसफुसाते हैं। वहीं हमारे देश के कुछ हिस्सों में रजस्वला की शुरुआत का जश्न मनाया जाता है। अपने देश में कहीं-कहीं इस आर्ताचक्र, रजचक्र, मासिक चक्र, ऋ़तुचक्र या ऋतु स्राव के नाम पर त्योहार भी मनाया जाता है। पर समाज के अधिकांश हिस्सों में आज भी इन शाश्वत और जीवनाधार विषयों पर इस तरह से खुल के बात करनी वर्जित है। आज भी कई बुद्धिजीवियों के बीच, ऐसा करने वालों को बुरी मानसिकता का इंसान माना जाता है या यूँ कहें कि ऐसी बातों की चर्चा या चर्चा करने वाला व्यक्ति जुगुप्साजनक माना जाता है .. शायद ...
                                                       ख़ैर ! .. फ़िलहाल तो .. कुछ समझदार लोगों को जुगुप्सा करने देते हैं और ... फिर तनिक विश्राम के बाद पुनः उपस्थित होते हैं, इसके अगले और आख़िरी भाग- "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-३)" के साथ .. बस यूँ ही ...



Friday, May 28, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-१).

प्रकृति प्रदत्त पदार्थों-जीवों का कुछ-कुछ जाना हुआ और कुछ-कुछ अभी भी अंजाना-अनदेखा-सा समुच्चय भर ही तो है हमारा समस्त ब्रह्माण्ड .. शायद ... तभी तो शायद हमारे पाषाणकालीन पुरख़े भी प्रकृति की शक्ति को नमन करते होंगे। कालान्तर में पुरखों की बाद की कड़ियों ने इसी शाश्वत सत्य- प्रकृति का मानवीकरण करते हुए भगवान को गढ़ना शुरू कर दिया होगा। हमारे पुरख़े आग, पहिया, कृषि इत्यादि की प्राप्त जानकारी या ख़ोज के साथ अलग-अलग भौगोलिक परिवेशों में कई-कई क्षेत्रों में कई-कई प्रकार के अलग-अलग खोजों के साथ विकास करते हुए पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में आज यहाँ तक पहुँचे हैं और भविष्य में खोज निरन्तर जारी भी रहनी है .. शायद ...

इसी प्रकृति की देन हम मानवों की शारीरिक संरचनाओं में कुछ पूरक अन्तरों के आधार पर ही मूलतः दो जातियों- (अभी फ़िलहाल तीसरी जाति- किन्नरों की बात नहीं करें तो)- स्त्री-पुरुष, औरत-मर्द, मादा-नर का जमघट ही तो है हमारी पृथ्वी पर। इसी प्रकृति ने स्त्री जाति को पुरुष जाति से इतर गर्भाधान की एक पीड़ादायक पर अनमोल-अतुल्य शक्ति प्रदान की है, जिस से वह हम मानव की दोनों जातियों की नस्लों की कड़ी रचती है। उम्र की जिस देहरी पर स्त्री जब अपनी बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए इस प्रकृति प्रदत्त वरदान हेतु सक्षम होने के लिए अग्रसर होती है, तभी देह के दरवाज़े पर अनायास एक अन्जानी-सी दस्तक होती है और ... बचपन के अल्हड़पन में ख़लल डालने वाली उसी दस्तक को मासिक धर्म, रजोधर्म, माहवारी या महीना (Menstural Cycle, MC या Period) कहते हैं .. शायद ...

सर्वविदित है कि आज अठाईस मई को पूरी दुनिया में "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाया जाता है; जिसका आरम्भ जर्मनी के एक एनजीओ (NGO-Non-Governmental Organization)-  वॉश यूनाइटेड (Wash United) ने सन् 2014 ईस्वी में किया था। इसके अठाईस तारीख़ को ही मनाने का कारण शायद मासिक घर्म के चक्र का अठाईस दिनों का होना है। इसको मनाने का उद्देश्य लड़कियों या महिलाओं को महीने के उन पाँच दिनों में स्वच्छता और सुरक्षा के लिए विश्व स्तर पर जागरूक करना था या है भी .. शायद ...

यूँ तो यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जिसके तहत दस से पन्द्रह साल की आयु के मध्य लड़कियों के अण्डाशय (Ovary) में एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन (Estrogen & Progesterone) नामक हार्मोन (Hormone) उत्पन्न होने के कारण अण्डाशय हर महीने एक विकसित डिम्ब (अण्डा/Egg) उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अण्डा, अण्डाशय को गर्भाशय (Uterus) से जोड़ने वाली अण्डवाहिका नली (फैलोपियन ट्यूव/Fallopian tube) के द्वारा,  गर्भाशय में जाता है। जिसको अण्डोत्सर्ग (ओव्यूलेशन/Ovulation) कहते हैं। इसी दौरान गर्भाशय रक्त युक्त झिल्ली की एक ताज़ी परत बनाता है, जहाँ उसका अस्तर रक्त और जैविक तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है ताकि अण्डा उर्वरित हो सके और शिशु के रूप में विकसित हो सके। इसी डिम्ब का किसी पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न होने पर यह, गर्भाशय की रक्त युक्त झिल्ली जिसका उपयोग नहीं होता है, के साथ एक स्राव बन कर योनि से निष्कासित हो जाता है। जिसको मासिक धर्म कहते हैं, जिस दौरान तीन से सात दिनों तक में लगभग बीस से साठ मिलीलीटर रक्तस्राव होता है। इसके एक बार आरम्भ होने के बाद हर महीने सामान्यतः अठाईस दिनों के बाद इसकी पुनरावृत्ति होती है, जो प्रायः गर्भवती के गर्भकाल में या रजोनिवृत्ति शुरू होने के बाद ही रूक पाती  है।

बहरहाल हम भी रुक कर विश्राम कर लेते हैं और आप भी और .. इसके अगले भाग "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२)" के साथ मिलते हैं .. बस यूँ ही ...