सदा पुष्पगुच्छ से अछूते,
मंदिरों के दर तक ना पहुँचे कभी।
ना साज सज्जा में कभी गुँथे,
ना मज़ारों के चादर भी बने कभी।
गुण तो कुछ-कुछ हैं भी इनमें मगर,
सहज उपलब्धता ही हो बनी
सम्भवतः कारण इनके उपेक्षित होने की।
यूँ तो कुछ-कुछ ही नहीं,
हैं सर्वदा कई-कई गुण भरे हुए औषधीय इनमें,
भूल बैठे हैं जिन्हें हम मनुज ही
कदाचित् बन कर आधुनिक और ज्ञानी अति।
सुगंध सोंधी-सी भी है इनमें,
मगर आँखें मूँदने तक घुल सकें किसी की भी
नम .. नर्म-गर्म साँसों में,
ऐसी घड़ी ना आयी है और ना आएगी कभी .. बस यूँ ही ...
अवगुण या वजह भला मान भी लें कैसे
इनसे लिपटे काँटों को,
हम सभी के इनसे किनारे करने की।
भरी पड़ी तो यूँ होती ही हैं,
जबकि काँटों से टहनियाँ सारी की सारी
दुनिया भर के गुलाबों की।
'पोनीटेल', जुड़े या वेणी तक भी भला
कब हो पाती है पहुँच उपेक्षित-से इन
राईमुनिया या सत्यानाशी के फूलों की !?
और .. जानम ! ..
जनम-जनम ..
हम .. इन्हीं उपेक्षित
राईमुनिया और सत्यानाशी की तरह ही
साधन मन मचलन का तुम्हारे
बन ना पाए हैं और बन ना पाएंगे भी कभी .. बस यूँ ही ...
जी सुबोध जी,इंसानों की तरह हर फूल पौधे का भी एक नसीब होता है ।हर कोई हरजगह या कहें हर इन्सान हर इन्सान के लिए नहीं होता शायद और ना हो सकता है।बहुत रोचक और गहन अभिव्यक्ति समेटे रचना के लिए बधाई और आभार 🙏
ReplyDeleteजी ! रेणु जी ! नमन संग आभार आपका .. लोग कहते हैं ना कि - "जहाँ ना पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि" .. और हम कह रहे हैं कि - "जहाँ ना जाए प्रतिक्रिया वाला पाठक, वहाँ भी जाएँ रेणु जी" .. बस यूँ ही ...😀😁😀
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