Thursday, February 29, 2024

पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)"  से  "पुंश्चली .. (३३)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :- 

बाकी लोग खाली जगह देखकर सुविधानुसार स्थान ग्रहण कर रहे हैं। अभी रेशमा और मन्टू 'वाश बेसिन' में हाथ धो ही रहे हैं, तब तक होटल से बाहर .. कचहरी प्रांगण में किसी के कुहंक-कुहंक कर रोने की आवाज़ के साथ-साथ बहुत सारे लोगों की आवाज़ सुनायी देने लग गयी है। रेशमा सब को बैठने का इशारा कर के शोर की ओर बढ़ चली है। पीछे से मन्टू भी, कि .. आख़िर हो क्या गया है अचानक से ...

गतांक के आगे :-

कुहंक-कुहंक के रोने वाली आवाज़ और उसको संगत करती आसपास इकट्ठी भीड़ से ऊपजी शोर भरी आवाज़ की ओर रेशमा और मन्टू के बढ़ते तेज क़दम शीघ्र ही वहाँ तक पहुँच गए हैं। वहाँ रोने वाला इंसान चारों तरफ से भीड़ से घिरा हुआ है। फिर भी उत्सुकतावश दोनों ही कुछ क्षण में ही भीड़ को लगभग चीरते हुए उस रोते-कलपते इंसान तक पहुँच गए हैं, जो अपनी कृशकाय ठठरी मात्र काया के सीने को पीट-पीट कर किसी लाचार की तरह कभी आसमान की तरफ कातर डबडबायी निग़ाहों से देख कर तो .. कभी भीड़ की तरफ देख-देख कर विलाप कर रहा है। उसका सारा कमजोर शरीर काँप रहा है, मानो इस बुद्धिजीवी समाज में आज भी किसी प्रसिद्ध तीर्थस्थल पर अवस्थित तथाकथित माता की मूर्ति के समक्ष बनी हुई .. किसी बलिवेदी पर .. नहलाए गए और सिन्दूर-रोली, मृत फूलों की माला व अक्षत् से सजा कर किसी निरीह बकरे की गर्दन ज़बरन जकड़े जाने से उसका सम्पूर्ण शरीर काँपता है और उसके हाड़ के अंदर की धुकधुकी बढ़-सी जाती है ।

रेशमा अपनी संवेदनशीलता के कारण पनपी समानुभूति के वशीभूत होकर उस इंसान के और भी क़रीब चली गयी है .. उसके रोने की वज़ह जानने के लिए तो .. अचानक ही चिहुंक कर बोल पड़ी है ..

रेशमा - " अरे !! .. अरे मन्टू भईया ! .. ये तो माखन चच्चा ("पुंश्चली .. (७)") हैं .. "

मन्टू - " हाँ .. हाँ .. ये तो .. " 

माखन चच्चा के एक कँधे पर आहिस्ता से अपनी एक हथेली रखते हुए, उनसे दयाभाव के साथ मन्टू पूछ रहा है - 

मन्टू - " क्या हुआ माखन चच्चा ? .. आपके मंगड़ा का कोई फैसला आया है क्या ? .."

रेशमा माखन चच्चा के उत्तर के लिए उन्हीं की ओर अपनी नज़रें टिकायी हुई है। रेशमा और मन्टू .. दोनों ही पहचान चुके हैं, कि ये वही माखन चच्चा ही हैं, जो .. रसिक चाय दुकान पर अक़्सर असगर के साथ सुबह-सुबह मुहल्ले के वक़ील साहब और उनके पेशकार से आकर मिला करते थे .. विशेषकर .. कचहरी में उनके गूँगे बेटे- मंगड़ा पर चल रहे 'केस' की सुनवाई होने वाले दिन। 

'केस' तो .. आपको याद ही होगा .. शायद ... कि .. माखन पासवान के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर .. गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने के साथ-साथ उसकी हत्या के आरोप में कुछ महीने से ये 'केस' चल रहा है। जिसके मकड़जाल में माखन की झोपड़ी और झोपड़ी भर ज़मीन तक बंधक है सरपंच के पास। अगर ये जमीन बंधक नहीं होती तो .. उसको बेचकर कुछ और रुपया हासिल किया जा सकता था, जिसे वह इस 'केस' के अलाव में झोंक सकता .. जिसकी आग से वक़ील साहब के साथ-साथ इस 'केस' से जुड़े सारे लोगों को और भी सुखद ताप मिल पाता और माखन को अपने एकलौते बेटे के बचने की और भी उम्मीद बढ़ जाती।

मंगड़ा भले ही गूँगा है, पर जेल जाने से पहले तक सरपंच के खेतों या घर में खट कर अपने बाबू जी (माखन) और माय (माँ) के साथ-साथ अपने लिए कुछ-कुछ उपार्जन कर ही लेता था। कभी बासी खाना, कभी मालिक लोगों के घर के सदस्यों के उतरन कपड़े, चप्पल और कभी-कभी तो बिल्ली द्वारा मुँह लगाए हुए दूध या दूध से बने व्यंजन भी मिल जाया करता था। कभी कोई तीज-त्योहार या पारिवारिक काज-परोजन होने पर और ऐसे मौकों पर आये मेहमानों से नेग के नाम पर कुछ नक़दी की भी प्राप्ति हो जाया करती थी .. जो ज़रूरत पड़ने पर मंगड़ा की माय की बीमारी में लग जाता था। 

मन्टू के पूछने पर .. माखन पासवान कुछ दूरी पर खड़े वक़ील साहब और उनके पेशकार की ओर इशारा करते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं।

माखन चच्चा - " सब हाकिम लोग कह रहे हैं .. कि आज .. हमरे (हमारे) मंगड़ा के 'केस' की आख़िरी सुनवाई है बेटा .." - और भी ज्यादा रुआँसा होते हुए - " पर उसके बचने की उम्मीद नहीं है .. हम अपना बेटा खो देंगे आज .. एकलौता सहारा हमसे छीन जाएगा .. "

मन्टू उसके दोनों कंधों पर अपनी दोनों हथेलियों से दबाव बनाते हुए अपनी ओर से ढाढ़स बंधाने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में माखन और भी जोर से हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगा है। मानो रेत की भीत को सहारे के वास्ते जितनी ही टेक लगायी जाए, तो वह और भी उतनी ही ज्यादा तेजी से सरक कर जमींदोज़ हो जाती है।

माखन नाउम्मीदी में कहने के लिए तो हाकिम लोगों की कही बातों को दुहराते हुए विलाप कर तो रहा है, पर उसके मन एक कोने में अभी भी उम्मीद का एक कतरा बचा हुआ है। उसे लग रहा है, कि जिस दिन वो सब कांड हुआ था, उस दिन तो मंगड़ा अपनी झोपड़ी में ही अपनी टुटही खाट पर लगभग हफ़्ता भर से मलेरिया बुखार से बेसुध होकर पड़ा हुआ था। उसको उसी हालत में 'पुलिस' अगले दिन उठा कर ले गयी थी। कराहते हुए वह उनके पँजों के चंगुल में घिसटाता हुआ झोपड़ी से जीप तक और जीप से हाजत तक गया था। माखन को अपने गाँव के पीपल के पेड़ के नीचे वाले शिलाखंड, जिसे गाँव वाले "पीपरहवा बाबा" कहते हैं, पर भरोसा है। उसने और उसकी मेहरारू ने "पीर साहेब" के मज़ार पर भी जाकर मनता (मन्नत) मान रखी है। साथ में श्मशान वाली "मसान माई" के पैर के आगे उसके स्वयं के और साथ में अपनी घरवाली के गिड़गिड़ाये जाने पर भी भरोसा है, कि "मसान माई" अवश्य ही उसकी सहायता करेंगी। वैसे भी तो .. वह इस बात से आश्वस्त है, कि मंगड़ा निर्दोष है, तो "ऊपर वाले" की कृपा तो उसके और उसके बेटे के ही तो पक्ष में होगी ना ...

परन्तु .. उस अनपढ़ ग़रीब को कहाँ मालूम है भला कि .. तारीख़ों की आँच पर दलीलों की देगची में फ़ैसले की पकी हुई जो खीर आज परोसी जानी है, वो किसी के लिए मीठी तो .. किसी के लिए कड़वी व ज़हरीली भी हो सकती है और ये सब भुगतान किए गए वक़ील के अलावा जज, कचहरी, क़ानून, बनावटी सबूत, खरीदे गए गवाहों के मकड़जाल के सहयोग से तैयार होती हैं, जिनका वास्तविकता से कोई सारोकार नहीं होता .. शायद ...

रेशमा की तो मानो भूख ही छूमंतर हो गयी है इस समय इस कारुणिक दृश्य से। अब वह मन्टू से आज आगे ना जाने के लिए विचार कर रही है। 

रेशमा - " कमाना-खाना तो रोज ही लगा रहता है मन्टू भईया .. पर किसी भी कमजोर-असहाय को बुरे वक्त में अपना क़ीमती समय जरूर देना चाहिए। ऐसा करके हम सामने वाले को नैतिक आलम्बन देने का एक अच्छा काम करते हैं .. है कि नहीं ? .. "

मन्टू - " चलो .. ऐसा ही करते है, पर अभी तो सुनवाई में काफ़ी समय है। तब तक कुछ खा लेते हैं और अगर इतनी ही समानुभूति भाव है माखन चच्चा के प्रति तो .. "

रेशमा - " तो क्या ? .. तो .. इनको भी ले चलते हैं। इनको भी कुछ खिला-पीला देते हैं। .. विपत्ति कैसी भी हो, पर पेट की आग को तो बुझानी ही होती है। " - माखन चच्चा को सम्बोधित करते हुए - " चलिए चच्चा .. अभी सुनवाई होने में काफ़ी समय है। तब तक हमलोगों के साथ कुछ खा लीजिए। "

मन्टू - " चिन्ता मत कीजिए .. ऊपर वाले पर भरोसा रखिए .. आप तो लग रहा है, कि . कई दिनों से कुछ भी खाए-पीये नहीं है .."

माखन चच्चा - " कैसे मुँह में कुछ जाएगा बेटा, जब मुँह का निवाला आँखों के सामने ही गलत दोष मढ़ कर छीना जा रहा हो .. "

अब रेशमा और मन्टू के साथ-साथ माखन पासवान भी बेवकूफ़ होटल की ओर जा रहे हैं। इनके यहाँ से जाने के साथ-साथ यहाँ की उपस्थित भीड़ भी छंटने लगी है।

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】