देवनागरी लिपि के वर्णमाला वाले जिस 'स' से कास का सफ़र समाप्त होता है, उसी 'स' से सप्तपर्णी की यात्रा का आरम्भ होता है। संयोगवश व्यवहारिक तौर पर भी एक तरफ कास खिलने के उपरांत एक अंतराल के बाद जब किसी पहाड़ी गौरवर्णी चिरायु वृद्ध-वृद्धा के झुर्रीदार परन्तु देदीप्यमान मुखड़े की तरह झुर्रियाने लगते हैं, तभी किसी पहाड़न की सादगी भरे सौंदर्य-से सप्तपर्णी के यौवन की मादकता समस्त वातावरण को सुवासित करने लग जाती है .. बस यूँ ही ...
इन्हीं कास और सप्तवर्णी के आगमन-गमन के दरम्यान ही हर वर्ष की भांति कुछ दिनों पूर्व ही हिन्दू त्योहारों के मौसम के सारे के सारे हड़बोंग, चिल्लपों, अफ़रा-तफ़री, आपाधापी की पूर्णाहुति हुई है .. शायद ...
जिनके दौरान हम में से अधिकांशतः जन सैलाब संस्कार और संस्कृति की आड़ में इनके अपभ्रंश परम्पराओं के तहत तथाकथित ख़ुशी तलाशने और बाँटने के छदम् प्रयास भर भले ही कर लें, परन्तु आध्यात्मिकता से कोसों दूर रह कर प्रायः हम अपने-अपने आत्मप्रदर्शन की प्रदर्शनी लगाए आपस में मानसिक या आर्थिक स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा से जूझते हुए ही ज़्यादातर नज़र आते हैं इन मौकों पर .. शायद ...
पर उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी- देहरादून में गत मई' 22 से वर्तमान में रहते हुए ऐसे तथाकथित त्योहारों के मौसम में यहाँ के लोगों की अजीबोग़रीब कृपणता देखने के लिए मिली है।
वैसे तो बचपन की पढ़ाई के अनुसार हमारे खान-पान, रहन-सहन पर हमारे भौगोलिक परिवेश का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असर पड़ता है। परन्तु मालूम नहीं किस कारण से बिहार-झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यहाँ के निवासी पूजा-अर्चना में कोताही करते नज़र आते हैं। इस दौरान यहाँ विशाल की बात तो दूर, बौने या मंझोले पंडाल भी नज़र नहीं आए और ना ही शहर या गाँव-मुहल्ले में कहीं भी विराट की विशाल प्रतिमाएँ दिखीं .. और तो और ध्वनि विस्तारक यंत्र से आकाश में तथाकथित विराजमान विधाता तक पैरोडी वाले भजनों की आवाज़ पहुँचाने वाले बुद्धिमान लोग भी नहीं दिखे। अब इनकी इतनी सादगी भरी परम्पराओं से तो कोफ़्त ही हो जाएगा; जिनको पंडालों, मेलों, रेलमपेलों, लाउडस्पीकरों की शोरों में ही अपने पावन परम्पराओं के निर्वहन नज़र आते हों।
हैरत होती है कि यहाँ उत्तराखंड के लोग अपनी भक्ति-भाव की आवाज़ किस विधि से बिना लाउडस्पीकर के ऊपर आकाश में बैठे विधाता तक पहुँचा पाते होंगे भला ! ?
हो सकता है .. इस अलग राज्य की तरह ही इस राज्य के विधाता का विभाग भी आकाश में कोई अलग ही हो, जहाँ लाउडस्पीकर की आवाज़ के बिना ही उन तक उनके उत्तराखंडी भक्तों की बात पहुँच जाती होगी .. शायद ...
ख़ैर .. हमें इन सब से क्या लेना- देना ...
आज तो इन सब को भुला कर बस .. अभी हाल ही में ऋषिकेश के एकदिवसीय भ्रमण के दौरान आँखों के दृश्य-पटल पर अपनी छाप छोड़ते कुछ दृश्यों या कुछ विशेष घटनाओं के परिणामस्वरूप पनपी कुछ बतकही को छेड़ता हूँ .. बस यूँ ही ...
#(१)
यूँ तो है हर चेहरे पर यहाँ छायी मुस्कान,
पर है किसे भला इनकी वजह का संज्ञान .. बस यूँ ही ...
खेलने की उम्र में .. पेशे में लगे बच्चे हों या
खिलने के समय .. पूजन के लिए टूटे फूल।
यूँ समय से पहले कुम्हला जाते हैं दोनों ही,
अब .. इसे संयोग कहें या क़िस्मत की भूल .. बस यूँ ही ...
#(३)
त्रिवेणी घाट पर केवल नदियाँ ही नहीं,
साहिब ! ... दो दिल भी मिला करते हैं।
आते हैं आप यूँ यहाँ मोक्ष की तलाश में,
गोद में प्रकृति की हम तो मौज करते हैं।
लिए कामना स्वर्ग की आप आ-आकर,
लगा कर डुबकी नदी में स्नान करते हैं।
हम तो बस यूँ ही .. प्रेम में गोता लगाए,
स्वर्ग बने धरती ही, कामना ये करते हैं .. बस यूँ ही ...
वज़ह नभ पर आनन के, मुस्कान की घटा छाने की,
आज़ादी ही नहीं, साहिब ! कई बार होती है क़ैद भी।
गोया हथकड़ियों से सजे जेल जाते स्वतन्त्रता सेनानी,
प्रिय की आँखों के रास्ते ह्रदय में समाती प्रेम दीवानी।
बाँहों में बालम के बिस्तर पर खुद को सौंपती संगिनी,
कैमरे के रास्ते गैलरी में क़ैद होती रेहड़ी वाली रमणी .. बस यूँ ही ...
#(५)
नज़रबन्द करने में भले ही लोग छोड़ें ना कोई कसर,
झाँक ही लेते हैं हम तो मन की झिझरियों से अक़्सर ..
.. बस यूँ ही ...