आज की रचना/विचार को किसी ख़ास विधा, मसलन-ग़ज़ल या और भी कोई, या फिर किसी बहर, काफ़िया, मक़्ता, मतला के अंकगणित या ज्यामिति वाले तराजू में तौल कर आपकी नज़र नहीं सरके, बल्कि बस यूँ ही ...
सर्वविदित है कि ना साहित्य की किसी विधि की, ना ही किसी विधा की विधिवत जानकारी हासिल की है हमने और ना ही हासिल करने की कोई कोशिश या कोई शौक़ भी .. बस मन ही मन में कुछ अनायास उग आए एहसासों के पपड़ाए होंठों पर इस बार चंद तुकबंदियों ( वैसे तो प्रायः अतुकान्त ही ) की लाली (Lipstick) लगाने की एक कोशिश भर की है पहली रचना/विचार में .. और फिर दूसरी रचना/विचार अपनी आदतानुसार एक अतुकान्त भी है ..
बस यूँ ही ...
(१) मन के गलीचे
थे कभी फड़कती नब्ज़ की पाबंद नज़्म के बहर,
है उन्हीं का असर, हैं बेअसर हरेक बरसते सितम।
दिल का दौरा भी एक दौर है, यूँ ही जाएगा गुजर,
बुरे वक्त-सी टलेगी मौत और मिटेंगे सहमते वहम।
वो हों ना हों, हैं उनकी यादों का संग आठों पहर,
ऐसे में भर ही जायेगें जीवन के हर उभरते जख़्म।
मन के गलीचे को तो यूँ फैलाया मैं ने बहुत मगर,
जमीन चूमने को रहे बेताब उनके बहकते क़दम।
माना मेरे हालात से नाता नहीं, पूछें भर भी वो गर,
तो शायद क़ायम रहें अपना होने के दरकते भरम।
(२) इल्म की इल्लियाँ
उनकी
भावनाओं की
नर्म पत्तियों
से मिले
पोषण के
बिना बन
कहाँ पाती
भला
कभी मेरी
रचनाओं की
बहुरंगी तितलियाँ,
बस
ताउम्र
बस यूँ ही ...
सरकती
फिरती मेरे
इल्म की इल्लियाँ* ...
★ - { इल्लियाँ (बहुवचन) = इल्ली - लार्वा - Larva - Caterpillar.}
(अगर तितली-जीवन-चक्र ( Butterfly Life Cycle ) को एक बार अपने मन ही मन दोहरा लें तो नज़र के साथ-साथ मन तक भी रचना/विचार पहुँच पाए .. शायद ...)