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Thursday, December 26, 2019

धूसर रंग बनाम रंग बिरंगी ...

एक हरी-भरी पहाड़ी की वादियों पर जाड़े की खिली धूप में क्रिसमस की छुट्टी के दिन दोपहर में पिकनिक मनाने आए कुछ सपरिवार सैलानियों को देखकर एक मेमना अपनी माँ यानी मादा भेड़  से ठुनकते हुए बोली -

" माँ ! देखो ना हमारे ही धूसर रंग के कतरे गए बाल  से बने हुए कितने सारे रंगों में ऊनी कपड़े पहने हुए आदमी के बच्चे कितने सुन्दर लग रहे हैं। है ना ? " लाड़ जताते हुए आगे बोला - " हमको भी ऐसा ही शहर के किसी अच्छे दुकान से खरीदवा दो ना, प्लीज़ ! "

भेड़ी अपने मेमने पर घुड़की -

" तुम अभी नादान हो , इसलिए ऐसा बोल रहे हो। तुमको पता नहीं अभी तक कि इनकी रंग-बिरंगी दुनिया कितनी वहम और भ्रम से भरी पड़ी है। "

 " वो कैसे भला माँ !? "

" हमारे लोगों में सभी अपने खालों के रंगों से ही तो पहचाने जाते हैं ना ? बकरा हो या भालू .. हिरण हो या हिंसक शेर ... वे जो हैं, वही रहते हैं .. भालू बस भालू ही होता है  "

" हाँ .. तो !? "

" पर इन आदमियों के समाज में ऐसा नहीं होता। ये इंसान ... इंसान नाम से कम और अलग-अलग लिबासों में हिन्दू ... मुसलमान जैसे नामों से जाने जाते हैं। कोतवाल और वकील के नाम से जाने जाते हैं। सबने अपने-अपने अलग-अलग रंग तय कर रखे हैं - गेरुआ, हरा, सफेद,ख़ाकी और भी कई-कई ... "
हमारे यहाँ कौन शाकाहारी , कौन मांसाहारी या सर्वाहारी है, हम आसानी से इनके खाल के रंगों से पहचान लेते हैं। इनके समाज में पहचानना बहुत ही मुश्किल है।

" ओ ! अच्छा !? "

" हाँ .. और नहीं तो क्या !? क्या अब भी चाहिए तुमको इनके जैसे रंग-बिरंगे रंगीन कपड़े और अपने पहचान खोने हैं !? "

" नहीं माँ .. हम एक रंग में रंगे ही ज्यादा बेहतर हैं। "