आज के शीर्षक से आप भ्रमित ना हों, हम अपनी बतकही में आपके समक्ष कुछ भी ऐसा-वैसा अश्लील नहीं परोसने वाले .. शायद ...
गत दिनों मैंने "बस यूँ ही ..." नामक अपनी एक कहानी प्रसार भारती के तहत आकाशवाणी, देहरादून के माध्यम से पढ़ी थी। जिसे बहुत से अपने शुभचिन्तक लोग अपने-अपने मोबाइल में उनके भिन्न 'Android' होने के कारण 'App' - "Newsonair" को नहीं 'Download' कर पाने की वजह से उस कहानी का प्रसारण नहीं सुन पाए थे। अफ़सोस भी हुआ था, दुःख भी। तो आज उसकी 'रिकॉर्डिंग' यहाँ साझा कर रहे हैं। पर यह कहानी केवल और केवल आर्थिक रूप से मध्य या निम्न-मध्य वर्ग के लोगों को सुनने के लिए है और .. आर्थिक रूप से उच्च वर्ग के लोगों के लिए सुनना पूर्णरूपेण निषेध है .. बस यूँ ही ... सोच रहा हूँ कि .. उन्हें बुरी लग जाए कहानी की बातें .. शायद ...
पर उस से पहले एक महान और भले ही शारीरिक रूप से दिवंगत हो चुके .. फिर भी अपनी रचनाओं में आज भी अजर-अमर, जिनके इसी माह जन्मदिन पर विश्व भर में उनके चाहने वालों द्वारा विभिन्न तरीकों से उन्हें याद भी किया गया है .. बस यूँ ही ...
हमारे समाज, ख़ासकर तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी, व्याप्त तमाम कुरीतियों वाले दुर्गन्धित कचरों के ढेर को तथाकथित संस्कृति नामक सुगन्धित पैरहन से ढक कर या फिर पुरखों की थाती नामक चाँदी के वरक़ से ढक कर ढोने वालों की भीड़ तब भी थी और आज भी है, जो भले ही नहीं पचा पाती हो .. सआदत हसन मंटो जी की थाती को और उन थाती को किसी 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की श्रेणी में रखकर भले ही आँकती हो और .. और तो और .. मानसिक रूप से अश्लील इसी तथाकथित समाज के कई लोगों ने जो बाह्य रूप से सभ्य-सुसंस्कृत वाला लिहाफ़ ओढ़े हुए थे और आज भी हैं .. उनकी भीड़ ने भी मंटो जी की कहानियों में अश्लीलता की बू आने की बातें करके, उनके द्वारा वर्जनाओं को तोड़ने की हिमाक़त करने की बातें करके और उनके द्वारा भाषायी मर्यादाओं के खंडन करने की बातें कर-कर के .. उन पर छदम् आरोप लगा कर उन को छह बार अदालत जाने के लिए मजबूर किया, जिनमें से तीन बार हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के अनचाहे और विभत्स बँटवारे से पहले और तीन बार बँटवारे के बाद .. लेकिन अफ़सोस ... एक भी बार उन पर आरोपित मामला साबित नहीं हो पाया।
एक तरफ तो ये समाज, जो यदा-कदा स्वयं भी मानसिक रूप से लम्पट होकर, हर उस लम्पट को सिर-आँखों पर चढ़ा कर रखता है, जो इसी मुखौटेधारी समाज की तरह ताउम्र शराफ़त के पैरहन पहने सभ्य-सुसंस्कृत बने रहने की औपचारिकता भर करता है।
दूसरी तरफ समाज को समय से पहले पनपी कोई भी बात कृत या कृति, किसी अनब्याहता के गर्भवती हो जाने की तरह ही, सहजता से स्वीकार्य नहीं है। कभी ऐसा ही हुआ होगा, 1970 में राजकपूर जी की फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" के साथ, समय से बहुत पूर्व फिल्माए गए गूढ़ दर्शन को हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज की भीड़ ने उस वक्त सिरे से नकार दिया, परन्तु विदेशों में धूम मचाने और कई पुरस्कारों को हासिल करने के बाद हमारे देश-समाज के लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया। इसी तरह ही नकारा गया होगा कभी मंटो जी को। तब की क्यों कहें, आज भी स्वयं को पाक-साफ़ दर्शाने के लिए कई लोग मंटों जी के नाम और कृतियों की चर्चा से परहेज़ या गुरेज़ करते नज़र आते थे या हैं, भले ही तब उनके बिस्तर या तकिए के नीचे दबायी-छुपायी 'डेबोनियर' अंग्रेजी पत्रिका रखी मिलती थीं या आज अकेले में बिस्तर पर पड़े-पड़े उनकी नज़रें अश्लील 'यूट्यूब' या अन्य 'सोशल मीडिया' पर गड़ी रहती हों .. शायद ...
जब तक हम या हमारी युवा पीढ़ी मंटो जी को तन्मयता से पढ़ेंगी नहीं, तब तक यह जान पाना या समझ पाना नामुमकिन है, कि उन दकियानूसी सामाजिक हालातों में भी स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर मंटो जी कितनी प्रगतिशील सोच रखते थे। उन्हीं की अलहदा सोच थी, कि - "औरतें बिक नहीं रहीं, लोग उन्हें धीरे धीरे खरीद रहे हैं ।"
उन्होंने ही उस दौर में भी ये कहने की हिम्मत की, कि "वेश्या का वजूद ख़ुद एक जनाज़ा है, जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है। वो उसे जब तक कहीं दफ़न नहीं करेगा, उस के मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी।"
अपने बारे में कहते हुए उन्होंने लिखा था, कि "मैं अफ़्साना इसलिए लिखता हूँ, कि मुझे अफ़्साना-निगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है। मैं अफ़्साना ना लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने या मैंने ग़ुसल नहीं किया या मैं ने शराब नहीं पी।"
उनकी बेबाक़ी ही कह पायी, कि "अगर आप मेरी बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकते .. मतलब .. ज़माना ही ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त है।"
हमारा तत्कालीन या वर्त्तमान बुद्धिजीवी समाज भले ही 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्मों की तरह या उस से भी बदतर श्रेणी में उनकी लेखनी को घसीटता हो, पर उनका बिंदास लेखन उनके बिंदास शख़्सियात की ताकीद करता है।
यूँ तो सर्वविदित है, कि वह एक मुक़म्मल उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं - बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पाँच संग्रह, अन्य रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह लिखे थे, जो समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे थे। इनमें से कई रचनाएँ अन्य कई भाषाओं में अनुवादित भी किए गए हैं।
उन्हें ही क्यों .. तत्कालीन इस्मत चुग़ताई अथार्त इस्मत आपा को भी इस समाज में बुरी नज़रों से देखा गया। दरअसल समाज अपना कुरूप और कुत्सित चेहरा साहित्य या सिनेमा के पटलों वाले आईना पर देख ही नहीं पाता या देखना ही नहीं चाहता .. शायद ...
वैसे तो जन्मदिनों को या दिवसों को मनाने में हम यक़ीन नहीं करते, कारण .. प्रत्येक जन्मदिन के दिन हर प्राणी की आयु से एक वर्ष घटा हुआ होता है, जो एक वज़ह बनती है उदासी की .. पर लोग जश्न मनाते हैं भला क्योंकर .. मालूम नहीं और रही बात दिवस की तो, अगर दिवस को दिनचर्या में शामिल कर लिया जाए, तो फिर दिवसों का क्या करना भला ?
पर 11 मई को सम्पूर्ण विश्व में उनके चाहने या मानने वालों के द्वारा उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में कई कार्यक्रम हर वर्ष आयोजित किए जाते हैं .. तो इसी बहाने उन महान विभूति को शत्-शत् नमन .. काश ! .. हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज जो 'डेबोनियर' या 'ए सर्टिफिकेट' वाली फ़िल्म से इतर उन्हें देख पाता, पढ़ पाता, समझ पाता .. बस यूँ ही ...
ख़ैर ! .. अब हमारी बतकही झेलने के उपरांत हमारी कहानी भी सुन लीजिए .. बस यूँ ही ...