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Monday, December 2, 2019

मलिन मन के ...

बस कुछ माह भर ही .. साल भर में
मानो हो किसी मौसम विशेष में
जैसे कोयल की कूक बसंत में
या मेढकों की टर्रटर्र बरसात में
वैसे ही जाड़े की आहट पाते ही
कंधे पर लादे अपने "धुनकी" और "मुठिया"
साथ ही "गज" सम्भाले हाथों में
गली-गली मुहल्लों में फेरी लगाते
या फिर किसी रुई की दुकान पर
दिख ही जाते हो तुम हर साल बारहा
हर बार अपने दोनों सधे हाथों की
लयबद्ध मशीनी हरक़तों से
कोई भी पुरानी रजाई की
तकिया या तोशक की
पुरानी रुई के पुराने रेशे को
कर देते हो कुछ पल में ही
मैल-गर्द मुक्त और हल्के भी
मानो लयबद्ध धुन से सजे
बजता हो कोई जैसे एकतारा
है ना "धुनिया" भईया !!?

कई दफ़ा तो गढ़ते हो नई रजाई
तकिए .. मसनद और तोशक भी
नई विवाहित जोड़ों के लिए भी
नई-नई हल्की-मुलायम रुइयों से
और कई दफ़ा तो तुम
फैलाते हो आस-पास प्रदूषण भी
धुनते वक्त पुरानी रुइयाँ
खैर! जाने भी दो ना तुम
एक तुम ही तो नहीं हो जो
फैला रहे प्रदूषण
पर्यावरण में चहुँओर
कई सुसंस्कृत .. सुसभ्य लोगों ने भी
फैलाया है प्रदूषण पुरखों के परम्परा निभाते
हाल ही में तो दीपावली के बहाने
और बारात में हैसियत दिखाते
और हाँ .. अभी-अभी तो थी चर्चे में
बहुत 'पराली' भी भईया .. है ना !?
पर क्या करना जब हम कुछ
कर नहीं सकते इसकी ख़ातिर तो
फिर क्यों सोशल मिडिया पर
बेवज़ह हमारा बकबकाना 
है ना "धुनिया" भईया !!?

पर एक बात बार-बार क्यों मन में आती कि ..
काश ! होती "धुनकी" कोई ऐसी
जो साल में एक बार ही सही
उतार देती मलिन मन के भी
द्वेष-दुःख वाले गर्द सारे हमारे और
हो जाता फिर से हल्का हमारा मन
मानो लौट आया हो जैसे बचपन
या काश! उतार पाते तुम भाई
किसी पुरानी रजाई-सी समाज से
जाति-धर्म के पुराने खोल
और पहना देते फिर से नया-नया
केवल मानव का खोल अनोखा
है ना "धुनिया" भईया !!?

Thursday, November 21, 2019

"फ़िरोज़ खान" के बहाने ...

आज के ग्लोबल दुनिया में किसी भाषा या किसी पहनावा या फिर किसी व्यंजन विशेष पर किसी विशेष जाति, उपजाति या धर्म विशेष वाले का आधिपत्य जैसी सोच जो शत्-प्रतिशत गलत है और इस पर एक ही साथ गुस्सा एवं हँसी दोनों आता और आती है।
ऐसे में किंकर्तव्यविमूढ़ वाली मनोदशा होने लगती है। फलतः मन का विष आज के विज्ञान के योगदान वाले सोशल मिडिया ( सनद रहे कि इसमें भगवान नाम के तथाकथित मिथक का कोई भी योगदान नहीं है) के पन्ने पर उल्टी कर देना सबसे आसान लगता है। इसके अलावा हम कुछ कर भी तो नहीं पाते। बहुत हुआ तो एक-आध दाँत निपोरते अपनी सेल्फी चमका या चिपका देते हैं।
वो भी विज्ञान की बदौलत, इसमें भी भगवान का कोई योगदान नहीं रहता। हम भारतीयों का भी नहीं .. क्योकि मोबाइल फोन और फेसबुक जैसे सारे सोशल मिडिया का आविष्कार भी भारत के बाहर ही हुआ है। हम केवल ब्लॉग जगत का नारा लगाना जानते हैं।
बस ...
दरअसल इसके बीज भी हमने ही रोपे हैं। समाज को जाति, उपजाति और धर्म के बाड़े में बाँट कर। हमने कभी सोचा ही नहीं कि जब तक इस जाति, उपजाति और धर्म के परजीवी अमरबेल पनपते रहेंगे, तब तक हमारे ख़ुशहाली के वृक्ष 'पीयराते' (पीला पड़ते) रहेंगे।
वैसे भी हमारे पुरखों के रिवाज़ या (अन्ध)-परम्परा या (कु)-संस्कृति को त्यागने में मेरी सभ्यता-संस्कृति नष्ट होने लगती है। तथाकथित बुद्धिजीवियों के मन खट्टे होने लगते हैं। हमारे पुरखों ने वर्षो पहले ही .. वर्षों तक तत्कालीन काम के आधार पर बाँटे गए समाज के कुछ जाति विशेष के कान में श्लोक के शब्द की ध्वनितरंग जाने भर से उनके कान में शीशा पिघला कर डालने की बात करते रहे थे और डालते भी रहे थे। ऐसा इतिहास बतलाता है। हम एक तरफ परम्परा(अन्ध) ढोने की बात करते हैं तो ये सब उसी कुत्सित मानसिकता का प्रतिफल है शायद।
अब जब किसी जाति, उपजाति या धर्म विशेष का आधिपत्य किसी भाषा, पहनावा या व्यंजन विशेष पर नहीं हो सकता तो ... फिर आज तथाकथित आज़ादी के बहत्तर साल बाद भी हम जाति, उपजाति और धर्म के नाम पर "आरक्षण" जैसा मुफ़्त का लंगर, भंडारा या भीख का आनन्द क्यों ले रहे हैं ???? ये या तो सभी आर्थिक रूप से जरूरतमंद को मिले या फिर ना मिले। आश्चर्य या तकलीफ तो तब होती है जब इन बहत्तर सालों के दरम्यान हमारी दो या तीन पीढ़ी भी इसका लाभ लेकर आज कल्फ़दार पोशाकों में चमकते हैं। अरे शर्म आनी चाहिए हम लोगों को। हमें स्वयं इसके विरूद्ध आवाज़ उठानी चाहिए कि हमको ये भीख नहीं चाहिए। हम सामर्थ्यवान हो चुके हैं। हमारे पिता जी, दादा जी सब इसका लाभ ले कर समकक्ष खड़े हैं समाज में।
अब जब तक एक तरफ हम मिथक पाले अपने आप को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चित्रगुप्त, विश्वकर्मा की तथाकथित औलाद यानि सुपर डीएनएधारी घोषित कर के स्टार्चयुक्त अकड़ में गर्दन अकड़ाते रहेंगें तो समाज आगे भविष्य में भी बँटा ही रहना है।
हमें मिलकर सोचना होगा कि - एक तो धर्म और जाति के नाम पर "भाषा" किसी की विरासत नहीं तो "आरक्षण" भी नहीं होनी चाहिए।
दूसरी ये कि जब तक ये मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे के आड़ में जाति, उपजाति और धर्म की आनुवंशिक परजीवी अमरबेल हम पनपाते रहेंगे, समाज में ख़ुशी के वृक्ष को नहीं पनपा सकते।

 भगवान, अल्लाह, ईसा, मंदिर, माजिद, गिरजा के नाम पर एक मिथक पाल कर क्या कर रहे हैं हम ????
अपनी भावी पीढ़ी को क्या परोस रहे हैं हम ???

भगवान है कि नहीं --- इसका सही उत्तर जानना हो तो पूछिए उस एक अबला लड़की से ... या उसके परिवार से जिसके साथ हाल में बलात्कार हुआ हो ।

सब मिल कर पूछिए ना उस से .... जाइए ....

Saturday, November 16, 2019

मैल हमारे मन के ...

ऐ हो धोबी चच्चा !
देखता हूँ आपको सुबह-सवेरे
नित इसी घाट पर
कई गन्दे कपड़ों के ढेर फ़िंचते
जोर से पटक-पटक कर
लकड़ी या पत्थर के पाट पर
डालते हैं फिर सूखने की ख़ातिर
एक ही अलगनी पर बार- बार
कर देते हैं आप हर बार
हर मैले-कुचैले कपड़े भी
बिल्कुल चकमक झकास
किसी डिटर्जेंट पाउडर के
चकमक विज्ञापन-से
है ना .. धोबी चच्चा !

मैं आऊँ ना आऊँ रोजाना
जाड़ा , गर्मी हो या बरसात
मिलते हैं सालों भर पर आप
होता हूँ हैरान पर
हर बार ये देख कर .. कि ...
मिट जाते है किस तरह भला
धर्म और जाति के भेद
उच्च और नीच के भेद
लिंग और वर्ण के भेद
अस्पताल के चादर और
शादी के शामियाने के भेद
"छुतका" के कपड़े और
शादी के हल्दी वाले कपडे के भेद
जब एक ही नाद में आप अपने
डुबोते हैं कपड़े सभी तरह के
पटकते भी तो हैं आप
बस एक ही पाट पर
और डालते भी हैं सूखने
गीले कपड़े झटक-झटक कर
जब एक ही अलगनी पर
है ना .. धोबी चच्चा !

काश ! .. ऐसा कोई नाद होता
काश ! .. ऐसा कोई पाट होता
जहाँ मिट जाते सारे
मैल हमारे मन के
हमारे इस समाज से
किसी भी तरह के भेद-भाव के
ना जाति .. ना धर्म ..
ना अमीर .. ना ग़रीब ..
ना उच्च .. ना नीच ..
ना नर .. ना नारी ..
सब होते एक समान
ना होता कोई दबा-सकुचाया
ना करता कोई भी इंसान
"मिथ्या" या "मिथक" अभिमान
फिर होकर निर्मल मन हमारे
सब एक ही वर्ग के हो जाते
है ना .. धोबी चच्चा !