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Friday, June 11, 2021

रक्त साझा ...

 (1)

'मैरिनेटेड' मृत मुर्गे की बोटियों से,
बढ़ाते हैं हम, रसोईघर की शोभा।
जाते ही फिर शव क्यों अपनों के,
धोते हैं भला घर का कोना-कोना ?

(2)

तोड़ेंगे जो चुप्पी हमसभी मिलजुल,
टूटेगी वर्जनाएं सारी, जो हैं फिजूल।



(3)

तामझाम में, एकदिवसीय "दिवस" के,
कुछ इस क़दर हुए, हम सभी मशग़ूल।
हो भला अब परिवर्तन भी तो क्योंकर,
"दिनचर्या" में हों ये, ये बात गए हैं भुल।

(4)

मंगल तक तो चला गया है, अपना मंगल-यान;
अमंगल होता जो आडंबर से, नहीं इनका भान।



(5)

पापयोनि-समूह में रख गए,
भला क्यों स्त्री को "रहबर"* ?
नर अंध भक्तों* ने भी किया,
नारी-जीवन को दुरूह गहवर .. शायद ...

( गीता के अध्याय- 9 में श्लोक-32** के संदर्भ में)

【* - तथाकथित
** - गीता के अध्याय- 9 में श्लोक-32 अक्षरशः :-
   मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
   स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।09/32।।
अथार्त् :-
हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र, ये जो कोई पापयोनि वाले हों, वे सभी मेरे शरण में आकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।
(गूगल से साभार)】

(6)

"रक्तदान- महादान" कह-कह कर,
करना है अब से तो कोई दान नहीं।
कह कर - "रक्त साझा- सच्ची पूजा",
अब तो हमको, सच्ची पूजा करनी।