Saturday, September 7, 2019

एक कॉकटेल है ज़िन्दगी ...

ऐ ज़िन्दगी !
तू ऊहापोह की गठरी-सी
पता नहीं कितनी परायी
और ना जाने तू कितनी सगी री ...
लगती तो  है तू कभी - कभी
लियोनार्डो दी विंची की मोनालिसा के
होठों-सी रहस्यमयी और अतुल्य, क़ीमती भी
दिखती किसी को मुस्कुराती कभी
तो किसी को दिखती उदास भी ...
गर्भ के गुंजन से शरुआत होने वाली
जन्म से जवानी तक का आरोह और
जवानी से बुढ़ापे तक का अवरोह जो
ख़त्म होती मृत्यु के सम पर
कला और संगीत की तू एक कॉकटेल है ज़िन्दगी ...

संघर्षरत अनगिनत शुक्राणुओं से
मात्र एक अदद ... या कभी-कभी
दो या तीन या फिर उस से भी ज्यादा
शुक्राणु का समान संख्या में
डिम्बवाहिनियों के मुश्किल भरे
रास्ते का गुमनाम सफ़र तय कर
अंडाणु से मिलकर युग्मज बनने तक से
चिता के राख में परिवर्तित होने तक
और इस बीच शुक्राणुओं वाले बुनियादी संघर्ष से
प्रेरित ताउम्र ज़िन्दगी का संघर्षशील रहना
मानो रसायन विज्ञान के असंतृप्त यौगिक का
संतृप्त यौगिक बनने तक का अनवरत
एक अदद "मन के हमसफ़र"-सा उत्प्रेरक का
साथ लिए गतिशील, प्रयत्नशील
एक सफ़र है ज़िन्दगी या यूँ कहें कि है तू
शुक्राणु और अंडाणु के कॉकटेल से बनी
तभी तो ताउम्र एक नशा लिए बीतती है तू ज़िन्दगी
जीव-रसायन विज्ञान की तू एक कॉकटेल है ज़िन्दगी ...

और कभी-कभी प्रतीत होती है तू
बचपन में पढ़े सामान्य-विज्ञान के
चलने वाले अनवरत जल-चक्र की तरह
हाँ .... जल-चक्र जो कभी थमता नहीं
रूकता नहीं... बस चलता ही रहता है
अनवरत चल रही धौंकनी-सी साँसों की तरह
हर पल स्पन्दित हृदय-स्पन्दन की तरह
बस रूप बदलता रहता है अनवरत कर
कभी भौतिक तो कभी रासायनिक परिवर्त्तन
ऐ ज़िन्दगी ! तू भी तो कभी मरती ही नहीं
बस रूप बदलती रहती है
रामलीला के पात्रों की तरह
चलता रहता है तेरा ये सफ़र अनवरत
मेरे पिता से मुझ में और मुझ से मेरे पुत्र में
पिता जी की साँसे, धड़कनें बस होती हैं
हस्तांतरित मुझ में और मुझ से मेरी संतान में
पिता मरते हैं तो बस मरता है देह
रूकती हैं साँसे, धड़कनें, थमता है रक्त-प्रवाह
ज़िन्दगी भला कहाँ मरने वाली !!?
मृत काया भले ही जल जाती चिता पर
जहाँ चटकती हैं च्ट-चटाक कई हड्डियाँ
ना ...ना .. पूरा का पूरा अस्थि-पंजर ही
सिकुड़ती है शिरा और धमनियां
जलते है रक्त, रक्त-मज्जा, मांसपेशियां...
अनगिनत शुक्राणुओं-सी .. अनगिनत कोशिकाएं
झुर्रिदार त्वचा , सौंदर्य-प्रसाधनों से सींचे चेहरे भी
पाचन-तंत्र, तंत्रिका-तंत्र, प्रजनन-तंत्र भी ...
सारे तंत्र-मंत्र, जादू-टोने, झाड़-फूंक,
अस्पताल, डॉक्टर-नर्स, दवाई, आई सी यू,
वेंटीलेटर ...  इन सब को धत्ता बतला कर
बस रूप बदल फुर्र हो जाती है ज़िन्दगी ....
हाँ ... अपनों को बिलखता छोड़ फुर्र ....
पर नहीं ... यहीं कहीं किसी अपने संतान में रूप बदल
संतान के सीने में धड़क रही होती है ज़िन्दगी
और धमनियों में बह रही होती है रक्त बन कर
उतारती है एक परत भर ही तो
साँप के केंचुल की तरह ...
यकीन नहीं हो रहा शायद ! .. है ना !?
दरसअल तीनों विज्ञानों की ..
जीवविज्ञान, रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान
इन तीनों विज्ञान की तू एक कॉकटेल है ज़िन्दगी
तू बस एक कॉकटेल है ज़िन्दगी
एक कॉकटेल है ज़िन्दगी
हाँ ... कॉकटेल है ज़िन्दगी
है ना ज़िन्दगी !???



Friday, September 6, 2019

आचरण का मापदण्ड - ( कहानी / घटना ).


इसी रचना/घटना का एक अंश :-
●【" पढ़ल-लिखल (पढ़ा-लिखा) के बाते (बात ही) दूसरा है भलुआ के मईया ! गाड़ी-घोड़ा, ए सी- बँगला, चकाचक कपड़ा, गिटिर-पिटिर अंग्रेजी ...आदमी चमक जाता है ना  ..है कि ना बोल !?? "】●

◆अब पूरी रचना/घटना आपके समक्ष :-◆

भलुआ अपने स्कूल से आने के बाद मईया द्वारा पास के कुएँ में अपना टुटहा-सा स्कूल-बैग फेंक दिए जाने के कारण जार-जार रो कर पूरी झोपड़ी अपने सिर पर उठा रखा है। इस प्रतीक्षा में कि उसके बाबू जी कब  सवारी वाली टेम्पू चलाकर घर आएंगे और वह उनसे मईया की शिकायत कर के मन में शान्ति पा सकेगा। बाबू जी आकर जब तक मईया को इस गलत काम के लिए दम भर डाँट ना पिला दें  ... भलुआ का मन शांत नहीं होने वाला।
                 वह रोते-रोते थक कर झोपड़ी के बाहर चारों टाँगे फैलाई चारपाई पर अपनी दोनों टाँगें फैलाए सो गया। लगभग दो -तीन घंटे बाद जब उसके बाबू जी आए तो उसे प्यार से हिला कर हौले से उठाया - " अरे ! आज स्कूल-ड्रेस पहने 'काहे' (क्यों) सो गया 'हम्मर' (हमारा) बेटवा । 'आउर' (और) ई मुँह 'एतना' (इतना) उदास काहे है !? 'कौनो' (कोई) बात हुआ है क्या !? " इतना पूछना भर भलुआ को फिर से ऊर्जावान कर गया। जोर-जोर से रोते हुए बोला - " आज हमारा स्कूल-बैग मईया कुआँ में फेंक दी है। 'ओकरा' (उसमें) में उ टेस्ट-कॉपी भी थी बाबू जी 'जेकरा' (जिसमें) में  मैम जी दस बटा दस नंबर दीं थीं। 'एक्सीलेंट' भी लिखा था बाबू जी। पर 'तोरा' (तुमको) देखाबे (दिखाने) के पहले ........उं.. उं ...उं .....।"
भलुआ के बाबू जी ... जो अभी दोपहर में दोपहर का खाना खाने घर आये थे, भलुआ की इस दुःख भरी बात या सही कहें तो व्यथा सुनकर गुस्से में चिल्लाए - " कहाँ हो भलुआ की मईया !? ई का पागलपनी सवार हुआ है तुम पर ... जो बेटवा का बैग .. आ (और) .. उ भी किताब-कॉपी समेत कुआँ में फेंक दी हो आज। बोलो !?  अब उ कइसे बनेगा ..कलेक्टर, डॉक्टर या इंजीनियर ? बोलो ना !? बोलती काहे (क्यों) नहीं हो !?"
ये बोलता हुआ वह घर के अंदर अपनी पत्नी यानि भलुआ के माए (माँ) के पास आ चुका था, जो उसके लिए खाना थाली में परोसने के साथ-साथ सुबक-सुबक कर रोए जा रही थी। शायद उसके गाल के ढलकते हुए आँसू के दो- चार बूँद दाल को ज्यादा नमकीन ना बना दिए हो। अब भलुआ के बाबू जी दुनिया में सब कुछ सह सकते हैं, पर अपनी पत्नी को रोता नहीं देख सकते। भलुआ को भी। और  ... इस समय तो दोनों ही रो रहे हैं। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है उसकी मनःस्थिति की। अब तक तो सारा गुस्सा ढलान पर बहते पानी की तरह बह चुका था। मानो पत्नी के आँसू ने उसके गुस्से को अग्निशामक की तरह बुझा दिया हो।
" नहीं बनाना भलुआ को कलेक्टर, डॉक्टर ... नहीं बनाना 'बड़का' (बड़ा) आदमी। उ (वो) आप ही के जैसा टेम्पू-ड्राईवर बनेगा जी। " -  ये भलुआ की मईया लगभग कुंहकते ... कपसते हुए बोली थी। "
" इतना बुरा क्यों सोच रही हो अपने भलुआ के लिए ? बोलो!? तुम्हारा दिमाग सनक गया है क्या !?? "- भलुआ के बाबू जी अचंभित हो कर पूछे।
" हाँ .. सनकिये गया है ... एकदम से ... सच में । याद है आपको ...  उस दिन उ विदेसीन मेमिन ( विदेेेशी महिला )  को रास्ता में छेड़ रहा था टपोरियन सब। लपलपा रहा था ओकरा (उन) सब का मन गोरकी चमड़ी उनकर (उनका) हाफ पैंट और 'बन्हकट्टी' (sleeveless) कुर्ती में देख कर। तअ (तो) उ सब से लड़-भीड़ के ओकरा होटल तक इज़्ज़त से पहुँचा दिए थे ना !? आप केतना (कितना) खुश थे ...जब उ 'पां'  (पांच) सौ रुपइया (रुपया) अलग से दीं थीं खुश हो कर और 'थैंक यू' अंग्रेजी में बोली थी। आप भी तअ अंग्रेजीए में 'वेलकम' बोले थे। भलुआ सब सीखा दिया है आपको ...' गिटिर-पिटिर' करेला (करने के लिए) । आप बुरा आदमी हैं का (क्या) !? बोलिए !!! ...  गरीब होना  ... अनपढ़ रहना ... गुनाह है का (क्या) !??? "
" पढ़ल-लिखल (पढ़ा-लिखा) के बाते (बात ही) दूसरा है भलुआ के मईया ! गाड़ी-घोड़ा, ए सी- बँगला, चकाचक कपड़ा, गिटिर-पिटिर अंग्रेजी ...आदमी चमक जाता है ना  ..है कि ना बोल !?? "
" ख़ाक चमक जा (जाता) हई (है) ... आज सुबह डॉक्टर साहेब के घर गए भोरे  (सुबह) झाडू-पोछा करे आपके टेम्पू चलावे जाए के बाद रोज जइसन (जैसा) । वहाँ मलकिनी (मालकिन) ना थी घर पर। बेटा-बेटी स्कूल और मलकिनी वट-सावित्री पूजा करने गई थीं मुहल्ला में। जब हम झाडू देने साहेब के कमरा में गए  तब हमरा (हमारा) हाथ से झाडू छीन के  फेंक दिए और हमरा (हमको) अपने पलंग पर बैठा लिए। कइसहूँ (कैसे भी) जान-प्राण आ (और) इज्ज़त बचा के भाग के आये वहाँ से। पूरा हाथ छिला गया है। अब भलुआ के ना पढ़ाइए भलुआ के बाबू !!! "
" पगली! सब इंसान एक जइसन (जैसा) ना होता है ना! चुप !!... " इतना कह कर परोसी गई थाली फिलहाल परे सरका कर को भर अंकवारी पकड़ कर चुप कराने लगे भलुआ के बाबू जी ... भलुआ की मम्मी को । उसकी छाती की हिचकी को अपने सीने के स्पीड- ब्रेकर से रोकने की कोशिश करते हुए।
भलुआ दूर चुपचाप खड़ा टुकुर-टुकुर बाबू जी को देख कर सोच रहा है कि ... बाबू जी डाँटने के बदले मईया को अंकवारी में पकड़ कर प्यार क्यों कर रहे हैं भला !!? टी.वी. में सीरियल देख-देख कर प्यार करना कैसे होता है, इतना ही भर वह जान चुका है। अभी तो वह तीसरी कक्षा में ही है ना ...




Monday, September 2, 2019

"एक सवाल पुरखों से" . ( तीज के बहाने - एक कविता ) ...

अपने सुहाग की दीर्घायु और
मंगलकामना करती हुई
तीज-त्योहार मनाने के बहाने
सम्प्रदाय विशेष की सारी सुहागिनें
निभाती हैं पुरखों की परम्परा और
विज्ञान की मानें तो बस अंधपरम्परा
साथ ही चौबीस वर्षों से
लाख रोकने पर भी
इसी समाज का एक अंग -
मेरी धर्मपत्नी भी मेरी बातों
और सोचों की कर के अवहेलना ...

मीठे-सोंधे मावा-सी अपनी
अनकही कई बातें जो
अपने मन की पूड़ी में बंद कर
गढ़तीं हैं यथार्थ की गुझिया
और अपनी दिनचर्या की
मीठी-मीठी लोइयों को
ससुराल की दिनचर्या के
काठ वाले साँचे में ढालने जैसी
थापती हैं साँचे पर ठेकुआ

कभी गर्म तवे या फिर कढ़ाई से
या कभी-कभी पकौड़ियाँ
या मछली तलते समय
गर्म तेल के छींटों से
अपनी हथेलियों या बाहों पर
कलाई से केहुनी तक उग आये
अनचाहे जले के कई दागों को
मेंहदी रच-रच के छुपाती हैं
कर के तीज-त्योहार का बहाना

सोचती हुई कि कभी-कभार ही सही
तीज-त्योहार में ही सही
साल भर संभाल कर रखे हुए संदूकों
या फिर ड्रेसिंग-टेबल के दराजों से
निकाले और खोले गए
शादी की सिन्दूरी रात वाले
काठ के सिंधोरे की तरह
काश ! ... कभी-कभार ही सही
निकाल पातीं ... खोल पातीं ...
सबके सामने बस बेधड़क
मन का कुछ अनकहा-अनजिया सपना

पर हर साल ... एक ही सवाल ...
अपनी धर्मपत्नी से तीज की शाम
आप सबों से भी है इस साल कि ...
"बचपन में होश सँभालने के बाद से
वैसे तो मेरे जन्म के पहले से ही
अपनी शादी वाले साल ही से
अम्मा हर साल तीज "सहती" थीं
आज पिछले बारह सालों से
काट रहीं हैं विधवा की दिनचर्या
क्यों भला !???...
कोई भी बतलाओ ना जरा !!!!!!!! ...

पड़ोस की "शबनम" चाची आज भी तो
खुश हैं पापा के उम्र के खान चाचा के साथ
बिना किसी भी साल तीज किये हुए
और वो "मारिया" आँटी भी तो
जो लगभग हैं अम्मा के उम्र की
जॉन अंकल के साथ जा रहीं चर्च
बिना नागा हर रविवार .. लगातार
बिना मनाए कभी भी तीज-त्योहार
क्यों भला !???...
कोई भी बतलाओ ना जरा !!!!!!!! ...

चलते-चलते मुझ बेवकूफ़ का
और एक सवाल पुरखों से कि
क्यों नहीं बनाए आपने एक भी
परम्परा पूरे वर्ष भर में ... जिसमें
पुरुष-पति भी अपनी नारी-पत्नी की
दीर्घायु और मंगलकामना की ख़ातिर
करता हो कोई तीज-त्योहार !??? ...

Sunday, September 1, 2019

सबक़ (एक कविता).

अपने घर ...  एक कमरे के
किसी कोने में उपेक्षित-सा पड़ा
अपने स्कूल के दिनों का
जर्जर-सा शब्दकोश
अपने सात वर्षीय बेटे के लिए
मढ़वाने पँहुचा था एक शाम
एक जिल्दसाज की दुकान

देखा वहाँ पुस्तकों की ढेर में
सफ़ेद से मटमैले हो चुके
बेहद पुराने-से
मढ़ने के लिए रखे हुए
साथ-साथ ... रामायण और कुरान

फेरता कम्पकंपाता हाथ
पूरी तन्मयता के साथ
वही बूढ़ा जिल्दसाज
जिन पर था लगा रहा
तूतिया मिली हरी गाढ़ी
लेई एक-समान

अनायास कहा मैंने -
" ज़िल्दसाज़ चचाजान !
काश ! दे पाती सबक़
आपकी ये छोटी-सी दुकान
उन दंगाईयों की भीड़ को
जो बाँट कर इंसान
बनाते हैं ... हिन्दू और मुसलमान ...




{ ना तो मैं कोई स्थापित रचनाकार हूँ, ना ही साहित्य या व्याकरण का दंभी ज्ञाता या पुरोधा हूँ। बस "शौकिया" लिखता हूँ। अतः आप सभी से अनुरोध है कि मेरी रचना की अशुद्धियाँ , मसलन - वर्तनी, लिंग, नुक़्ता, अनुस्वार में कोई भूल रह जाए तो ... '"उसे क़ुदरत द्वारा "स्टीफन विलियम हॉकिंग" को रचते समय की गई भूल की तरह स्वीकार कर लीजिये। शब्दों की भावना पढ़िए , उसकी अपंगता की खिल्ली मत उड़ाइए।"" } ...