Saturday, August 14, 2021

क्षुप कईं मेंथा के ...

जब कभी भी तुम ..
रचना कोई अपनी रूमानी 
और तनिक रूहानी भी,
अतुकान्त ही सही, पर ...
बटोर के चंद शब्दों को 
किसी शब्दकोश से, 
जिन्हें .. टाँक आती हो,
मिली फुरसत में हौले से,
नीले आसमान पे, किसी वेब पन्ने के;
तूतिया मिली अपनी अनुभूति की,
भावनाओं की गाढ़ी लेई को 
लपेसी हुईं मन की उंगलियों से
और फिर .. औंधी पड़ी बिस्तर पर या 
सोफ़े पर, मन ही मन मुस्कुराती हो,
या .. कभी 'बालकॉनी' में खड़ी,
गुनगुनाती हो, तो ..
तो उग ही आते हैं हर बार,
महसूस कर-कर के स्वयं को उनमें,
सितारे .. ढेर सारे .. टिमटिमाते, 
आँखें मटकाते, मानो .. आश्विन महीने के,
धुले और खुले आकाश में,
एक रात की तरह, अमावस वाली .. बस यूँ ही ... 

हरेक पंक्ति होती है जिसकी, मानो .. 
हो शाम से तर क्यारी कोई,
चाँदनी में जेठ की पूनम की,
मंद-मंद सुगंध बिखेरती,
रात भर खिली रजनीगंधा की।
या फिर सुबह-शाम वैशाख में 
हों सुगंध बिखेरते क्षुप कईं मेंथा° के,
सभी खेतों में बाराबंकी या बदायूँ के।
नज़र आते हैं, झूमते .. हरेक शब्द भी,
जैसे .. पसाने के बाद माँड़,
मानो .. करने के लिए फरहर°°भात,
झँझोड़ने पर भात भरे तसले को, 
अक़्सर .. झूमते हैं झुमके 
या कभी झूमतीं हैं,
जुड़वे कानों में तुम्हारे,
लटकीं तुम्हारी जुड़वीं बालियाँ। 
नज़र आते हैं हर अनुच्छेद, 
थिरकते हुए अनवरत, 
मानो थिरकते हैं अक़्सर ..
'शैम्पू' किए, तुम्हारे खुले बाल,
जब कभी भी तुम, किसी सुबह या शाम,
खुली छत पर अपनी, कूदती हो रस्सी .. बस यूँ ही ...


मेंथा° = हमारे देश- भारत के उत्तर प्रदेश राज्य वाले बाराबंकी और 
               बदायूँ ज़िले में पुदीना की ही एक संकर प्रजाति के "मेंथा"     
               नामक क्षुप की खेती होती है, जिससे देश के कुल 
               उत्पादन का आधे से अधिक "मेंथा का तेल" उत्पादित 
               किया जाता है। 
               इस तेल का लगभग तीन-चौथाई भाग निर्यात किया जाता 
               है। इसी के रवाकरण (Crystallization) से पिपरमिंट 
               (Peppermint) बनाया जाता है। इसके खेत दूर से ही 
               एक सुकून देने वाले महक से महकते हैं। वैसे .. पिपरमिंट 
               मिले कुछ खाद्य पदार्थों के स्वाद तो आप सभी ने ही ..
               चखे ही होंगे .. शायद ...
फरहर°° =  फरहर = फरहरा = चावल से पका ऐसा भात जो एक-
                 दूसरे से लिपटा या सटा हुआ न हो ,  ( फार = अलग - 
                 अलग )। 】




Thursday, August 12, 2021

कभी-कभार ही सही ...

पालथी मरवाए या कभी
करवा कर खड़े कतारों में,
हाथों को दोनों जुड़वाए, 
आँखें भी दोनों मूँदवाए, 
बचपन से ही बच्चों को अपने,
स्कूलों - पाठशालाओं में उनके, 
हम सभी ने ही तो ..
समवेत स्वरों में कभी पढ़वाए,
तो कभी लयबद्ध गववाये ...
" त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
  त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
  त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव,
  त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं। " .. बस यूँ ही ...
 
बड़े होकर तभी तो वही बच्चे,
आज भी या फिर ताउम्र मूंदे,
हमारी तरह ही अपनी-अपनी आँखें , 
झुंड में ही अक़्सर सारे के सारे ;
वही सब बतलाए गए .. समझाए गए,
ज़बरन पहचान करवाए गए,
उन्हीं "माता-पिता" विशेष और
"बंधु-सखा" विशेष के आगे,
आए दिन कतारबद्ध हैं नज़र आते।
वो भी .. भेज कर अनाथ आश्रम 
आजकल जैविक "माता-पिता" को ये अपने।
धरा के "बंधु-सखा" को भी ये अपने 
अक़्सर ही तो इन दिनों हैं ठुकराते .. शायद ...

बौद्धिक क्षमता के बलबूते पर अपने,
संग सहयोग से योग्य शिक्षकों के,
देख कर चहुँओर की बहुरंगी दुनिया भी
और पढ़ कर पुस्तकों को सारे,
ये यूँ "विद्या" तो हैं, पा ही लेते।
पर "द्रविणं" का अर्थ ..
ठीक से .. शायद ...
समझाया नहीं इनको हम सब ने।
तभी तो पड़े हैं धोकर हाथ ये सारे,
आज तक सब कुछ ठुकराये, 
सब कुछ बिसराये,
बस और बस .. केवल .. 
"द्रविणं" के आगे-पीछे .. शायद ...

परे .. इस धरती और उस ब्रह्माण्ड के,
धरती के इंसानों और प्राणियों से भी परे,
छोड़ कर इन प्रत्यक्ष संसार को, 
जो हैं ख़ुद ही भरे-पूरे, 
ज़बरन फिर इन्हें .. अबोध मासूमों को,
एक अनदेखी दुनिया को,
भला क्यों ... दिखलायी हमने ?
काश ! .. कि हम कभी इन्हें,
संग-संग इन तथाकथित प्रार्थनाओं के ही 
या फिर इन सब के बदले में,
केवल इंसान और इंसानियत के, 
संग-संग अच्छी नीयत के भी ..  
कभी-कभार ही सही .. 
पर .. पाठ पढ़ाते .. बस यूँ ही ...




Wednesday, August 11, 2021

ज्वलंत समस्या दिवस ...

हम ने गत वर्ष इसी माह अपनी बतकही के तहत "हलकान है भकुआ - (१)" शीर्षक के साथ ही, आगे भी एक श्रृंखला के सिलसिले के बारे में सोची थी, पर नियमित हो ना पाया। वैसे हमारा ही नहीं, आप सभी का भी, भकुआ नाम का यह चरित्र (काल्पनिक) आज भी निरन्तर अपनी हलकानी से परेशान रहता है बेचारा ... च् .. च् .. च् ... 
पर आज वह मन ही मन बहुत ही खुश है, इसी से आज की बतकही के अंत में उसकी ख़ुशी देख कर कर, शीर्षक में हम "हलकान है भकुआ - (२)" नहीं लिख पाए। वैसे इस शीर्षक से भी शीघ्र मिलवाने की चेष्टा रहेगी हमारी। फ़िलहाल तो .. आइए, देखते हैं, हमेशा हलकान रहने वाले भकुआ की आज की मिलने वाली ख़ुशी की वह अनूठी वजह क्या है भला ! .. बस यूँ ही ...

ज्वलंत समस्या दिवस ...
" जैसे इन दिनों कई राज्यों की सत्तारूढ़ सरकार द्वारा हर महीने के पहले और तीसरे मंगलवार को या कभी-कभी शनिवार को भी "संपूर्ण समाधान दिवस" आयोजित किया जाता है ; ठीक वैसे ही उसके उलट, सरकार के विरोध में इस बार की मासिक गोष्ठी या दो महीने बाद होने वाले वार्षिक सम्मेलन का विषय हम लोग रखते हैं -"ज्वलंत समस्या दिवस"। " - 'हॉल' में 'माईक' पर यह आवाज़ गूँज रही है .. शहर की एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्ष महोदया - श्रीमती रंजना मिश्रा जी 'पोडियम' के पीछे से बोल रही हैं  - " किसी को कोई संदेह हो, तो अभी स्पष्ट कर लीजिएगा आप लोग और ये कब होना है, उस की तारीख़ और समय भी आप लोग विचार विमर्श कर के, सबकी उपस्थिति की सुविधा को जानते-समझते हुए, आपस में तय कर के हमको आज ही जाने से पहले बतला दीजिए। वैसे .. 'वेन्यू' तो आप सभी को पता ही है। बस यहीं, जहाँ अभी हम सभी, हर बार की तरह उपस्थित हैं, चाय और समोसे के साथ। "

अध्यक्ष महोदया के अन्तिम वाक्य कुछ-कुछ उनके चुटीले अंदाज़ में बोलने के कारण, हॉल में उपस्थित सदस्यगण में से, प्रतिक्रियास्वरुप कुछ लोग मौन मुस्कुराहट, तो कुछ लोग अपने-अपने, अलग-अलग तरीके से हँस कर उनके अंदाज़-ए-बयां का अनुमोदन करते नज़र आ रहे हैं। कभी अध्यक्ष महोदया की तरफ, तो कभी आपस में एक-दूसरे की ओर देख कर सहमति जताते नज़र आ रहे हैं ; मानो उनकी आँखें कह रही हो - " वाह ! दी' (दीदी) आपने तो सच में कुछ क़माल-सा कर दिया है। "

"आरक्षण जैसी समस्या पर तो बोल सकते हैं ना दीदी ? " - ये इस संस्था की एक कर्मठ सदस्या - ताप्ति सिंह द्वारा पूछा गया, एक ऊहापोह भरा सवाल भर था।

"आरक्षण को समस्या मत बतलाइए, बल्कि आरक्षण का प्रतिशत जाति-विशेष के कल्याण के लिए नहीं बढ़ रहा है , उसे समस्या बतलाइए। कई समुदायों को तो अभी तक आरक्षण नहीं मिला , उन सब बातों को समस्या बतलाइए। " - अध्यक्ष महोदया की खनकदार आवाज़ माइक पर गूँजी - "आप समझ रही हैं ना मेरी बात ? खुल कर नहीं बोलना चाहती थी, पर बोल रही हूँ, कि अपनी संस्था में कई सदस्य या सदस्या भी 'ओबीसी' हैं, कुछ जनजातीय और कुछ अन्य अल्पसंख्यक भी हैं। अब अगर ऐसे में आरक्षण के विरुद्ध, विरोध में आप कुछ भी बोलेंगी, तो उन सब को बुरा लगेगा। हो सकता है, कि वे लोग इस बात से रूष्ट होकर संस्था छोड़ कर चले जाएं। संस्था आखिरकार इन्हीं के पैसों से तो चलती है ना ?  समझ रही हैं ना, कि हम क्या कहना चाह रहे हैं ? हमें हमारी दुकान चलानी है तो .. सब को खुश रख के चलना होगा। हमें वही बोलना होगा, जिससे सब खुश रहें और अपनी दुकान भी चलती रहे। वैसे भी हमारे बोलने से कुछ थोड़े ही ना बदलाव आने वाला है जी। "

" तो .. दीदी ! बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर ? " - एक अन्य सदस्या - अनुजा सिन्हा का सामान्य-सा सवाल था।

"अरे .. ना .. ना .. ये बच्चे, बढ़ती आबादी .. ये सब भी कोई समस्या है भला ? अरे ! बच्चे तो ईश्वर के वरदान हैं, उनकी देन हैं, उनके काम में कैसे ख़लल डाल सकते हैं हम भला ? वही आबादी तो हमारी ताकत हैं। हम इसी के बल पर तो पड़ोसी दुश्मन को कम से कम इस मामले में जल्द ही पछाड़ने वाले हैं। हमारे भगवानों की भी तो अनेक संतानें थीं। पूज्य राम जी भी, अपने पिता जी की तीन पत्नियों से उपजे कुल चार पुत्रों में से एक थे। कौरव सौ, तो पांडव पाँच थे। कृष्ण जी भी देवकी की आठवीं संतान थे। श्री चित्रगुप्त भगवान जी की तो दो-दो पत्नियाँ और बारह संतानें थीं जी। " - अध्यक्ष महोदया तार्किक मुद्रा में समझाते हुए उत्तर दे रहीं हैं - " दरअसल .. समस्याएँ तो सरकार की है, जो सब को सम्भाल नहीं पा रही है। सब को रोजगार नहीं दे पा रही है, तो परिवार नियोजन का राग अलाप रही है। इसीलिए सारी समस्याएँ आप तो .. बस .. आप सत्तारूढ़ सरकार से जनित ही दिखलाइये। सारी आबादी को मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली देनी चाहिए सरकार को। समझ रही हैं ना आप ? इस से 'पब्लिसिटी' भी मिलेगी आपको। और फिर अपनी संस्था में ही तो कितनों की पाँच-पाँच संतानें हैं। किसी-किसी के तो मोक्ष प्राप्ति के लिए या वंश बढ़ाने के लिए ,  बेटे के ना पैदा होने के चक्कर में चार-चार, सात-सात बेटियाँ हैं। उनको भी तो बुरा लग सकता है यह विषय, है कि नहीं ? तो वही लिखिए, वही बोलिए, जिनमें सब खुश रहें आपसे। "

" हमारे 'एसी' जैसे उपकरण से उत्पन्न होने वाले 'ब्लैक होल' और उससे बढ़ते 'ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या पर तो बोल ही सकते हैं ना ? " - अब तक सब कुछ ध्यानपूर्वक मौन होकर सुन रहीं, ये एक नयी सदस्या तरन्नुम ख़ातून सवाल कर रहीं हैं।

" इस को ऐसे मत बतलाइए, बल्कि हमें बतलाना होगा , कि वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार , देश में वातावरण प्रदूषण नियंत्रित नहीं कर पा रही है। इसी कारण से 'ग्लोबल वार्मिंग' बढ़ रही है। " - अध्यक्ष महोदया फिर से समझाने लगीं -" सरकार एकदम से निकम्मी है। ऐसा ही कुछ आलेख तैयार कीजिए। "

" बाहरी घुसपैठिए शरणार्थी लोगों की अपने देश में बढ़ती आबादी की समस्या पर अगर बोलें तो कैसा रहेगा, दीदी ? " - एक युवा, पर पुरानी - सदस्या अंजना त्रिपाठी भी , जो अब तक बीच में उठ कर बाहर जा के , फोन आने पर, फोन पर किसी से बात कर रहीं थीं ; अंदर आते ही, मौका पाकर अपने मन की शंका को दूर करने के लिए पूछ बैठीं हैं।

" ये 'सीएए', 'एनआरसी', सब बेकार की बातें हैं अँजू। "बासुदेव कुटुम्बकम्" वाले देश में  बाहर के कुछ शरणार्थी, भावी वोट बैंक बन कर भारत में बस भी जाते हैं तो क्या बुराई है भला ? अरे ! .. पहले तो हमें, हमारी हिंदी में घुसी चली आ रही, घुसपैठिए अंग्रेजी को रोकना होगा। तुम समझ रही हो ? यह सब से बड़ी समस्या है। अब वे लोग बेशर्म हैं, कि हमारी "लाठी" लेकर, अपना "चार्ज" जोड़कर,  "लाठीचार्ज" बना लिए ; पर हम लोग तो उतने बेशर्म नहीं हो सकते हैं , कि विपत्ति में 'फेसमास्क', 'सेनेटाइजर', 'क्वारंटाइन', 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे शब्दों को धड़ल्ले से 'यूज' करते रहें। इन विदेशी घुसपैठिए शब्दों को हिंदी से जल्द से जल्द विस्थापित करना होगा, वर्ना हमारी हिंदी ग़ुलाम बन कर, घुट-घुट कर मर जायेगी। ये सरकार भी ना .. एकदम निकम्मी है। कुछ भी नहीं करती। यही सब तो .. सब से बड़ी समस्या है। इन सब समस्याओं पर बात करो। अपना नाम भी होगा, अपना काम भी होगा। तुम एकदम से फ़ालतू की - 'सीएए', 'एनआरसी' की बात ले कर बैठ जाती हो। "

तभी भकुआ तिवारी, जो अध्यक्ष महोदया के घरेलू नौकर हैं और इस तरह के सम्मेलनों-गोष्ठियों में अपनी "मैडम" जी के साथ सेवा करने के लिए प्रायः आते रहते हैं, जिन्हें बुज़ुर्ग होने के नाते इज्ज़त से, सभी उपस्थित सदस्यगण  तिवारी जी कहते हैं। वह अपने दाएँ हाथ में चाय की केतली और बाएं हाथ में उपस्थित लोगों की संख्या के अनुसार कुछ प्लास्टिक वाले चाय के कपों का एक खम्भानुमा ढेर लेकर प्रवेश करते है। बारह बजे के आसपास समोसा के साथ चाय की पहली ख़ेप इन्हीं के हाथों परोसी जा चुकी है। उन्हें शायद शाम के साढ़े चार बजे वाली दूसरी ख़ेप की चाय परोसने के लिए भी पहले से ही कहा हुआ है। उसी का वह पालन भर कर रहे हैं .. शायद ...

एक-दो मिनट के लिए सभी की हलचल भरी हरक़तें बढ़ सी गई, क्यों कि अभी माइक मौन है। अब फिर से सब सामान्य हो गए हैं। भकुआ तिवारी जी चाय परोस रहे हैं। सभी की कुर्सी तक वह एक-एक कर जा रहे हैं और लोग बारी-बारी से ऊपर से एक कप खींच कर केतली की ओर बढ़ाते जा रहे हैं। अब फिर से लगभग शांति व्याप्त हो गई है। सब का ध्यान मंच पर। यह अलग बात है, कि कभी-कभार बीच-बीच में किसी-किसी के मुँह से चाय सुरकने की आवाज़ - "सुर्र -सुर्र" करके सुनायी दे जा रही है। 

मंच पर विराजमान माइक से अध्यक्ष महोदया - श्रीमती रंजना मिश्रा जी की आवाज़ हॉल में फिर से गूँजी - " आप समस्या का विषय भी चुनें तो उनमें पैनी बातें मत कहिए। इस से आपकी साख खराब होती है। सोशल मीडिया पर आपके 'फॉलोवर्स' घटते हैं। आपकी पोस्ट पर कोई 'लाइक' या 'कमेंट' नहीं करता है। ऐसे में 'सोसाइटी' में आपकी 'स्टेटस' को धक्का पहुँचता है। है कि नहीं ? समझ रहे हैं ना आप लोग। आप सभी को यहाँ, आप लोगों के ही बीच आज उपस्थित संध्या अग्रवाल जी से सबक़ लेनी चाहिए। सोशल मीडिया पर इनके एक लाख से ज्यादा 'फॉलोवर्स' हैं। हजारों की संख्या में 'लाइक', 'कॉमेंट्स' आते रहते हैं इनके पोस्ट पर। इनकी तरह कोई रूमानी गज़ल लिखिए। समय-समय पर त्योहारों के अनुसार पैरोडी भजन लिखिए। सभी व्रत-उपवास की महिमा लिखिए ; जिन से मद्यपान, ध्रूमपान जैसी बुरी लतों के बावज़ूद भी सबके पति की आयु लम्बी हो जाती हो, ताकि सब औरतें अपने पति से पहले सुहागिन ही मरें। " - अचानक अध्यक्ष महोदया, सामने 'पोडियम' पर रखे 'मिनरल वॉटर' की बोतल को मुँह से लगा कर, लगातार बोलने के कारण, अपने सूखते गले को तर कर के, एक नज़र घड़ी पर डालते हुए बोलीं - " वैसे भी समस्या के बारे में सोचना साहित्यकार का काम नहीं है, बल्कि सरकार का है, हम 'टैक्स' क्यों भरते हैं ? इसी के लिए ना ? 
समझ रहे हैं ना आप लोग .. हम कहना क्या चाह रहे हैं ? "

समवेत स्वर में आधा से ज्यादा, लगभग तीन चौथाई सदस्यों ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा - कोई " हाँ 'मैम' ", कोई " हाँ दीदी " ..  आप सोलह आना सच कह रही हैं। "

" इसीलिए तो दीदी हम .. कभी भी किसी समस्या पर लिखते ही नहीं। हमेशा प्राकृतिक सुन्दरता को लेकर शब्द-चित्र बनाते हैं। अरे दीदी, आप ठीक ही कह रही हैं, कि समस्या को दूर करने के लिए सरकार तो हैं ही ना ! फिर भगवान भी तो हैं ही ना दीदी ! बुजुर्गों की बात को आज कल हम नए फैशन में भुलते जा रहे हैं, कि - होइए वही जो राम रचि राखा। है कि नहीं ? "- यह शालिनी श्रीवास्तव जी बोल रही है। बोलते-बोलते कई दफ़ा उनकी जीभ, उनके होठों पर पुते 'लिपस्टिक' की परतों को मानों किसी राजमिस्त्री की "करनी" की तरह स्पर्श कर-कर के उसे अपनी जगह पर जमे रहने के आश्वासन देने का काम कर रही है।

"आप सही कह रहीं हैं शालिनी जी। अरे लिखना ही है तो रूमानी लिखिए, ग़ज़ल लिखिए, चाँद लिखिए, चाँदनी लिखिए, कोई धार्मिक कथा लिखिए, किसी दिवस विशेष पर लिखिए या फिर किसी शहीद की मौत पर अपने वातानुकूलित कमरे में चाय की चुस्की के साथ मर्सिया लिखिए .. समस्याओं को तो हमेशा रहनी है। किसके पास समस्या नहीं है जी ? घर-घर में तो समस्या ही समस्या है। फिर ऐसे में किसी रोने-धोने वाली मनहूस "आर्ट फ़िल्म" या "दूरदर्शन" की किसी 'टीवी सीरियल' या 'टेलीफिल्म' की तरह , समस्याओं की कालिख से पुती आपकी नीरस पोस्टों को कौन पढ़ेगा जी ? " - ये शुरू से मौन, एक सभ्य सदस्य - श्री मनोज यादव जी हैं - " एकदम सही कह रही हैं आप। "

" समाज में किन्नरों की समस्या पर भी बोल सकते हैं आप लोग। पर इसका ये मतलब नहीं है, कि हमारा समाज ही किन्नर बन कर मूक बैठा है, आप इसको ही समस्या बतलाइए। कभी नहीं। ये बतलाने की क्या जरूरत पड़ी है ? " - बीच में अध्य्क्ष महोदया फिर से बोल पड़ीं हैं।

तभी बाहर ही एक 'स्टूल' पर बैठे भकुआ तिवारी जी अचानक से अंदर प्रवेश करते हैं। अंदर उपस्थित लोगों को भी बाहर से कुछ अनचाहे शोर सुनायी पड़ रहे हैं। सबका ध्यान अब तिवारी जी और बाहर से आने वाले शोर की तरफ खींच जाता है।
" मैडम ! बाहर सड़क किनारे के कूड़े की ढेर पर, वो समोसे वाले जूठे कागज़ी प्लेट और चाय वाले जूठे कप फेंके थे, तो उसी को देख कर कुछ हिजड़े आ गए हैं, गेट के भीतर। उनको लग रहा है, कि कोई भोज-भात है यहाँ पर। " - एक साँस में तिवारी जी अध्यक्ष महोदया को, हिजड़ों से जल्द-से जल्द छुटकारा पाने की घबराहट में बोल गए हैं।

" मंजरी जी ! तिवारी जी को दस रुपए दे दीजिए। " अध्यक्ष महोदया ने अपनी नाक पर नीचे की ओर सरक आई, अपनी चश्मे को नाक पर वापस ऊपर चढ़ाते हुए , संस्था की कोषाध्क्षय महोदया को आदेशात्मक लहज़े में अभी बोल रही हैं - " संस्था के ख़र्चे में चढ़ा दीजिएगा।" फिर मंजरी जी के 'पर्स' से निकल कर, दस रुपए का एक नोट, तिवारी जी के हाथ में जाते ही, अध्क्षय महोदया अपनी बात को तिवारी जी की ओर मुख़ातिब हो कर बोल रहीं है - " ये दस रुपया देकर भगाइए उन सब को जल्दी। ना जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं ये लोग ? अपने पिछले जन्मों का ही तो फल भुगत रहे हैं ये लोग। "

" जाति- धर्म में बंटे हमारे इस समाज की हो रही दुर्गति को तो समस्या बतला कर कुछ लिख सकते हैं ना 'आँटी' जी ? " - ये है सुमन झा, जो अभी-अभी स्नातक हुआ है और एक तयशुदा राशि की भुगतान कर के इस संस्था का नया-नया सदस्य बना है, का एक हिचकता हुआ-सा प्रश्न है। हिचकता हुआ-सा, क्योंकि अब तक तो वह सारी समस्याओं के विषयों पर अपनी 'आँटी' जी की नकारात्मक प्रतिक्रिया ही सुनता आ रहा है।

" सुमन, तुम अभी बच्चे हो। हमारे बाल धूप में नहीं सफ़ेद हुए हैं। हम लोगों ने दुनिया देखी है बेटा। अभी तुम नए-नए आये हो यहाँ, शायद आज दूसरी बार, यूँ ही आते रहोगे तो, बहुत कुछ सीखने के लिए मिलेगा। ये धर्म, जाति, पंथ वाले बँटवारे हमारी समस्या नहीं है, बल्कि हमारी धर्म निरपेक्षता कम हो गयी, यही समस्या है। " - अध्यक्ष महोदया अपनी बुज़ुर्गियत टपकाती हुई, अपनी नसीहत देती, अपनी गर्दन अकड़ाती हुई बोल रही हैं - " वैसे भी तुम अपनी ही बिरादरी के, ब्राह्मण हो, तो जल्दी ही सीख जाओगे। जानते हो, ये 'सीएए', 'एनआरसी' जैसी बला ला कर और 370, तलाक़ जैसे मुद्दे को हटा कर, देश से धर्म निरपेक्षता की भावना को कम करते हुए, देश को बर्बाद करने पर तूली हुई है । "

" जी ! आँटी जी। फिर और कुछ विषय पर सोचते हैं। आप जैसा कहेंगी, जिस विषय के लिए मार्गदर्शन करेंगी, उसी पर लिखेंगे, बोलेंगे। " - अपनी 'आँटी' जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए, कुछ-कुछ संदेहात्मक सोच के साथ सुमन झा बोल रहा है।

यूँ तो गोष्ठी अभी और भी एक घण्टा भर चलने वाली है। इसकी समाप्ति पर सभी लोगों के वापस जाने के लिए हॉल से बाहर निकलने के पहले बाहर 'स्टूल' पर किसी द्वारपाल या आदेशपाल की तरह बैठे 'तिवारी जी' अपने एक झोले में कुछ रख रहे हैं। ज्यादा कुछ नहीं, बस दो-तीन सदस्यों के बीच में ही चले जाने से बच गए समोसे हैं। मसलन - दीपाली जी की सास की तबीयत अचानक बिगड़ जाने के कारण, उनके घर से फोन आने पर मन मार कर, सब को 'सॉरी' बोल कर जाना पड़ा है। मनीषा जी के पति को अचानक 'ऑडिट' के लिए सरकारी दौरे पर शाम की 'फ्लाइट' से बाहर जाने के सरकारी आदेश मिलने से, उनके जाने की 'पैकिंग' के लिए बीच में ही जाना पड़ गया है। दीप्ति का 'बॉय फ्रेंड' आज अपने घर पर अकेले है, परिवार के सभी लोग सिनेमा देखने गए हैं, 'नून शो' शायद। तो दीप्ति भी इस सुनहरे अवसर के लुत्फ़ के लिए, अपनी मम्मी की अचानक बीमारी का बहाना बना कर जा चुकी है। 
साथ ही तिवारी जी उस बड़े-से डिब्बे को भी अपने झोले में अंटा रहे हैं, जो पिछले परसों मनाए गए शब-ए-बारात के विशेष हलवे से भरे हुए, आज तरन्नुम ख़ातून मैडम द्वारा उनके 'मैडम' जी को सुबह मिले थे। मैडम जी ने पूरा का पूरा डिब्बा, जस का तस, सब की नज़रों से बचा कर सुबह ही तिवारी जी को दे दीं हैं। भकुआ तिवारी जी को उनके घरेलू नौकर होने के कारण ही अच्छी तरह मालूम है, कि मैडम जी ये सब मामले में बहुत ही नियम से रहती हैं। "छुआ" पानी तक नहीं पीती हैं।
भकुआ तिवारी जी अपने मैडम जी की आज की सुनी हुई, कुछ समझी हुई, कुछ ना समझी गयी बातों में, केवल इस बात से ही खुश हैं, कि बेकार ही में वह अपने मात्र छः बच्चों, पाँच बड़ी बेटियाँ और बहुत ओझा-गुणी, मनौती-मन्नत के बाद मिले, सब से छोटे कुलदीपक बेटे -धनेसरा, के कारण चिंतित रहते हैं। वो भी ससुरी सरकार के "परिवार नियोजन, परिवार नियोजन" टीवी पर दिन रात चिल्लाने से। मैडम जी कितनी अच्छी बात बोलीं हैं आज, कि भगवानो के (भगवान को) भी तो ओतना-ओतना (उतना-उतना) बच्चा हुआ है। तो .. हम लोग तो उनकरे (उन्हीं के) बनाए इंसान हैं ना ? आज घर जा के अपनी मेहरारू (जोरू) झुमरिया को भी ये सब बतलायेंगे। वो तो छौये गो ( छः ही) बच्चे में ही अपने लिए "अपरेसन" (ऑपरेशन) के लिए सोच रही है। झूठमुठ के अपने भी परेशान रहती है और हमको भी परेशान करती है .. .. पगली ...







 

Tuesday, August 10, 2021

आसमां में कहीं पर ...

१) ख़ैर ! ...

क़ुदरत सब के साथ है, अपना हो या गैर।
वक्त कितना भी हो बुरा, हो जाएगा ख़ैर .. शायद ...

२) आसमां में कहीं पर ...

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

खुली हैं यूँ तो यहाँ तेरे नाम पर, दुकानें कई मगर,
कहीं भी उन में तो तू आता नहीं, कभी हमें नज़र।
है भी क्या वहाँ तुझे, इस लुटती दुनिया की ख़बर ?
सुरा और अप्सरा से परे, चल बता ना ओ बेख़बर !

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

चीत्कारों की चिंता नहीं तुझे, होता ना कोई असर।
जाति-धर्म, रंग-आरक्षण के होते वहाँ पे भेद अगर,
होती न का तब भी तुझे ठिकाने मिटने की फ़िकर ?
गोह, गैंडे की चमड़ी से भी है ज्यादा, तू तो थेथर।

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

होते हैं प्रभु तेरे नाम के आगे भी क्या  धनखड़,
सिंह, शेख, गाँधी, मोदी, मिश्रा, नायर, नीलगर, 
श्रीवास्तव, खान, पठान, कुरैशी, तिवारी, शर्मा, 
सिन्हा, सोलंकी, पिल्लई, चोपड़ा, दुबे, धनगर ?

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

बँटी है क्या तेरी दुनिया भी प्रभु, टुकड़ों में ऊपर,
अमेरिका, क्यूबा, नार्वे, नाइज़ीरिया, या नाइजर,
ऑस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, इटली, फ्रांस, मेडागास्कर,
भारत, पाकिस्तान, चीन, जापान, ईरान बनकर ?

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

सुना कि बनायी तूने ही धरती, हर नगर, हर डगर,
हो के पालनहार, तो क्यों अनदेखी कर देता जबर ?
लहू, बिंदी-सिंदूर, काजल-लोर जिनसे हैं रहे पसर।
खड़ा है क्यों सदियों से, सौ तालों में बना तू पत्थर।

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर .. बस यूँ ही ...




Sunday, August 8, 2021

ज़ालिम लोशन है ना !!! ...

ओलम्पिक में स्वर्ण पदक लाते ही, लाने वाले (नीरज चोपड़ा) की वाहवाही करते हुए कोई भी नहीं थक रहा। रजत पदक या कांस्य पदक लाने वालों (या वालियों) के साथ भी कमोबेश ऐसा ही किया जा रहा है। सब अपनी-अपनी औक़ात के मुताबिक़, अपने-अपने तरीके से 'सोशल मीडिया' के 'वेब पन्ने' को भर रहे हैं। परन्तु सबसे अचरज की बात तो ये है, कि जो इंसान बिना आरक्षण के सेना में सूबेदार के पद को ग्रहण किया और बिना आरक्षण वाले लाभ के ही, अपनी योग्यता के बलबूते टोक्यो के मैदान वाले ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ले कर अपने स्वदेश का नाम रौशन किया ; उस जैसे व्यक्ति को, देश के भविष्य की चिन्ता किए बग़ैर, अपने वोट बैंक के लिए रेवड़ी की तरह आरक्षण को बाँटने वाले और देश के स्वास्थ्य की बजाय, अपने स्वार्थ के लिए लंगर की तरह मुफ़्त में आरक्षण को भकोसने वाले लोग भी बधाई देने में तनिक भी शरमाते हुए नहीं दिखे .. उन्हें अपनी करनी पर किसी भी तरह की ग्लानि या मलाल के एहसास का कतरा मात्र भी नहीं। आपने इस बात को/पर ग़ौर किया क्या ??? ख़ैर ! .. छोड़िए भी इन बातों को .. बस ! .. जैसे चलता है , चलने दीजिए .. अब हम इन से परे रुख़ कर लेते हैं, आज की मूल बतकही की तरफ .. बस यूँ ही ...

अक़्सर बड़े-बड़े बुद्धिजीवी सुधीजनों और साहित्यकारों की बातें पढ़-सुन कर हम जैसे स्वान्तः सुखाय लिखने वाले नौसिखुए लोगों को भी यदाकदा  कुछ-कुछ सीखें मिलती रहती हैं .. बस यूँ ही ...

अपनी ही औलाद 'टॉपर' ... :-
पर कुछ-कुछ बातें अटकती भी हैं, अंटती ही नहीं हमारे भेजे में, लाख अटकलें लगा लें हम। मसलन - समाज में किये गए तथाकथित सवर्णों और पिछड़ी जातियों की तरह ही, बहुतेरे बुद्धिजीवी ब्लॉगर (माफ़ कीजियेगा - चिट्ठाकार लोग) "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक" को भी दो अलग-अलग वर्गों में बाँट कर देखते है। साथ ही, हमने अक़्सर तथाकथित उन जैसे चिट्ठाकारों को उपरोक्त "अल्पसंख्यक" वाली ख़ुशफ़हमी में  देखा-पढ़ा-सुना है, कि वह अपने आप को तुलनात्मक कुछ उच्च श्रेणी का महसूस कर अपनी गर्दन अकड़ाते थकते नहीं हैं। जबकि "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक", दोनों ही विभिन्न उपग्रहों के रहमोकरम पर चलने वाले और विदेशों से उधार लिए गए सोशल मीडिया के शुद्ध वैज्ञानिक वेब पन्ने हैं। वैसे भी इन दोनों के अलावा, अन्य और भी कई सोशल मीडिया के मंचें भी, ना तो किसी तथाकथित विश्वकर्मा भगवान के निर्माण के हिस्सा हैं और ना ही तथाकथित हनुमान जी द्वारा लायी गयी संजीवनी बूटी की तरह लाए गए हैं ; बल्कि विश्वस्तरीय वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के ये परिणाम है। वैसे तो स्वदेश - प्रेम एक अच्छी बात है, लेकिन हमें इतना भी अँधा प्रेम नहीं होना चाहिए, कि केवल अपनी ही औलाद 'टॉपर' दिखे और मुहल्ले या शहर भर की फिसड्डी .. शायद ...
यूँ तो .. तुलना की जाए, तो "फ़ेसबुक" कई सारे मामलों में "ब्लॉग" से ज्यादा ही सुगम और सरल है। इसी कारणवश इसके उपभोक्ता भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा हैं, तो वहाँ भीड़ भी ज्यादा है। अगर हम "फ़ेसबुक" को भी धैर्यपूर्वक खंगालेंगे, तो वहाँ भी साहित्य की कई-कई प्रसिद्ध हस्तियाँ हमको मिल जायेंगीं ; जो हम (?) और आप जैसों से कई गुणा बेहतर भी हैं। वहीं दूसरी ओर 'ब्लॉग' पर भी आपको मुझ जैसे टुच्चे विचरते नज़र आ ही जाते हैं, जो तथाकथित सभ्य, सज्जन साहित्यकार या चिट्ठाकार लोगों की श्रेणी में कतई नहीं आते हैं .. बस यूँ ही ...
वैसे भी "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक" के वर्ग विभाजन की हमको कोई ठोस वजह नज़र नहीं आती है। हो सकता है .. शायद ये मेरी अज्ञानता हो। हमें तो लगता है , कि ITC की मँहगी बिकने वाली कॉपी- Classmate या JYOTI PAPER INDUSTRIES की Jyoti कॉपी पर रामायण या हनुमान चालीसा लिखी जाए या फिर किसी साधारण कागज पर; तो तीनों परिस्थितियों में, किसी आस्तिक हिंदू की नज़र में, धार्मिक दृष्टिकोण से तो वह समान ही महत्व रखेगा ना !? फिर .. अगर देखा जाए, तो ऑस्कर अवार्ड प्राप्त फ़िल्मों के लिए कोई अलग सिनेमा हॉल भी तो नहीं होता है। वो सारी फ़िल्में भी तो लगती हैं, उसी मल्टीप्लेक्स में, जहाँ "शोले" जैसी चलताऊ या "जय संतोषी माँ जैसी भ्रामक फ़िल्में चलती हैं।  हाँ ... उनमें जाने वाले दर्शकों के वर्ग अपनी-अपनी दिलचस्पी के अनुसार जाते हैं। फ़िल्में निम्न या उच्च हो सकती हैं, पर सिनेमा हॉल से उसके अच्छी या बुरी होने की बात तय नहीं हो सकती है। उसी तरह, रचनाएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं, पर उसको पोस्ट किए जाने वाले वेब पन्ने, "ब्लॉग" या "फ़ेसबुक" होने के कारण, अच्छे हैं या कि बुरे हैं, उच्च हैं या निम्न हैं, ये कदापि तय नहीं किए जा सकते .. शायद ...

दाल-भात सान कर ... :-
वैसे भी तो, "ब्लॉग" तो एक साधन मात्र ही है, हमारी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति या प्रस्तुति का ; जहाँ समस्त विश्व में, अन्य और भी कई -कई विषयों पर "ब्लॉग" बनी पड़ी हुई हैं। कुछेक लोगों के तो खुद ही के, कई-कई तरह के विषयों पर भी अलग-अलग कई "ब्लॉगें" हैं। इस बात पर भी कुछेक लोग अपनी गर्दन अकड़ाते नज़र आते हैं। मुझ जैसे अल्पज्ञानियों के तो केवल और केवल एक ही "ब्लॉग" है - "बंजारा बस्ती के बाशिंदे" के नाम से। पर इनमें कोई हेटी जैसी बात नहीं मानी जानी चाहिए। ये भी केवल या मात्र, अपनी-अपनी पसंद की बात है। कोई भात और दाल अलग-अलग खा ले या कोई एक साथ सान कर खा ले, बात बस पसंद की है ; परन्तु इन दोनों ही परिस्थितिओं में किसी एक की भी हेटी की बात नहीं होनी चाहिए। प्रसंगवश .. एक मजे की बात है, कि हम उत्तर भारतीय लोग, दक्षिण भारतीय व्यंजन- इडली-सांभर को अलग-अलग खाते हैं, जब कि वहीं दक्षिण के लोग, हम उत्तर भारतीयों की तरह दाल-भात सान कर खाने जैसा ही , इसे एक साथ सान कर खाते हैं। बस .. तरीक़ा अपना-अपना, पसंद अपनी-अपनी .. फिर अपने कई "ब्लॉगों" के होने पर अपनी गर्दन क्यों अकड़ानी भला !?

गंगू हलवाई के लड्डू ... :-
यूँ तो अक़्सर कुछ सज्जन सुधिजन किसी भी क्षेत्र या विषय विशेष में स्वयं को "सबसे पुराना" विशेषण से विभूषित कर के भी अपनी गर्दन अकड़ाते पाए जाते हैं। पर किसी भी क्षेत्र में पुराना होना, अत्यधिक अनुभवी होने की "प्रमाणिकता नहीं भी" हो सकती है और बाद में आए, एकदम से नए की श्रेणी में होना, अल्पज्ञानी होने की "वजह भी नहीं" हो सकती है .. शायद ... मसलन - किसी मुहल्ले के किसी पुराने गंगू हलवाई के लड्डू ना जाने कब, हल्दीराम के 'ब्रांडेड' लड्डू के सामने फ़ीके पड़ गए ; ये बात उस गंगू हलवाई को भी पता ही नहीं ; क्योंकि उसे अपनी कढ़ाई में पिघलते-जलते "नेपाली डालडे" से उठते धुएँ में, सब कुछ धुंधला ही नज़र आता है .. शायद ...

"दाद" लेने की "खुजली" बनाम ज़ालिम लोशन है ना !!! ... :-
अक़्सर हम जैसे नौसिखुए लोग, दिग्गज़ों से सुनते-पढ़ते हैं, कि तथाकथित कुछ अलग-सी, "सर्वाधिकार सुरक्षित"  या "Copyright Reserve" वाली विशिष्ट, 'ब्रांडेड', ब्लॉग की दुनिया में एक दूसरे की पीठ खुजलाने जैसी कोई प्रथा या रीति-रिवाज़ भी है .. शायद ...  अब ये कोई लोकोक्ति हो या मुहावरा, जो भी हो, पर वैसे भी पूरे बदन की खुजली को तो हम भी खुद ही खुजा लेते हैं, सिवाय अपनी पीठ के। वहाँ की खुजली के लिए धर्मपत्नी की मदद यदाकदा जरूर लेनी पड़ती  है। पर आज कल तो एक खुजाने वाली लम्बी कलम जैसी "खुजली स्टिक" भी स्थानीय बाजार में या 'ऑनलाइन' पर भी उपलब्ध हैं, जिसे हम खरीद लाये हैं। अब तो वो भी निर्भरता खत्म। अपने माननीय प्रधानमंत्री जी भी तो बार-बार  कहते हैं, कि स्वावलंबी बनो, आत्मनिर्भर बनो .. तो हम भी बनने की कोशिश भर कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...
ऐसी बातों की चर्चा, जब भी, जहाँ कहीं भी, होती है तो ... ऐसे में सन् 1929 ईस्वी में स्थापित इंदौर की 'ओरिएंटल केमिकल वर्क्स' नामक कम्पनी की एक आयुर्वेदिक उत्पाद - "ज़ालिम लोशन" के विज्ञापन के एक संवाद अनायास याद हो आते है, कि "क्या शरमा रहा है ? दाद, खाज, खुजली है। सबको होती है। हमें भी होती है।" मतलब ये है, कि "दाद" लेने की "खुजली" सभी को होती है। पर ऐसे में हमें खुजलाना क्यों भला ! अपने पास "खुज़ली स्टिक" अगर ना भी हो तो कोई चिन्ता की बात नहीं है साहिब !! .. वो भी ज़ालिम लोशन के रहते !! .. अरे बाबा ! .. बाज़ार में या 'ऑनलाइन' पर भी तो साहिब .. ज़ालिम लोशन है ना !!! .. बस यूँ ही ...

कॉपीराइट - © - वाली C की तरह :-
अब इस आपसी खुजाने और खुजलाने या यूँ कहें कि ... खीझने-खिजलाने के लिए भी हम सभी ही जिम्मेवार हैं। हम अपने आप को अलग 'टाइप' के ब्लॉगर वाले साहित्यकार मान कर, स्वयं को एक अलग तरह के अजूबा प्राणी माने बैठे हैं और स्वयं को तुर्रम ख़ाँ बनाए हुए, हम अपनी चारों ओर कॉपीराइट - © - वाली C की तरह, एक गोल घेराबंदी बनाए फिर रहे हैं। इसी कारण से इसकी पहुँच आम पाठक / उपभोक्ता तक नहीं है। सभी के सभी अपनी-अपनी गर्दन अकड़ाए नामी हलवाई (मैं जाति विशेष की नहीं, बल्कि मिठाई निर्माता-सह-विक्रेता- हलवाई की बात कर रहा हूँ) बने हुए हैं और ... शायद हैं भी। फिर एक हलवाई के, दूसरे हलवाई की मिठाई चखने वाली बात हो जाती है। इसे तो आम पाठकगण / उपभोक्ता तक पहुँचाना ही होगा ना ! .. शायद ...

जो अच्छी जलेबियाँ तलता हो ... :-
कई लोग अपने पोस्ट/रचना पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की संख्या को लेकर चिंतित देखे-सुने जाते हैं। गुहार लगाते हुए भी। हाय तौबा मचाए हुए भी। ऐसे लोगों को गीता के ज्ञानों में से एक ज्ञान - "केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है, कर्मफल नहीं। इसलिए तुम कर्मफल की आशक्ति में ना फंसो तथा अपने कर्म का त्याग भी ना करो।" - को स्मरण कर लेना चाहिए .. शायद ...
कई लोग तो अपनी पोस्ट/रचना को आकर पढ़ने की गुहार लगाते या न्योता देते भी दिख जाते हैं अक़्सर। इनको देख-सुन कर बड़े-बड़े मंचों पर श्रोतागण से ताली की गुहार लगाते नामी गिरामी हस्तियों की याद अनायास ही आ जाती है। अगर बात क्रिया-प्रतिक्रिया के आने, ना आने की है, तो इस से ब्लॉग के अच्छे या बुरे दिन, अच्छी रचना या बुरी रचना या फिर अच्छे साहित्यकार या बुरे साहित्यकार की कसौटी नहीं तय की जा सकती .. शायद ...
अब हमारे जैसे टुच्चे लोग भी तो, एक कुशल पाठक ना कभी थे, ना हैं और शायद भविष्य में भी ना बन सकेंगे। अच्छे पाठक यानी पढ़ने वाले होते, तो आज हम भी कोई घूसखोर सरकारी पदाधिकारी ना होते क्या !?  इसी अपनी कमी के कारण हम भी कई पोस्टों या मंचों पर प्रतिक्रिया में कम दफ़ा ही जाते हैं या प्रायः नहीं ही जा पाते हैं, हमारे जैसे लोग। अब जरूरी तो नहीं कि एक अच्छा हलवाई (मैं जाति विशेष की नहीं, बल्कि मिठाई निर्माता-सह-विक्रेता- हलवाई की बात कर रहा हूँ), जो अच्छी जलेबियाँ तलता हो, तो उसको पचाने की भी वह मादा रखता ही हो, है कि नहीं ?
.. और बिना पढ़े ही, दो शब्दों वाली औपचारिक प्रतिक्रिया दी भी तो नहीं जाती, हमारे जैसे लोगों से। वैसे भी प्रायः हमारे जैसे लोग अपनी बातों को लाग-लपेट की चाशनी में पगाने की चेष्टा भी कतई नहीं करते; जो मन ने महसूस किया, उसे बक देते हैं। दिल पर कोई बोझ नहीं रखते। सोचते हैं कि पहले से ही मधुमेह रोगी हैं, अगर मन के बोझ से दिल की बीमारी लग गयी, तो नीम और कड़ैले के कॉकटेल-सी हालात हो जाएगी फिर। फिर तो .. ऐसे में बिना चाशनी में पगी बातें अच्छी भी हों, तो कुछ-कुछ कानाफूसी जनित, एक पूर्वअनुमानित छवि के कारण कुछ लोगों को बातें बुरी भी लग जाती है .. बस यूँ ही ...
बिना पढ़े दी गयी प्रतिक्रिया राह चलते किसी मन्दिर के सामने सड़क से गुजरते हुए ही औपचारिक सिर झुका कर कुछ बुदबुदाने जैसी ही प्रतीत होगी .. शायद ... इसके उलट, रचना/पोस्ट को पढ़ कर भी द्वेषवश (यदि समयाभाव हो तो चलेगा), अगर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी हो, तो वह किसी निमंत्रित सुअवसर पर भोज खाकर, रिवाज के विपरीत, बिना न्योता (अपने या सामने वाली की हैसियत के मुताबिक़ रुपयों वाला लिफाफा) दिए निकल भागने वाला भगोड़ा (या भगोड़ी) इंसान माना जा सकता है, जो कि गलत है .. शायद ...

अपनी दुकान की मक्खी ... :-
कई पुराने ब्लॉगर लोगों को, अपने पुराने ब्लॉगर होने का और अपने ब्लॉग पर अतीत में सौ-सौ प्रतिक्रियाएँ आने का एक तरफ गर्व है, तो दूसरी तरफ इन दिनों प्रतिक्रियाएँ नहीं आने का यदाकदा मलाल होते भी देखा-सुना जाता है। हो सकता है, कि उस दौरान उन जैसे दिग्गज लोग ही इक्के-दुक्के ब्लॉगर होंगे, तब अन्य लिखने वाले लोग उनके पाठक-पाठिका बने, एक उपभोक्ता बने हुए होंगे। वही लोग शायद उन से प्रेरित हो कर अब अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठ गए होंगे और सभी अपनी-अपनी दुकान की मक्खियों को भगाने में लगे होंगें .. इसी से प्रतिक्रियाएँ घट गई होंगीं ..शायद ... 

चलते - चलते .. बस यूँ ही ...
यूँ तो उपग्रहों पर टिकी, इंटरनेट के सहारे मुफ़्त में मिले इस विदेशी ब्लॉग के वेब पन्ने पर स्थापित अपने मंच पर गर्व नहीं, कुछेक घमंड करने वाले लोग अगर .. किसी मोबाइल की तरह एक तय क़ीमत अदा कर के "पैक" भरवाने के बाद, ब्लॉग वाले मंच चला रहे होते या किसी किराए के कमरे में मंच चला रहे होते या फिर बाज़ार से कॉपी खरीद कर लिख रहे होते तो भी, तो पता नहीं, निजी होने का और भी कितना दावा करते .. शायद ...
कुछ लोग तो सोशल मीडिया पर, सार्वजनिक पोस्ट किए गए अपने किसी पोस्ट विशेष पर, चाहे वह ब्लॉग की हो या फिर फेसबुक की, उनके अनुसार किसी की अनचाही की गई  प्रतिक्रिया करने वाले को कहीं और जाकर "उल्टी (वमन)" करने की नसीहत तक दे डालते हैं। वो भूल जाते हैं, कि यह सार्वजनिक (अगर 'लॉक' ना की गयी हो तो) और मुफ़्त के विदेशी वेब पन्ने भर हैं, कोई उनकी निजी जागीर नहीं .. शायद ...
किसी दिन तथाकथित विश्वकर्मा भगवान अगर अपनी लम्बी सफ़ेद दाढ़ी जोर से खुजलाये, तो .. सब की खुज़ली .. बस यूँ ही ... मिनटों में मिट जानी है, क्योंकि अगर उनकी दाढ़ी की खुज़ली को खुजलाने की हलचल से, सारे के सारे मानव निर्मित वैज्ञानिक उपग्रह धरती पर गिर कर धराशायी हो गए, तो .. ना तो इंटरनेट होगा और ना ही ये सारे रेवड़ी की तरह बँटने वाले आरक्षण की तरह सहज उपलब्ध सोशल मीडिया वाले भाँति - भाँति के वेब पन्ने .. शायद ...