धुँधलके में जीवन-संध्या के
धुंधलाई नज़रें अब हमारी,
रोम छिद्रों की वर्णमाला सहित
पहले की तरह पढ़ कहाँ पाती हैं भला
बला की मोहक प्रेमसिक्त ..
कामातुर मुखमुद्राओं की वर्तनी तुम्हारी ...
पर .. मुश्किल कर देता है हल .. पल में ..
तीव्रता से चूमता मेरी कर्णपाली को
तुम्हारी नम-नर्म साँसों का शोर,
और .. तख़्ती पर मेरे तपते बदन की
कुछ कूट भाषा-सी गहरी उकेरती
तुम्हारी तर्जनी की पोर ...
पर .. पगली ! .. यूँ भी युवा आँखें
इन मौकों पर तब वैसे भी तो
खुली कहाँ होती थीं भला !?
खुली-अधखुली-सी .. मूँदी पलकों से ही तो
पढ़ा करते थे हम 'ब्रेल लिपि' सरीखी
एक-दूजे की बेताबियाँ .. बस यूँ ही ...