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Sunday, August 8, 2021

ज़ालिम लोशन है ना !!! ...

ओलम्पिक में स्वर्ण पदक लाते ही, लाने वाले (नीरज चोपड़ा) की वाहवाही करते हुए कोई भी नहीं थक रहा। रजत पदक या कांस्य पदक लाने वालों (या वालियों) के साथ भी कमोबेश ऐसा ही किया जा रहा है। सब अपनी-अपनी औक़ात के मुताबिक़, अपने-अपने तरीके से 'सोशल मीडिया' के 'वेब पन्ने' को भर रहे हैं। परन्तु सबसे अचरज की बात तो ये है, कि जो इंसान बिना आरक्षण के सेना में सूबेदार के पद को ग्रहण किया और बिना आरक्षण वाले लाभ के ही, अपनी योग्यता के बलबूते टोक्यो के मैदान वाले ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ले कर अपने स्वदेश का नाम रौशन किया ; उस जैसे व्यक्ति को, देश के भविष्य की चिन्ता किए बग़ैर, अपने वोट बैंक के लिए रेवड़ी की तरह आरक्षण को बाँटने वाले और देश के स्वास्थ्य की बजाय, अपने स्वार्थ के लिए लंगर की तरह मुफ़्त में आरक्षण को भकोसने वाले लोग भी बधाई देने में तनिक भी शरमाते हुए नहीं दिखे .. उन्हें अपनी करनी पर किसी भी तरह की ग्लानि या मलाल के एहसास का कतरा मात्र भी नहीं। आपने इस बात को/पर ग़ौर किया क्या ??? ख़ैर ! .. छोड़िए भी इन बातों को .. बस ! .. जैसे चलता है , चलने दीजिए .. अब हम इन से परे रुख़ कर लेते हैं, आज की मूल बतकही की तरफ .. बस यूँ ही ...

अक़्सर बड़े-बड़े बुद्धिजीवी सुधीजनों और साहित्यकारों की बातें पढ़-सुन कर हम जैसे स्वान्तः सुखाय लिखने वाले नौसिखुए लोगों को भी यदाकदा  कुछ-कुछ सीखें मिलती रहती हैं .. बस यूँ ही ...

अपनी ही औलाद 'टॉपर' ... :-
पर कुछ-कुछ बातें अटकती भी हैं, अंटती ही नहीं हमारे भेजे में, लाख अटकलें लगा लें हम। मसलन - समाज में किये गए तथाकथित सवर्णों और पिछड़ी जातियों की तरह ही, बहुतेरे बुद्धिजीवी ब्लॉगर (माफ़ कीजियेगा - चिट्ठाकार लोग) "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक" को भी दो अलग-अलग वर्गों में बाँट कर देखते है। साथ ही, हमने अक़्सर तथाकथित उन जैसे चिट्ठाकारों को उपरोक्त "अल्पसंख्यक" वाली ख़ुशफ़हमी में  देखा-पढ़ा-सुना है, कि वह अपने आप को तुलनात्मक कुछ उच्च श्रेणी का महसूस कर अपनी गर्दन अकड़ाते थकते नहीं हैं। जबकि "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक", दोनों ही विभिन्न उपग्रहों के रहमोकरम पर चलने वाले और विदेशों से उधार लिए गए सोशल मीडिया के शुद्ध वैज्ञानिक वेब पन्ने हैं। वैसे भी इन दोनों के अलावा, अन्य और भी कई सोशल मीडिया के मंचें भी, ना तो किसी तथाकथित विश्वकर्मा भगवान के निर्माण के हिस्सा हैं और ना ही तथाकथित हनुमान जी द्वारा लायी गयी संजीवनी बूटी की तरह लाए गए हैं ; बल्कि विश्वस्तरीय वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के ये परिणाम है। वैसे तो स्वदेश - प्रेम एक अच्छी बात है, लेकिन हमें इतना भी अँधा प्रेम नहीं होना चाहिए, कि केवल अपनी ही औलाद 'टॉपर' दिखे और मुहल्ले या शहर भर की फिसड्डी .. शायद ...
यूँ तो .. तुलना की जाए, तो "फ़ेसबुक" कई सारे मामलों में "ब्लॉग" से ज्यादा ही सुगम और सरल है। इसी कारणवश इसके उपभोक्ता भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा हैं, तो वहाँ भीड़ भी ज्यादा है। अगर हम "फ़ेसबुक" को भी धैर्यपूर्वक खंगालेंगे, तो वहाँ भी साहित्य की कई-कई प्रसिद्ध हस्तियाँ हमको मिल जायेंगीं ; जो हम (?) और आप जैसों से कई गुणा बेहतर भी हैं। वहीं दूसरी ओर 'ब्लॉग' पर भी आपको मुझ जैसे टुच्चे विचरते नज़र आ ही जाते हैं, जो तथाकथित सभ्य, सज्जन साहित्यकार या चिट्ठाकार लोगों की श्रेणी में कतई नहीं आते हैं .. बस यूँ ही ...
वैसे भी "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक" के वर्ग विभाजन की हमको कोई ठोस वजह नज़र नहीं आती है। हो सकता है .. शायद ये मेरी अज्ञानता हो। हमें तो लगता है , कि ITC की मँहगी बिकने वाली कॉपी- Classmate या JYOTI PAPER INDUSTRIES की Jyoti कॉपी पर रामायण या हनुमान चालीसा लिखी जाए या फिर किसी साधारण कागज पर; तो तीनों परिस्थितियों में, किसी आस्तिक हिंदू की नज़र में, धार्मिक दृष्टिकोण से तो वह समान ही महत्व रखेगा ना !? फिर .. अगर देखा जाए, तो ऑस्कर अवार्ड प्राप्त फ़िल्मों के लिए कोई अलग सिनेमा हॉल भी तो नहीं होता है। वो सारी फ़िल्में भी तो लगती हैं, उसी मल्टीप्लेक्स में, जहाँ "शोले" जैसी चलताऊ या "जय संतोषी माँ जैसी भ्रामक फ़िल्में चलती हैं।  हाँ ... उनमें जाने वाले दर्शकों के वर्ग अपनी-अपनी दिलचस्पी के अनुसार जाते हैं। फ़िल्में निम्न या उच्च हो सकती हैं, पर सिनेमा हॉल से उसके अच्छी या बुरी होने की बात तय नहीं हो सकती है। उसी तरह, रचनाएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं, पर उसको पोस्ट किए जाने वाले वेब पन्ने, "ब्लॉग" या "फ़ेसबुक" होने के कारण, अच्छे हैं या कि बुरे हैं, उच्च हैं या निम्न हैं, ये कदापि तय नहीं किए जा सकते .. शायद ...

दाल-भात सान कर ... :-
वैसे भी तो, "ब्लॉग" तो एक साधन मात्र ही है, हमारी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति या प्रस्तुति का ; जहाँ समस्त विश्व में, अन्य और भी कई -कई विषयों पर "ब्लॉग" बनी पड़ी हुई हैं। कुछेक लोगों के तो खुद ही के, कई-कई तरह के विषयों पर भी अलग-अलग कई "ब्लॉगें" हैं। इस बात पर भी कुछेक लोग अपनी गर्दन अकड़ाते नज़र आते हैं। मुझ जैसे अल्पज्ञानियों के तो केवल और केवल एक ही "ब्लॉग" है - "बंजारा बस्ती के बाशिंदे" के नाम से। पर इनमें कोई हेटी जैसी बात नहीं मानी जानी चाहिए। ये भी केवल या मात्र, अपनी-अपनी पसंद की बात है। कोई भात और दाल अलग-अलग खा ले या कोई एक साथ सान कर खा ले, बात बस पसंद की है ; परन्तु इन दोनों ही परिस्थितिओं में किसी एक की भी हेटी की बात नहीं होनी चाहिए। प्रसंगवश .. एक मजे की बात है, कि हम उत्तर भारतीय लोग, दक्षिण भारतीय व्यंजन- इडली-सांभर को अलग-अलग खाते हैं, जब कि वहीं दक्षिण के लोग, हम उत्तर भारतीयों की तरह दाल-भात सान कर खाने जैसा ही , इसे एक साथ सान कर खाते हैं। बस .. तरीक़ा अपना-अपना, पसंद अपनी-अपनी .. फिर अपने कई "ब्लॉगों" के होने पर अपनी गर्दन क्यों अकड़ानी भला !?

गंगू हलवाई के लड्डू ... :-
यूँ तो अक़्सर कुछ सज्जन सुधिजन किसी भी क्षेत्र या विषय विशेष में स्वयं को "सबसे पुराना" विशेषण से विभूषित कर के भी अपनी गर्दन अकड़ाते पाए जाते हैं। पर किसी भी क्षेत्र में पुराना होना, अत्यधिक अनुभवी होने की "प्रमाणिकता नहीं भी" हो सकती है और बाद में आए, एकदम से नए की श्रेणी में होना, अल्पज्ञानी होने की "वजह भी नहीं" हो सकती है .. शायद ... मसलन - किसी मुहल्ले के किसी पुराने गंगू हलवाई के लड्डू ना जाने कब, हल्दीराम के 'ब्रांडेड' लड्डू के सामने फ़ीके पड़ गए ; ये बात उस गंगू हलवाई को भी पता ही नहीं ; क्योंकि उसे अपनी कढ़ाई में पिघलते-जलते "नेपाली डालडे" से उठते धुएँ में, सब कुछ धुंधला ही नज़र आता है .. शायद ...

"दाद" लेने की "खुजली" बनाम ज़ालिम लोशन है ना !!! ... :-
अक़्सर हम जैसे नौसिखुए लोग, दिग्गज़ों से सुनते-पढ़ते हैं, कि तथाकथित कुछ अलग-सी, "सर्वाधिकार सुरक्षित"  या "Copyright Reserve" वाली विशिष्ट, 'ब्रांडेड', ब्लॉग की दुनिया में एक दूसरे की पीठ खुजलाने जैसी कोई प्रथा या रीति-रिवाज़ भी है .. शायद ...  अब ये कोई लोकोक्ति हो या मुहावरा, जो भी हो, पर वैसे भी पूरे बदन की खुजली को तो हम भी खुद ही खुजा लेते हैं, सिवाय अपनी पीठ के। वहाँ की खुजली के लिए धर्मपत्नी की मदद यदाकदा जरूर लेनी पड़ती  है। पर आज कल तो एक खुजाने वाली लम्बी कलम जैसी "खुजली स्टिक" भी स्थानीय बाजार में या 'ऑनलाइन' पर भी उपलब्ध हैं, जिसे हम खरीद लाये हैं। अब तो वो भी निर्भरता खत्म। अपने माननीय प्रधानमंत्री जी भी तो बार-बार  कहते हैं, कि स्वावलंबी बनो, आत्मनिर्भर बनो .. तो हम भी बनने की कोशिश भर कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...
ऐसी बातों की चर्चा, जब भी, जहाँ कहीं भी, होती है तो ... ऐसे में सन् 1929 ईस्वी में स्थापित इंदौर की 'ओरिएंटल केमिकल वर्क्स' नामक कम्पनी की एक आयुर्वेदिक उत्पाद - "ज़ालिम लोशन" के विज्ञापन के एक संवाद अनायास याद हो आते है, कि "क्या शरमा रहा है ? दाद, खाज, खुजली है। सबको होती है। हमें भी होती है।" मतलब ये है, कि "दाद" लेने की "खुजली" सभी को होती है। पर ऐसे में हमें खुजलाना क्यों भला ! अपने पास "खुज़ली स्टिक" अगर ना भी हो तो कोई चिन्ता की बात नहीं है साहिब !! .. वो भी ज़ालिम लोशन के रहते !! .. अरे बाबा ! .. बाज़ार में या 'ऑनलाइन' पर भी तो साहिब .. ज़ालिम लोशन है ना !!! .. बस यूँ ही ...

कॉपीराइट - © - वाली C की तरह :-
अब इस आपसी खुजाने और खुजलाने या यूँ कहें कि ... खीझने-खिजलाने के लिए भी हम सभी ही जिम्मेवार हैं। हम अपने आप को अलग 'टाइप' के ब्लॉगर वाले साहित्यकार मान कर, स्वयं को एक अलग तरह के अजूबा प्राणी माने बैठे हैं और स्वयं को तुर्रम ख़ाँ बनाए हुए, हम अपनी चारों ओर कॉपीराइट - © - वाली C की तरह, एक गोल घेराबंदी बनाए फिर रहे हैं। इसी कारण से इसकी पहुँच आम पाठक / उपभोक्ता तक नहीं है। सभी के सभी अपनी-अपनी गर्दन अकड़ाए नामी हलवाई (मैं जाति विशेष की नहीं, बल्कि मिठाई निर्माता-सह-विक्रेता- हलवाई की बात कर रहा हूँ) बने हुए हैं और ... शायद हैं भी। फिर एक हलवाई के, दूसरे हलवाई की मिठाई चखने वाली बात हो जाती है। इसे तो आम पाठकगण / उपभोक्ता तक पहुँचाना ही होगा ना ! .. शायद ...

जो अच्छी जलेबियाँ तलता हो ... :-
कई लोग अपने पोस्ट/रचना पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की संख्या को लेकर चिंतित देखे-सुने जाते हैं। गुहार लगाते हुए भी। हाय तौबा मचाए हुए भी। ऐसे लोगों को गीता के ज्ञानों में से एक ज्ञान - "केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है, कर्मफल नहीं। इसलिए तुम कर्मफल की आशक्ति में ना फंसो तथा अपने कर्म का त्याग भी ना करो।" - को स्मरण कर लेना चाहिए .. शायद ...
कई लोग तो अपनी पोस्ट/रचना को आकर पढ़ने की गुहार लगाते या न्योता देते भी दिख जाते हैं अक़्सर। इनको देख-सुन कर बड़े-बड़े मंचों पर श्रोतागण से ताली की गुहार लगाते नामी गिरामी हस्तियों की याद अनायास ही आ जाती है। अगर बात क्रिया-प्रतिक्रिया के आने, ना आने की है, तो इस से ब्लॉग के अच्छे या बुरे दिन, अच्छी रचना या बुरी रचना या फिर अच्छे साहित्यकार या बुरे साहित्यकार की कसौटी नहीं तय की जा सकती .. शायद ...
अब हमारे जैसे टुच्चे लोग भी तो, एक कुशल पाठक ना कभी थे, ना हैं और शायद भविष्य में भी ना बन सकेंगे। अच्छे पाठक यानी पढ़ने वाले होते, तो आज हम भी कोई घूसखोर सरकारी पदाधिकारी ना होते क्या !?  इसी अपनी कमी के कारण हम भी कई पोस्टों या मंचों पर प्रतिक्रिया में कम दफ़ा ही जाते हैं या प्रायः नहीं ही जा पाते हैं, हमारे जैसे लोग। अब जरूरी तो नहीं कि एक अच्छा हलवाई (मैं जाति विशेष की नहीं, बल्कि मिठाई निर्माता-सह-विक्रेता- हलवाई की बात कर रहा हूँ), जो अच्छी जलेबियाँ तलता हो, तो उसको पचाने की भी वह मादा रखता ही हो, है कि नहीं ?
.. और बिना पढ़े ही, दो शब्दों वाली औपचारिक प्रतिक्रिया दी भी तो नहीं जाती, हमारे जैसे लोगों से। वैसे भी प्रायः हमारे जैसे लोग अपनी बातों को लाग-लपेट की चाशनी में पगाने की चेष्टा भी कतई नहीं करते; जो मन ने महसूस किया, उसे बक देते हैं। दिल पर कोई बोझ नहीं रखते। सोचते हैं कि पहले से ही मधुमेह रोगी हैं, अगर मन के बोझ से दिल की बीमारी लग गयी, तो नीम और कड़ैले के कॉकटेल-सी हालात हो जाएगी फिर। फिर तो .. ऐसे में बिना चाशनी में पगी बातें अच्छी भी हों, तो कुछ-कुछ कानाफूसी जनित, एक पूर्वअनुमानित छवि के कारण कुछ लोगों को बातें बुरी भी लग जाती है .. बस यूँ ही ...
बिना पढ़े दी गयी प्रतिक्रिया राह चलते किसी मन्दिर के सामने सड़क से गुजरते हुए ही औपचारिक सिर झुका कर कुछ बुदबुदाने जैसी ही प्रतीत होगी .. शायद ... इसके उलट, रचना/पोस्ट को पढ़ कर भी द्वेषवश (यदि समयाभाव हो तो चलेगा), अगर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी हो, तो वह किसी निमंत्रित सुअवसर पर भोज खाकर, रिवाज के विपरीत, बिना न्योता (अपने या सामने वाली की हैसियत के मुताबिक़ रुपयों वाला लिफाफा) दिए निकल भागने वाला भगोड़ा (या भगोड़ी) इंसान माना जा सकता है, जो कि गलत है .. शायद ...

अपनी दुकान की मक्खी ... :-
कई पुराने ब्लॉगर लोगों को, अपने पुराने ब्लॉगर होने का और अपने ब्लॉग पर अतीत में सौ-सौ प्रतिक्रियाएँ आने का एक तरफ गर्व है, तो दूसरी तरफ इन दिनों प्रतिक्रियाएँ नहीं आने का यदाकदा मलाल होते भी देखा-सुना जाता है। हो सकता है, कि उस दौरान उन जैसे दिग्गज लोग ही इक्के-दुक्के ब्लॉगर होंगे, तब अन्य लिखने वाले लोग उनके पाठक-पाठिका बने, एक उपभोक्ता बने हुए होंगे। वही लोग शायद उन से प्रेरित हो कर अब अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठ गए होंगे और सभी अपनी-अपनी दुकान की मक्खियों को भगाने में लगे होंगें .. इसी से प्रतिक्रियाएँ घट गई होंगीं ..शायद ... 

चलते - चलते .. बस यूँ ही ...
यूँ तो उपग्रहों पर टिकी, इंटरनेट के सहारे मुफ़्त में मिले इस विदेशी ब्लॉग के वेब पन्ने पर स्थापित अपने मंच पर गर्व नहीं, कुछेक घमंड करने वाले लोग अगर .. किसी मोबाइल की तरह एक तय क़ीमत अदा कर के "पैक" भरवाने के बाद, ब्लॉग वाले मंच चला रहे होते या किसी किराए के कमरे में मंच चला रहे होते या फिर बाज़ार से कॉपी खरीद कर लिख रहे होते तो भी, तो पता नहीं, निजी होने का और भी कितना दावा करते .. शायद ...
कुछ लोग तो सोशल मीडिया पर, सार्वजनिक पोस्ट किए गए अपने किसी पोस्ट विशेष पर, चाहे वह ब्लॉग की हो या फिर फेसबुक की, उनके अनुसार किसी की अनचाही की गई  प्रतिक्रिया करने वाले को कहीं और जाकर "उल्टी (वमन)" करने की नसीहत तक दे डालते हैं। वो भूल जाते हैं, कि यह सार्वजनिक (अगर 'लॉक' ना की गयी हो तो) और मुफ़्त के विदेशी वेब पन्ने भर हैं, कोई उनकी निजी जागीर नहीं .. शायद ...
किसी दिन तथाकथित विश्वकर्मा भगवान अगर अपनी लम्बी सफ़ेद दाढ़ी जोर से खुजलाये, तो .. सब की खुज़ली .. बस यूँ ही ... मिनटों में मिट जानी है, क्योंकि अगर उनकी दाढ़ी की खुज़ली को खुजलाने की हलचल से, सारे के सारे मानव निर्मित वैज्ञानिक उपग्रह धरती पर गिर कर धराशायी हो गए, तो .. ना तो इंटरनेट होगा और ना ही ये सारे रेवड़ी की तरह बँटने वाले आरक्षण की तरह सहज उपलब्ध सोशल मीडिया वाले भाँति - भाँति के वेब पन्ने .. शायद ...



Friday, May 22, 2020

मिले फ़ुर्सत कभी तो ...


ओपन मिक या ओपन माइक ( Open Mic/Mike ) - हाँ .. यही तो नाम है , अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को व्यक्त करने की इस विधा का या इस मंच का। जो शायद अंग्रेजी के शब्द Open Microphone से बना होगा। नाम से ही स्पष्ट है कि यह ओपन है। मतलब यह सभी के लिए एक खुला माइक या मंच है। यह एक लाइव शो (Live Show) यानि प्रत्यक्ष-प्रदर्शन है। वर्त्तमान में पिछले कुछ सालों से बड़े शहरों में यह विशेषतौर पर युवाओं में कुछ ज्यादा ही प्रचलित है।
लगभग बीसवीं शताब्दी के अंत के और इक्कीसवीं शताब्दी के शुरूआत के सालों में विकसित देशों में पब (Pub), नाईट क्लब (Night Club), कॉफ़ी हाउस (Coffee House), कॉमेडी क्लब (Comedy Club) या किसी संस्थान में प्रायः रातों में देर रात तक या रात भर वहाँ उपस्थित जनसमूह के मनोरंजन के लिए किसी भी परिपक्व या नया कलाकार द्वारा कविता, गीत-संगीत या हास्य-संवाद के रूप में अपनी-अपनी प्रस्तुति देने का दौर शुरू हुआ था। दुनिया में इसके आरम्भ होने के समय की तुलना हम मोबाइल फ़ोन के भारत में शुरू होने के समय से कर सकते हैं .. शायद ...। कहीं-कहीं इसकी व्यवस्था अथार्त किराए पर लाए जाने वाले माइक, साउंड बॉक्स (Sound Box) इत्यादि में होने वाले ख़र्चे को क्लब वाले प्रस्तुति देने वाले कलाकारों से या कहीं-कहीं पूरे जनसमूह से वसूलते थे या हैं भी।
धीरे-धीरे यह विधा पाँव पसारती हुई , महानगरों (Metro Town) के युवाओं को लुभाती हुई , अब तो हर छोटे-बड़ो शहरों के युवाओं में भी आम है। बड़े-बड़े रेस्टुरेन्ट, होटलों, क्लबों के अलावा सभागारों या किसी भी बड़े हॉलनुमा कमरे में यह ओपन मिक संभव है। कुछ वर्षों से अब तो प्रस्तुति की वीडियो बना कर उसे यूट्यूब (Youtube) पर अपलोड (Upload) करने का भी प्रचलन जोर-शोर से है। कहते हैं कि यूट्यूब पर व्यूअर (Viewers) की संख्या के आधार पर यूट्यूब के तरफ से युवाओं की वार्षिक कमाई भी होती है।
वैसे तो .. यह सर्वविदित ही है कि यूट्यूब वीडियो साझा करने का एक अमेरिकी एप्प (App = Application) है। इसी तरह के मंचों में एक बहुत प्रसिद्ध हो चुका मंच है, जिसका नाम आपको भी मालूम होगा ही  - यौरकोट (Yourquote), जो कलाकारों या रचनाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन और ऑफ लाइन (Online & Offline Plateform) प्रदान करता है और प्रस्तुति को यूट्यूब के माध्यम से विस्तार भी देता है। अब तो कई-कई शहरों में यौरकोट जैसे कई-कई स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर पर स्थान बनाने के लिए प्रयासरत मंच देखने के लिए मिल जाते हैं। स्वाभाविक है कि इन सब प्रक्रियाओं में धन की आवश्यकता भी पड़ती है, तो इस धन को प्रतिभागियों से ही लिया जाता है। ऐसा ही तो कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा भी किया जाता है। यदाकदा किसी संस्थान या व्यक्तिविशेष द्वारा इस तरह का मंच प्रतिभागियों के लिए मुफ़्त में भी प्रदान किया जाता है। इस मंच से प्रायः कविताएँ (Poetry) , कहानियाँ (Storytelling) , कॉमेडी ( Standup Comedy) या गायन-वादन (ज़्यादातर Rap Songs) की प्रस्तुति की जाती है।                           प्रसंगवश मेरा ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बचपन में तीसरी कक्षा से कुछ-कुछ लिखने की कोशिश भर जो जाने-अन्जाने में सुषुप्तावस्था में कभी-कभार ही निकल कर बाहर आ पाती थी , अचानक 2018 में ओपन मिक के बहाने इन युवाओं के सम्पर्क में आने के बाद से ही उम्र की 52वें पड़ाव में एक रफ़्तार-सा पकड़ लिया। निःसन्देह .. फिर बाद में 2019 में ब्लॉग की दुनिया में आप लोगों की सोहबत में आने के बाद तो और भी रफ़्तार तेज़ और संतुलित भी हो गई।
लोगों का मानना है कि चूँकि अधिकांशतः इन में युवा ही होते हैं तो स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं में तथाकथित स्थापित, सत्यापित या स्वघोषित बुद्धिजीवी साहित्यकारों वाली बात नहीं होती है। परन्तु वस्तुतः सच्चाई ऐसी नहीं है और यहाँ भी कई अच्छे और गंभीर सोचने और लिखने वाले मिलते हैं। कई तुकबन्दी करने वाले या पैरोडी गाने वाले भी होते हैं। कई कुछ प्रसिद्ध रचनाकारों की लेखन या पढ़ने की शैली की नक़ल करते भी नज़र आते हैं। वैसे इन सभी तरह की मिलीजुली शख़्सियतें तो कई तथाकथित साहित्यिक कवि सम्मेलनों में भी दिख ही जाते हैं। कई बुद्धिजीवी .. या तो इस ओपन मिक के बारे में जानते ही नहीं है या अगर जानते भी हैं तो इसे उपेक्षित नज़रों से देखते हैं। इसी डर से आलेख की शुरुआत से ही मैं इसकी तुलना साहित्यिक गोष्टी या साहित्यिक सम्मेलन से नहीं कर रहा हूँ। पता नहीं किसी बुद्धिजीवी को नागवार गुजर जाए।
कई लोग तो ब्लॉग और फेसबुक जैसे दोनों विदेशों से मुफ़्त में मिले मंचों/एप्पों में भी बेहतर-निम्नतर जैसा फ़र्क करने से गुरेज़ नहीं करते , जबकि एप्प या मंच कोई भी बुरा नहीं होता। बुरे होते हैं उसको व्यवहार करने वाले .. उस में अपनी रचना साझा करने वाले और उसके पाठक या श्रोतागण। ब्लॉग की तुलना में फेसबुक तकनीकी रूप से ज्यादा लचीला और समृद्ध भी है , जिस कारणवश वह जनसुलभ और लोकप्रिय भी है। तभी तो ब्लॉग के लिए अपनी गर्दन अकड़ाने वालों को भी फेसबुक का सहारा लेना ही पड़ता है। मालूम नहीं फ़ेसबुक को लोग हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं ?
खैर ... अभी फिलहाल ओपन मिक की बात करते हैं। जैसे विश्व में अलग-अलग जगहों की भाषाएँ भी अलग-अलग होती है , ठीक वैसे ही अलग-अलग पीढ़ियों की भी अपनी-अपनी भाषाएँ होती हैं। और अगर हम सामने वाले से उसी की भाषा में बात करें तो वो बात सामने वाले के मन में सीधे-सीधे उतरती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित रचना/विचार को युवाओं की नज़र से देखकर लिखा था और उसकी प्रस्तुति दी थी।
लगभग दो साल पहले ही जब कोरोना के वायरस (Virus) और सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing) शब्द का भी कोई नामोनिशान तक नहीं था, तब भी सर्दी के वायरस और सोशल डिस्टेंसिंग की परिकल्पना की गई थी इस रचना में। आप पढ़ कर ख़ुद ही देख लीजिए ना ...
यहाँ इस रचना/विचार के बाद इसकी प्रस्तुति का वीडियो भी है। समय हो तो पढ़िए भी और वीडियो भी देखिए .. शायद .. आपको भी अच्छा लगे .. बस .. पढ़ते या वीडियो देखते वक्त खुद को युवावस्था में महसूस भर कर लीजिए .. बस .. तो फिर देर किस बात की ? ...
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मिले फ़ुर्सत कभी तो ...

"शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
 मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ..."

पिछले दिसम्बर की एक बर्फीली सुबह
अपने जैकेट का जीप ऊपर सरकाते वक्त उस में
उलझ-सा गया था मेरे मफ़लर का एक हिस्सा।
फिर याद आई अचानक ..
वो वर्षों पहले गुजरा दिसम्बर का एक दिन
अरे हाँ ! .. हमारे अपने डेटिंग (Dating) वाला दिन
जब खोलते वक्त मेरे जैकेट के जीप में उलझा था
तुम्हारा वो आसमानी जॉर्जेट का दुपट्टा।
उस दिन भी ठंड काफी थी पर .. उस दिन ..
जैकेट का जीप लगाने के बजाए खोला था मैं
ताकि .. छुपा कर उस में तुम चेहरा अपना
हर बार की तरह महसूस कर सको मेरे बदन की गर्माहट
और ... तुम्हारी नर्म-गर्म मखमली साँसों को मैं।
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

हिन्दी मीडियम (Hindi Medium) वाला मैं
तुमसे मिलने के पहले भला कहाँ जानता था
मतलब स्मूचिंग (Smooching) का।
हाँ .. उस दिन थोड़ा ज्यादा जोर हो गया था।
लगा था तुम्हें कि .. कुछ ज्यादा ही बहक गया हूँ मैं
पर दरअसल चाहता था खींच लेना खुद में मैं
सारे वायरस तुम्हें परेशान करती तुम्हारी पनीली सर्दी के।
फिर एक दिन लगा था तुम्हें कि .. भाव खा रहा हूँ मैं
स्मूचिंग तो दूर .. क़तरा रहा हूँ करीब आने से भी तुम्हारे
पर दरअसल चाहता था रखना बचाए तुम्हें मैं
वायरस से अपनी उन दिनों की अपनी सर्दी से।
 शायद प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

कई साल गुजर गए .. है ना ? .. कई साल गुजर गए ..
वट-सावित्री पूजा में बरगद के पेड़ से लिपटे
कच्चे धागे की तरह जब आखिरी बार लिपटी थी तुम मुझसे ;
यक़ीन मानो .. आज भी तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू ने
कमी महसूस होने नहीं दी है कभी किसी डिओ (Deo) की।
हमेशा इस्तेमाल किया था तुमने मुझे
सिलेबस (Syllabus) की किताबों की तरह मगर ..
मैं तो सजा रखा हूँ तुम्हें आज भी दिल की दीवार पर
पिरियोडिक टेबल (Periodic Table) की तरह।
अक़्सर इस्तेमाल किया तुमने मुझे
अपने मुश्किल भरे चार दिनों के सैनिटरी नैप......*
खैर ! .. जाने दो ना।
मैं ने तो संजो रखा है आज भी तुम्हें
किसी सगे के छट्ठी वाले कपड़ों की तरह।
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

आखिर गलत साबित कर ही दिया ना तुमने ..
न्यूटन के तीसरे नियम** को ,
मेरे प्यार के बदले मुझे पराया कर के।
झुठलाने के लिए आर्किमिडीज के सिद्धान्त*** को मैंने भी
तुम्हारे दिए गए ग़मों के वजन के बावज़ूद
समय के लहरों पर तैरता रहा मैं ताउम्र अनवरत।
और .. वो भी क्या भूल पाई होगी तुम ? .. बोलो ना ! ..
हर डेटिंग पर मेरे एक ही डेरी मिल्क (Dairy Milk) लाने में दिखती थी जो तुम्हें मेरी कंजूसी।
पर .. इसी कारण तो तुम मेरे क़रीब
कुछ ज्यादा ही क़रीब .. थी खींचती चली आती।
करते थे जब हम दोनों अपनी-अपनी ओर अपने-अपने दाँतों में दबाकर उस एक डेरी मिल्क का आपस में बँटवारा।
तब मैं थोड़ी बेईमानी था कर जाता।
उस एक डेरी मिल्क के कुल दस स्क्वायर (Square) में से
साढ़े छः तुम्हें और साढ़े तीन अपने हिस्से में था काटता।
बना कर बहाना ये कि .. ज्यादा मीठा मुझे अच्छा नहीं लगता
भले ही .. घर में अपने .. अपनी अम्मा के हिस्से का भी
खीर मैं अक़्सर छुपा कर था चट कर जाता।
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

लग रहा है .. अभी भी तुम यहीं कहीं हो .. मेरे आसपास ..
आओ ना पास .. क्यों सता रही हो ?
ना जाने क्यों ये लग रहा है कि .. तुम अभी-अभी आओगी
किसी कोने से और .. मेरी टी-शर्ट (T-Shirt) की बाँह में
अपने गीले होठों को पोंछते हुए ..
हर बार की तरह शरमा कर कहोगी मुझसे कि .. --
" तुम ना .. बड़े ज़िद्दी हो .. अपनी ज़िद मनवा कर ही मानते हो .. हमें इस तरह कोई देख लेता तो ? .. आँ ? "
अब क्या करूँ मैं ? ... अब ..
शायद  प्यार करना मुझे आया ही नहीं आज तक,
मिले फ़ुर्सत कभी तो .. आकर थोड़ा बतला देना ...

( * सैनिटरी नैप...... = सैनिटरी नैपकिन = Sanitary Napkin.
** न्यूटन के तीसरे नियम =Newton's 3rd Law.
*** आर्किमिडीज के सिद्धान्त  = Archimedes' Principle. ).

( N.B. :- उपर्युक्त रचना/विचार को AWAAZ - The Poetry Band के Open Mic के लिए मेरे द्वारा 08.07.2018 को पढ़ी गयी थी और उन लोगों द्वारा उस पाठन का यह निम्न Youtube Video  30.08.2018 को प्रसारित किया गया था। ). :-