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Tuesday, June 22, 2021

मन-मंजूषा ...

खींच भी लो हाथ रिश्तों से अगर,

मेरी ख़ातिर अपनी तर्जनी रखना।

मायूसियों में मैं किसी उदास शाम,

मुस्कुरा लूँ, इतनी गुदगुदी करना।


जो किसी गीत के बोल की तरह,

भूल भी जाओ तुम प्यार हमारा।

माना हो जाए मुश्किल वो गाना,

तो बस यूँ ही कभी गुनगुना लेना।


रिश्तों के फूल मुरझा भी जाए तो,

फेंकना बदगुमानी में क़तई भी ना।

मान के किसी मंदिर या मज़ार के,

फूलों-सी मन-मंजूषा सजा रखना।

 

सुलगने से मेरे महकता हो अगर,

रौशन मन का घर-कमरा तुम्हारा।

हरदम किसी मन्दिर की सुलगती,

अगरबत्तियों-सा सुलगता रखना।



Tuesday, December 17, 2019

एक ऊहापोह ...

था सुनता आया बचपन से
अक़्सर .. बस यूँ ही ...
गाने कई और कविताएँ भी
जिनमें ज़िक्र की गई थी कि
गाती है कोयलिया
और नाचती है मोरनी भी
पर सच में था ऐसा नहीं ...

गाता है नर-कोयल .. है यही सही
नाचता है सावन में नर-मोर भी
यत्न करते हैं हो प्रेम-मदसिक्त दोनों ही
रिझाने की ख़ातिर अपनी ओर
बस मादाएँ अपनी-अपनी
रचा सके मिलकर ताकि
सृष्टि की एक नई कड़ी ...

जान कर ये बातें बारहा
एक ऊहापोह है तड़पाता
छा जाती मुझ पर उदासी और ..
अनायास आता है एक ख़्याल
पूछता हूँ खुद से खुद सवाल ..
अरे ! ... नहीं आता गाना मुझे
और ना ही मुझे नाचना भी
अब .. रिझाउँगा उन्हें मैं कैसे
कैसे उन्हें मैं भला भाऊँगा भी

चाहता हूँ मन से केवल उनको ही
इतना ही पर्याप्त भला नहीं क्या !? ..
एक बार तनिक .. वे बतलातीं भी ...