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Thursday, April 6, 2023

फूलदेई

 

        ( चित्र साभार - उत्तराखंड के "धाद" नामक संस्था से)

फूलदेई

थका-हारा हुआ-सा 

धरे हुए हर आदमी,

अपने-अपने काँधे पर 

अपनी-अपनी धारणाओं की लाठी,

बँधी हुई है जिनमें भारी-सी 

उनके पूर्वजों की 

पैबंद लगी एक गठरी,

है जिनमें सहेजे हुए अनेकों

परम्पराओं, प्रथाओं

और रीति रिवाजों की पोटली।


हर परम्परा, 

रीति रिवाज, प्रथा,

जो बने किसी की व्यथा

या हो फिर वो

किसी की भी हंता,

बिसरानी ही चाहिए 

शायद उन्हें, जैसे छोड़ी या 

छुड़ाई गयी थी सती प्रथा कभी,

और छोड़नी चाहिए आज ही 

परम्परा हमें बलि या क़ुर्बानी की भी।


है भला ये यहाँ विडंबना कैसी 

उत्तराखंड के पहाड़ों में भी ?

करते तो हैं यूँ बच्चे कृत 

पुष्पों के हनन का,

पर कहते हैं सभी कि ..

है फूलदेई* बाल पर्व सृजन का।

हनन को सृजन कहने की,

है भला ये परम्परा भी कैसी ?

बल्कि समझाना चाहिए बच्चों को, 

कि लगते हैं सारे पुष्प भले डाली पर ही।


माना .. ब्याही जाती हैं बेटियाँ 

भरी आँखों से ख़ुशी-ख़ुशी, 

पर है क्यों भला ये 

परम्परा कन्यादान की ?

गोया वो बेटियाँ ना हुईं, 

हो गईं निर्जीव वस्तु कोई 

या फिर कोई निरीह पशु-पंछी।

बेहतर हो अगर रक्तदान को भी

मिल कर कहें रक्तदान नहीं, 

बल्कि कहें .. रक्तसाझा हम सभी।


मिथक है या मिथ्या कोई, कि

है जुड़ा दान से तथाकथित पुण्य सारा।

कहें ना क्यों हम, हर दान को साझा

और हर साझा हो कर्तव्य हमारा।

सुलगा कर सारी परम्पराएँ पैबंद लगी 

ये दफ़न या दाह संस्कार जैसी,

करने चाहिए मृत शरीर या अंग साझा

ताकि मिले किसी को जीवन या

मिले किसी दृष्टिहीन को आँखों की रोशनी।

साहिब !!! कहिए ना देहसाझा, देहदान को भी .. बस यूँ ही ...

[ फूलदेई* - ब्रह्माण्ड में होने वाली तमाम ज्ञात-अज्ञात भौगोलिक घटनाओं में से एक है - संक्रांति; जिसके तहत कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का मुख्य कारक - सूरज हर महीने अपना स्थान बदल कर खगोलीय या ज्योतिषीय मानक के अनुसार तय बारह राशियों में से, एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश कर जाता है। यूँ तो सर्वविदित है, कि सौर पथ वाले खगोलीय गोले को बारह समान भागों यानि बारह राशियों में बाँटा गया है और सालों भर इन्हीं राशियों, जिनमें सूर्य प्रवेश करता है, उन्हीं के नाम के आधार पर ही बारह संक्रांतियों का नामकरण किया गया है।

हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा संक्रांति को वैदिक उत्सव के रूप में भारत के कई इलाकों में बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। यूँ तो पौराणिक मान्यताओं के आधार पर संक्रांति के अलावा भी कई अन्य भौगोलिक घटनाओं .. मसलन - ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या या एकादशी जैसी तिथियों को भी स्नान-ध्यान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य, मोक्ष-धर्म इत्यादि से जोड़ा गया है।

इन बारह संक्रांतियों में से जनवरी माह में 14 या 15 तारीख़ को पूरे भारत में त्योहार की तरह "मकर संक्रांति" मनाया जाता है, जिसे बिहार-झारखण्ड में "दही-चूड़ा" के नाम से भी जाना जाता है। इसके एक दिन पहले पँजाब-हरियाणा में या अन्य स्थानों पर भी बसे सिखों द्वारा लोहड़ी नाम से त्योहार मनाया जाता है। साथ ही 14 या 15 तारीख़ को ही अप्रैल महीने में "मेष संक्रांति" को भी त्योहार के रूप में मनाया जाता है। जिसे पंजाब में बैसाखी, उड़ीसा में पाना या महाबिशुबा संक्रांति, बंगाल में पोहेला बोइशाख, बिहार-झारखण्ड में सतुआनी जैसे प्रचलित नामों से जाना जाता है।

इन दो प्रमुख संक्रांतियों के अलावा 14 या 15 तारीख़ को ही जून महीने में "मिथुन संक्रांति" को भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर पृथ्वी को एक माँ के रूप में मानते हुए, उनके वार्षिक मासिक धर्म चरण के रूप में मनाया जाता है, जिसे राजा पारबा या अंबुबाची मेला के नाम से भी जानते हैं और प्रायः 16 जुलाई को "कर्क संक्रांति" भी कहीं-कहीं मनाया जाता है। 

साथ ही प्रायः 16 दिसम्बर को पड़ोसी हिन्दू देश दक्षिणी भूटान और नेपाल में "धनु संक्रांति" को बड़े ही धूम-धाम से मनाते हैं।

परन्तु इन सब से अलग "मीन संक्रांति" को त्योहार के रूप में मनाए जाने की प्रथा के बारे में उत्तराखंड के देहरादून में रहने के दौरान इसी वर्ष अपने जीवन में पहली बार जानने का मौका मिला है। इस दिन फूलदेई, फूल सग्यान, फूल संग्रात या फूल संक्रांति नाम से स्थानीय त्योहार मनाया जाता है। चैत्र माह के आने से सम्पूर्ण उत्तराखंड में अनेक पहाड़ी पुष्प खिल जाते हैं, मसलन - प्योंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस। 

यूँ तो देहरादून के शहरी माहौल में यह त्योहार लुप्तप्राय हो चुका है, परन्तु सुदूर पहाड़ों में इसे आज भी मनाया जाता है। इसे मुख्य रूप से बच्चे मनाते हैं, उन बच्चों को फुलारी कहते हैं। सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से टोली में निकले बच्चे खिले फूलों को तोड़ कर एकत्रित करते हैं और घर-घर जाकर दरवाजे पर वर्ष भर की मंगल कामना करते हुए वो तोड़े पुष्पों को रखते जाते हैं। इसमें बड़ों का भी योगदान रहता है। बड़े लोग बच्चों को आशीर्वाद के साथ-साथ त्योहारी के रूप में कुछ उपहार भी देते हैं। इन सारी पारम्परिक प्रक्रियाओं के दौरान फुलारी बच्चे फूल डालते हुए कुमाउँनी में गाते हैं–

फूलदेई छम्मा देई ,

   दैणी द्वार भर भकार.

   यो देली सो बारम्बार ..

   फूलदेई छम्मा देई

   जातुके देला ,उतुके सई .."

  और गढ़वाली में गाते हैं –

" ओ फुलारी घौर.

   झै माता का भौंर .

   क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर .

   डंडी बिराली छौ निकोर.

   चला छौरो फुल्लू को.

   खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को.

   हम छौरो की द्वार पटेली.

   तुम घौरों की जिब कटेली... "

सनातनी परम्पराओं, प्रथाओं और रीति रिवाज़ों की तरह ही इस भौगोलिक घटना - मीन संक्रांति को भी तथाकथित पौराणिक शिव-पार्वती, नंदी और शिव गणों जैसे पात्रों से जोड़ दिया गया है। एक अन्य मान्यता के मुताबिक इस त्योहार को एक स्थानीय लोककथा के आधार पर प्योंली नामक एक वनकन्या से भी जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ विस्तार से इन पौराणिक या लोककथा को लिखना समय की बर्बादी ही होगी .. शायद ... क्योंकि इन सारी मान्यताओं के महिमामंडन का विस्तारपूर्वक उल्लेख गूगल पर उपलब्ध है। ]