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Sunday, April 26, 2020

" लंका-दहन बनाम माचिस " - हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ...-भाग-४-( आलेख/विचार ).

आजकल लॉकडाउन की अवधि में हम में से कई परिवार के लोग सपरिवार बहुत ही तन्मयता के साथ रामायण नामक टी वी धारावाहिक का डी डी नेशनल चैनल पर हो रहे पुनः प्रसारण का आनन्द ले ही रहे होंगें। इस के किसी एक या अधिक एपिसोडों में निश्चित रूप से महिमामंडित लंका-दहन का प्रकरण का प्रसारण भी आया ही होगा।
इस दौरान हमारी पीढ़ी को जो कुछ भी विचारधाराएँ अपने बुजुर्गों से डाउनलोड की गई हैं और जो उन्हें भी क्रमवार उनके पुरखों से उन्हें मिलता आया है, अपनी नई पीढ़ी को भी डाउनलोड करने से हमलोगों ने जरा सा परहेज नहीं किया होगा। करना भी नहीं चाहिए .. धर्म और आस्था की बातें हैं, भले ही मिथक हों।
बहरहाल हम इस विषय पर बहस नहीं कर रहे कि किसी भी प्राणी की पूँछ में आग लगने पर वह नहीं जलेगा क्या ? आपकी (अन्ध)भक्ति और (अन्ध)आस्था हताहत ना हो इसीलिए इस समय इसकी चर्चा भी बेमानी है कि इच्छानुसार किसी प्राणी की अपनी पूँछ या शरीर को घटाना या बढ़ाना असंभव है। खैर ! आपके अनुसार वे कुछ भी कर सकते थे और कर सकते हैं। भगवान जो ठहरे।
ऐसे में हमारे मन में जलाते हए और जलते हुए तथाकथित वीर हनुमान जी की पूँछ और लंका के स्वर्ण-महल को देख कर कभी हमारे मन में उस आग के स्रोत के बारे में ख़्याल ना आया हो, पर कम से कम उस नई पीढ़ी को तो दिमाग पर जोर देने देना चाहिए था जो पीढ़ी इसे अग्नि देवता की करामात की जगह एक आम रासायनिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्त्पन्न ऊर्जा को जिम्मेवार मानती है। पर नहीं ... आप ऐसा नहीं करेंगे, आप तो उस अंधानुकरण का चश्मा उसे अवश्य पहनायेंगे, जो खुद बचपन से पहनते आये हैं।
वैसे पुरखों ने कहा भी है कि :-
ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।
मतलब तो आपको पता ही होगा कि :-
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! इस यज्ञ के द्वारा मैं आपकी आराधना करता हूं। सृष्टि के पूर्व भी आप थे और आपके अग्निरूप से ही सृष्टि की रचना हुई। हे अग्निरूप परमात्मा! आप सब कुछ देने वाले हैं। आप प्रत्येक समय एवं ऋतु में पूज्य हैं। आप ही अपने अग्निरूप से जगत् के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाले हैं एवं वर्तमान और प्रलय में सबको समाहित करने वाले हैं। हे अग्निरूप परमात्मा ! आप ही सब उत्तम पदार्थों को धारण करने एवं कराने वाले है।
पुरखों द्वारा परोसी मिथक बातों का आपका अन्धानुसरण उस बेचारे को पाठ्यक्रम की बातें, रासायनिक प्रतिक्रियाएँ , ऊर्जा-विज्ञान सब भूला देती हैं। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी वे बेचारे पढ़ते कुछ और हैं, मानते कुछ और हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम बोलते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं। मुँह से कुछ और बोलते हैं और मन में कुछ और रखते हैं। दोहरी मानसिकता ... दोहरी ज़िन्दगी।
कम से कम एक बार तो सोचने देते नई पीढ़ी को कि क्या उस लंका-दहन के समय माचिस थी ?
अगर नहीं थी तो आग जलाते कैसे थे ? महसूस कीजिये कि पहली बार जब चकमक पत्थर से आदिमानव ने आग की चिंगारी निकाली होगी और उसके उपयोग से शिकार में मारे गए जानवरों के माँस को कच्चे की जगह भून कर, पका कर खाया होगा। बहुत बाद में क्रमवार जब आग की खोज हुई होगी पहिया के पहले, पहिया ही की तरह , तो क्या ये अग्नि देवता ने आग को जन्माया होगा या मानव परिकल्पना ने अग्नि देवता की कल्पना करके उनका मानवीकरण या भगवानीकरण की होगी ? एक बार सोचना चाहिए। है ना ?
अगर ऐसे सवालों में हम या हमारी कोई भी पीढ़ी उलझी होती तो शायद हम को श्रेय मिलता इस आज मामूली सी दिखने वाली माचिस और उसकी तिल्ली को बनाने या आविष्कार करने का। पर शर्म आती है ये सोच कर कि हम तो अग्नि देवता को पूजते रहे .. मनों, टनों अनाज और पशु तक को भी हवन के नाम पर जलाते रहे, सुलगाते रहे और उधर दूसरे देशों में क्रमवार माचिस पर शोध होता रहा। आज हम उसका ही सबसे सुधरा हुआ रूप प्रयोग में ला रहे हैं।
हमने कभी सोचा कि माचिस या दियासलाई का आविष्कार कैसे, कब और कहाँ हुआ या माचिस की तिल्लियाँ किस पेड़ की लकड़ी से बनती है ? शायद नहीं।
दियासलाई बहुत काम की चीज है। इसके बिना आग जलाना संभव नहीं है। हालांकि अब आग जलाने के लिए अच्छे लाईटर भी उपलब्ध हैं। लेकिन ग्रामीण चूल्हे पर लकड़ी जलाने के लिए आज भी दियासलाई का ही प्रयोग किया जाता है। या फिर मंदिर का दिया और मज़ार की अगरबत्ती जलाने के लिए भी इसी को प्रयोग में लाते हैं। और हाँ ... श्मशान में भी। है ना !?  छोटी सी डिबिया, जिनमें नन्हीं-नन्हीं तीलियाँ। आज भी दियासलाई काफी सस्ती आती है और यह लाइटर से तो बहुत ही सस्ती आती हैं। इस वजह से दियासलाई का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है।
परन्तु प्रचीन काल में लोग चकमक पत्थर से रगड़कर आग पैदा करते थे। ‌‌‌पुराने जमाने में जब दियासलाइयाँ नहीं थीं तो लोग हमेशा आग को जलाए रखते थे। यदि किसी घर में आग बुझ जाती थी तो दूसरे घर से आग को लाया जाता था। यह स्थिति 19वीं शताब्दी के पहले तक की है। 19वीं शताब्दी में ही दियासलाई का आविष्कार कई लोगों द्वारा कई चरणों में अलग-अलग विदेशों में हुआ था।
ब्रिटेन के जॉन वॉकर ने 1827 के अंत यानी दिसम्बर महीने में हमारे इसी अग्नि देवता को सबसे सुरक्षित और आज वाली सुधरे हए रूप वाली माचिस की डिब्बी में भरने की कोशिश की थी।
भारत में माचिस का निर्माण 1895 में अहमदाबाद में और फिर 1909 में कलकत्ता (कोलकाता) में शुरू हुआ था, जिसका रसायन विदेश से आता था। इसके पहले तक माचिस 1827 में इसके सुधरे हुए रूप के आविष्कार होने के बहुत बाद में विदेश से भारत आती थी। उसके बाद भारत में लगभह 200 छोटे-बड़े और कारखाने भी खुल गए। 1926 में भारत सरकार ने दियासलाई उधोग को संरक्षण प्रदान किया। जिसके बाद 1927 में शिवाकाशी में नाडार बंधुओं द्वारा पूर्णतः स्वदेशी माचिस का उत्पादन शुरू किया गया था।
तिल्लियाँ बनाने के लिए पहले केवल चीड़ की लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। लेकिन अब हर प्रकार की लकड़ी प्रयोग की जा सकती है, जो जल्दी सूखने की क्षमता रखती हो। सबसे पहले तिल्ली को ऐमोनियम फॉस्फेट अम्ल से लेप करते हैं। उसके बाद पैराफिन मोम और फिर फास्फोरस का प्रयोग किया जाता है। इसमें ‌‌‌रंग भी मिला दिया जाता है।
आइए ! ... अब से जब भी हम माचिस जलाएं तो एक बार अपने सनातनी अग्नि देवता और शून्य के आविष्कार के लिए गर्दन अकड़ाने के पहले उस फिरंगी/ब्रिटिश जॉन वॉकर को भी मन से धन्यवाद, शुक्रिया अवश्य प्रदान करें, जिसने आज ये मामूली-सी दिखने वाली सुविधजनक माचिस या दियासलाई नामक वस्तु हमें प्रदान की है। नहीं तो आज भी हम अपने अग्नि देवता को अनवरत जिन्दा रखने के लिए अपने-अपने घरों में अनवरत कोई ना कोई ईंधन जला कर बर्बाद कर रहे होते।
आप नहीं तो कम से कम अपनी अगली युवा पीढ़ी को तो तार्किक होने दीजिए। उसके तर्क करने की क्षमता को कुतर्की, नास्तिक, मुँहजोर, अनुशासनहीन, उद्दंड या नालायक के विशेषण का तमगा मत दीजिए। आज ना सही ... आने वाले सुनहरे कल के लिए ही सही ... प्लीज ........