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Sunday, January 19, 2020

भाषा "स्पर्श" की ...

सिन्दूर मिले सफेद दूध-सी रंगत लिए  चेहरे
चाहिए तुम्हें जिन पर  मद भरी बादामी आंखें
सूतवा नाक .. हो तराशी हुई भौं ऊपर जिनके
कोमल रसीले होठ हों गुलाब की पंखुड़ी जैसे
परिभाषा सुन्दरता की तुम सब समझो साहिब
जन्मजात सूर हम केवल भाषा "स्पर्श" की जाने
अंधा बांटे भी तो भला जग में क्योंकर बांटे
अंतर मापदण्ड के सुन्दरता वाले सारे के सारे ...

हैं भगवा में दिखते सनातनी हिन्दू तुम्हें
बुत दिखता है, बुतपरस्ती भी, तभी तो
मोमिन और किसी को काफ़िर हो कहते
भेद कर इमारतों में मंदिर-मस्जिद हो कहते
रंगों का भेद तो तुम सब जानो साहिब !
हम तो बस केवल "नमी" कोहरे की जाने
अंधा बांटे भी तो भला जग में क्योंकर बांटे
रंगों के अंतर भला इंद्रधनुष के सारे के सारे ...



Sunday, September 29, 2019

कपसता है सुर ...

अनवरत निरपेक्ष ...
किए बिना भेद ... किसी धर्म-जाति का
या फिर किसी भी देश-नस्ल का
षड्ज से निषाद तक के
सात स्वरों के सुर से सजता है सरगम
मानो ... इन्द्रधनुष सजाता हो जैसे
बैंगनी से लाल तक के
सात रंगों से सजा वर्णक्रम

पर बारहा बाँट देते हैं हम नादान
इन सुरों को जाति-धर्म में अक़्सर
मंदिरों में भजन हो जाता हिन्दूओं का सुर ...
गिरजा में प्रार्थना ईसाई का सुर तो
गुरूद्वारे में शबद-वाणी सिक्खों का सुर
मज़ारों के कव्वाली मुसलमानों का सुर
पर एक "सुर" ...  सुर यानि देवता
ढूँढ़ते हैं अक़्सर जिन्हें हम
मंदिरों की पथरीली मूर्तियों में
लगता तो है कि वे भी बसते हैं
इन्हीं सात सुरों के सरगम में ही जैसे

पर हर कहीं नहीं !? ... हर बार कहाँ !?...
जरुरी नहीं कि हर बार सुर
सुहाने होते ही हो यहाँ
कभी - कभी या कई बार तो
किसी के मन की मज़बूर कसक
ढल के मुजरे में कपसता है सुर
बलिवेदी पर निरीह की अनसुनी कराह
हर बार कुचल देता है मन्त्रों का सुर
कई बार बनता है निवालों का साधन
ये सुर सजता है जब अक़्सर गलियों में
चौराहों पर ... फुटपाथों पर या ट्रेनों में

सुर हो और ताल ना हो
तो सुर की बातें बेमानी होती हैं ...
पर ताल भी अक़्सर भरमाते हैं
बचपन से बजता एक गीत सुना  -
" बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं "
सच में ऐसा है क्या !? सोचो ना जरा !!!
बैलों के ही क्यों हर मवेशियों के
गले के घुंघरूओं के सुर-ताल से ही
ग़ुलामी करते रहने का उनके हम हरदम
अनुमान लगाते हैं या गुम हो जाने पर
बीहड़ से इन्हीं आवाज़ों से ढूँढ़ लाते हैं
सच कहूँ तो ... ना जाने क्यों अक़्सर
गहने का गुमां देने वाले पायल
मवेशियों के उन्ही घुंघरुओं सा
अहसास कराते हैं ...

सुर हो या ताल हर बार सुहाने होते नहीं
कई बार हमें ये रुलाते हैं ... कपसाते हैं ...

Thursday, May 30, 2019

इन्द्रधनुष


'बैनीआहपीनाला' को
स्वयं में समेटे
क्षितिज के कैनवास पर
प्यारा-सा इन्द्रधनुष ...
जिस पर टिकी हैं
जमाने भर की निग़ाहें
रंगबिरंगी जो है !!!... है ना !?

उसे पाने को आग़ोश में
फैली तुम्हारी बाँहें
एक भूल ....
और नहीं तो क्या है !?...

खेलने वाला सारा बचपन
कचकड़े की गुड़िया से
मचलता है अक़्सर
चाभी वाले या फिर
बैटरी वाले खिलौने की
कई अधूरी चाह लिए और ...
ना जाने कब लहसुन-अदरख़ की
गंध से गंधाती हथेलियों वाली
मटमैली साड़ी में लिपटी
गुड़िया से खेलने लगता है

विज्ञान के धरातल पर तो
ये इन्द्रधनुष क्या है बला !?
बस चंद बूँदें ही तो है
तैरती हुई हवा में
जो चमक उठती हैं
सूरज की आड़ी-तिरछी किरणों से

इन्द्रधनुष और मृगतृष्णा
हैं प्रतिबिम्ब एक-दुसरे के
प्यारे, लुभावने .. सबके लिए
मूढ़ है बस वो जो है ....
अपनाने की चाह लिए ....