Thursday, September 14, 2023

पुंश्चली .. (१०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ), पुंश्चली .. (६), पुंश्चली .. (७)पुंश्चली .. (८) और पुंश्चली .. (९) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े ज्यादा ही विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

विवाहिता हर वर्ष बिना नागा किए लाख तीज या करवा चौथ जैसे व्रत कर लें, उपवास रख लें; प्राकृतिक मौत या हादसों के चँगुल से अपने पति को कहाँ बचा पाती हैं भला .. शायद ... 

अंजलि भी तो हर वर्ष अपने पति, अपने सुहाग- रंजन के लिए सारे व्रत, उपवास रखती थी, पर .. हर सम्भव प्रयास के बावजूद भी कोरोना महामारी के दूसरे दौर के प्रकोप से नहीं बचा पायी .. काश ! .. उस रात उसे किसी भी तरह एक 'सिलिंडर' मिल जाता 'ऑक्सीजन' का तो शायद .. उसका रंजन बच जाता .. पर उस भयावह काली रात में वह इधर से उधर भटकती रही अपने शेष बचे नाममात्र के गहनों की पोटली लेकर और उधर मन्टू भी जी-जान लगा कर इधर-उधर यथासम्भव पैरवी लगाता रहा था .. अंजलि रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, हर सम्भावित व्यक्ति के सामने हाथ-पैर जोड़ती रही .. पर अन्त में एक जगह से 'ब्लैक' में जुगाड़ हुए दस लीटर के 'सिलिंडर' को अपनी डगमगाती गर्दन पर टिके हुए अपने सिर के ऊपर लाद कर जब तक रंजन के पास पहुँचने में कामयाब हुई .. तब तक .. उससे पहले ही रंजन कोरोना महामारी के साथ लड़ता-लड़ता नाकामयाब हो चुका था .. शायद ...

किसी भी विधवा या परित्यक्ता औरत या फिर जिस औरत के पति कई वर्षों से विदेश में या फिर जिसके कई महीनों से अपने गाँव-शहर से दूर नौकरी-पेशे के लिए गए हुए हों, तो उस औरत के आस-पड़ोस के या साथ में काम करने वाले या फिर कई रिश्ते-नाते वाले भी मर्दों की अंदरूनी निगाहें उस की तरफ़ ठीक वैसे ही घूरती हैं, मानो गली के कुत्तों की कोई टोली किसी माँस-मुर्गे या मछली की दुकान के सामने बैठी टकटकी लगायी, मिलने वाली अँतड़ी-पचौनी या माँस-हड्डी की छाँटन की बाट जोह रही हो .. शायद ... 

ऐसे में कामुक मर्दों की मदान्ध निगाहें उस औरत के मांसल शरीर के अंदर धँसे निरीह मन को पढ़ पाने की क्षमता खो देती हैं, जैसे मुर्गे को मार कर पकाए गए तन्दूरी मुर्ग़-मुसल्लम के प्रेमियों को भला हलाल या झटका की विधि से काटे जाने पर रक्त से लथपथ उस मुर्ग़े की तड़प कितना ही विचलित कर पाती है ? 

कोरोना के इमामदस्ते की चोट से रंजन की ज़िन्दगी की दास्तान की इतिश्री हो जाने के बाद से अंजलि बिल्कुल अकेली हो गयी है। कहने के लिए तो तीन साल का बेटा- अम्मू है साथ में, शनिचरी चाची हैं, मन्टू भी है, स्कूल के बच्चे और साथ में काम करने वाले 'स्टाफ़' लोग भी हैं; पर रंजन की जगह ले पाना किसी के लिए ना तो सम्भव है और ना ही कोई भी ले सकता है अंजलि के वीरान हो चुके जीवन में .. शायद ... जैसे किसी मोमजामे पर कोई भी पनीला रंग नहीं चढ़ पाता, वैसे ही किसी दुःखी आदमी या दुखियारी औरत के दुःखी और शोक संतप्त मन पर दुनिया भर की किसी भी तरह की ख़ुशी का या किसी के भी साथ का असर नहीं हो पाता है .. शोक संतप्त मन ही मानो मोमजामा में तब्दील हो जाता है .. शायद ...

अंजलि के लिए तो ऐसा होना भी स्वाभाविक ही है .. जन्म से लेकर होश सम्भालने तक .. बारह वर्ष की उम्र तक तो अपनी माँ और बाबूजी की इकलौती लाडली बेटी अँजू बनी रही बेचारी अंजलि .. उसे अच्छी तरह याद है .. उस साल गर्मी की छुट्टी हो चुकी थी उसके स्कूल में .. कुछ ही दिन पहले उसकी छठे वर्ग की तिमाही परीक्षा समाप्त हुई थी, जिसका परिणाम गर्मी की छुट्टी के बाद आने वाला था। अब तक हर साल परीक्षा के परिणाम के बाद अपने वर्ग में वह प्रथम ही घोषित की जाती रही थी। इसलिए वह आश्वस्त थी अपने भावी परिणाम को लेकर।

माँ के कहने पर बाबू जी इस छुट्टी में सब को चारों धाम की यात्रा पर ले जाने वाले थे। इस वजह से तीन सदस्यीय परिवार में ख़ुशी का माहौल था। अब भले ही ख़ुशी की वज़ह तीनों के लिए अलग-अलग हो। माँ रास्ते के लिए ठेकुआ, निमकी शुद्ध घी में छान-छान कर डिब्बों में भर रही थी। अंजलि अपनी छुट्टी की वज़ह से माँ के कामों में हाथ बँटाने के ख़्याल से सौंफ़, छोटे-छोटे टुकड़ों में कटे सूखे मेवे, गुड़, दूध के साथ घी के मोयन में गूँथे हुए आटे और थोड़े से मैदे के मिश्रण से बनी छोटी-छोटी लोईयों को लकड़ी के साँचे पर थाप-थाप कर बाँस से बुने डगरे पर फैला कर रखती जा रही थी और माँ लोहे की कढ़ाही में उन्हें लाल-लाल छान-छान कर ठेकुआ बनाती जा रही थी। ठेकुआ के लिए आटा भी अंजलि ने ही माँ के निरीक्षण में गूँथे थे। निमकी के लिए भी .. उसी ने आटा में नमक, अजवाईन-मंगड़ैला और कसूरी मेथी को अपनी नन्हीं हथेली पर मसल कर मिलाते हुए, मोयन और पानी के छींटों के साथ गूँथा था। 

यूँ तो आम दिनों में माँ उस से घर का एक भी काम नहीं करवाती थी। कभी भूले से कुछ काम कह भी दिया, तो बाबू जी उसकी पढ़ाई में बाधा ना होने पाए, ये बोलकर माँ के कहे काम को करने देने से अपनी लाडली अँजू यानि अंजलि को मना कर देते थे और अंजलि के बजाए स्वयं वह उस काम को अंज़ाम दे देते थे। 

पर आज तो बात ही अलग थी, एक तो अभी हाल ही में परीक्षा का ख़त्म होना, स्कूल में एक महीने की गर्मी की छुट्टी का होना और रेलगाड़ी की यात्रा करते हुए बाहर घुमने जाने की ख़ुशी और उमंग का होना। इसीलिए बाबू जी भी उस दिन अपनी लाडली अँजू की फ़ुर्ती देख कर बस मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। त्योहारों के अवसर पर या किसी सगे-सम्बन्धियों की शादी के मौके पर अपने लिए खरीदे गए कपड़ों को विशेष रूप से चुन कर अंजलि अलग कर रखी थी। सगे-सम्बन्धियों की शादी के कई मौकों को छोड़कर कहीं भी शहर से बाहर जाने का यह उसका पहला मौका था। 

माँ तो चारों धाम की यात्रा करके पुण्य प्राप्ती के बारे में सोचकर अलग रोमांचित हो रहीं थीं। बाबू जी भी भले ही माँ के कहने पर यात्रा या तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे, पर वह वहाँ के प्राकृतिक दृश्यों का अनुमान कर-कर के मन ही मन खुश हो रहे थे। पूरे घर में ख़ुशी की पराकाष्ठा दिख रही थी।

चारों धाम की यात्रा के तहत तीनों लोग लगभग तीस-बत्तीस घन्टे की रेलयात्रा पूरी करके सबसे पहले हरिद्वार पहुँचे और वहाँ के हर की पौड़ी पर स्नान-ध्यान-दान करके, घर से लाए ठेकुए-निमकी के अलावा दुकान से खरीद कर गर्मागर्म पूड़ी-सब्जी खाकर थोड़ी देर घाट पर ही विश्राम कर लिए थे। फिर 'टिकट काउंटर' पर लगी लम्बी क़तार को झेलते हुए रज्जु मार्ग ('रोपवे') की 'कंप्यूटराइज़्ड टिकट' लेकर बिलवा पर्वत पर अवस्थित मनसा देवी मन्दिर गए थे। वहाँ से नीचे उतरने के बाद घाट किनारे पहले से आयोजित एक भंडारे के पंडाल में बँट रही खिचड़ी और दूसरी जगह बँटती खीर खा-खा कर दोपहर के भोजन की भी व्यवस्था कर ली गयी थी। फिर गंगा किनारे शाम को होने वाली आरती में शामिल होकर उस का पावन अवलोकन किए थे सब मिलकर। वहीं घाट पर रसीद लिए हुए, सहयोग राशि या दान के नाम पर रुपए लेने वाले स्‍वयंसेवकों में से एक से, एक सौ एक रुपया का रसीद अंजलि के नाम से ही कटवा कर उसे पुण्य का भागी बना दिए थे उस शाम बाबू जी।

वहाँ से तीनों लोग अगले दिन सुबह-सुबह अन्य और भी श्रद्धालुओं के साथ यमुनोत्री की तरफ बढ़ चले थे। वहाँ से यमुना के पावन जल को एक कलश में भर कर, उसी दिन गंगोत्री की ओर भी सभी चल दिए थे। फिर गंगोत्री में गंगा के पवित्र जल दूसरे कलश में लेकर केदारनाथ की ओर रुख़ कर दिए थे। मान्यता है, कि चारों धाम की यात्रा में धार्मिक दृष्टिकोण से तयशुदा क्रम का पालन करना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है .. शायद ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (११) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】