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Saturday, December 21, 2019

मूर्ति न्याय की ...

हम सुसभ्य .. सुसंस्कृत .. बुद्धिजीवी ..
बारहा दुहाई देने वाले सभी
अपनी सभ्यता और संस्कृति की
अक़्सर होड़ में लगे हम उसे बचाने की
बात-बात में अपनी मौलिकता पर
अपनी गर्दन अकड़ाने वाले
क्या सोचा भी है हमने फ़ुर्सत में कभी .. कि ...

हमारे न्यायालयों में आज भी
मिस्र की "मात" से "इसिस" बनी
तो कभी न्याय की मूर्त्ति -"थेमिस्" ग्रीक की
कभी यूनानी "ज्यूस" की बेटी .. "डिकी" बनी
तो कभी तय कर सफ़र प्राचीन रोम की
परिवर्तित रूप में "जस्टिसिया" तक की
जाने-अन्जाने .. ना जाने .. कब ..
आकर औपनिवेशिक भारत में
आँखों पर बाँधे काली पट्टी
और कभी पकड़े तो .. कभी त्यागे तलवार ...
हाथ में तराजू लिए आ खड़ी हो गई
हमारे तथाकथित मंदिरों में न्याय की
बन कर न्याय की देवी .. तथाकथित मूर्ति न्याय की ...

और .. न्यायलयों में न्यायाधीश आज भी
वहाँ के वक़ील और चपरासी तक भी
अंग्रेजों के दिए उधार पोशाकों में अपनी
अपनी बजाए जा रहे हैं ड्यूटी
और मुजरिमों को बुलाने के ज़ुमले -
"मुज़रिम हाज़िर हो....." भी
मुग़लों से है हमने वर्षों पहले उधार ली हुई ...