Thursday, February 15, 2024

पुंश्चली .. (३२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३१)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मन्टू - " इतना ही नहीं .. वैसे शहरों की तो ...संस्कृति में भी प्रवासित लोगों के कारण बहुत हद तक सकारात्मक रूप से इंद्रधनुषी बदलाव देखने के लिए मिलते है .. है कि नहीं ? "

गतांक के आगे :-

रेशमा - " हाँ .. जिन शहरों के कल-कारखानों में काम करने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों से लोग आते हैं, तो उनके सामानों और साँसों के साथ-साथ उनकी सभ्यता-संस्कृति भी चिपकी-घुली चली आती हैं, जैसे मधुमक्खियों के साथ फूलों से उनके छत्तों तक मधु के साथ-साथ उनसे चिपके मधुमक्खी पराग (Bee Pollen) भी चले आते हैं .."

मन्टू - " ऐसे शहरों में सुबह के नाश्ते के लिए कहीं इडली-डोसा, कहीं पूड़ी-जलेबी, तो कहीं पोहा-जलेबी .."

रेशमा - " तो कहीं छोले-भटूरे, कहीं समोसा-चटनी, कहीं-कहीं तो लिट्टी-चोखा भी .. मतलब .. देश के किसी भी क्षेत्र से आया हुआ आदमी अपने राज्य के व्यंजनों की कमी महसूस नहीं कर सकता है .."

मन्टू - " ऐसे में .. वहाँ के मूल निवासियों को भी इतने सारे व्यंजनों को चखने के विकल्प मिल जाते हैं .."

रेशमा - " इसी तरह अलग-अलग परिधानों के भी विकल्प देखने-जानने और पहनने के लिए भी मिलते हैं। जिनको कई भाषाओं को सीखने-जानने की अभिरुचि होती है .. उनके लिए तो जैसे सुनहरा मौका ही उपलब्ध हो जाता है .."

मन्टू - " कल-कारखाने वाले ही क्यों .. जिन शहरों में देश या विदेश के कोने-कोने से सालों भर पर्यटक लोग आते हैं, उन शहरों में भी कुछ ऐसे ही परिदृश्य देखने के लिए मिलते हैं .. "

रेशमा - " पर .. एक और बात गौर किए हैं मन्टू भईया कि .. विविध फूलों की पंखुड़ियों के रंग और उनकी गंध भले ही अनेकों प्रकार के होते हैं , पर उनके परागों के रंग प्रायः .. पीले ही होते हैं .. "

मन्टू - " अच्छा ! .. वैसे तो हमने गौर नहीं किया है .. पर क्यों ? .."

रेशमा - " दरअसल .. ठीक वैसे ही .. हमारे खान-पान, पहनावे, भाषा, रीति रिवाज भले ही अलग-अलग हों, पर हम सभी के सीने में दिल एक-सा ही धड़कता है .. है ना ? " 

मन्टू - " हाँ .. चाहे हमारी चमड़ी के रंग गोरे हों या काले या फिर अन्य किसी रंग के .." 

रेशमा - " फिर .. विदेशों की बात को अगर छोड़ भी दें, तो .. अपने ही देश में कई राज्यों के लोग मूल निवासी भू कानून की आवाज़ क्यों उठाते हैं भला ? .."

मन्टू - " इससे .. ऐसा नहीं लगता कि .. हम आज भी पहले की तरह कई छोटे-छोटे रियासतों में बँटे हुए हैं ? .."

रेशमा - " ले लोट्टा !! .. हमारे साथ गप्पें मारते-मारते .. आप कचहरी से आगे निकल आए मन्टू भईया .. "

मन्टू - " ज्जा !! .. हमको तो कचहरी प्रांगण में जाने के लिए और पहले ही 'लेफ्ट टर्न' ले लेना था .. अब तो आगे से 'यू टर्न' लेने के लिए दो किलोमीटर आगे जाकर वापस आना पड़ेगा  हमलोगों को .. "

रेशमा - " अब सोचना क्या है .. भूल हुई है तो .. सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी ना .. आगे तक के बने 'डिवाइडर' को तो पार करना ही पड़ेगा जी .. "

मन्टू - " कोई ना जी .. पर आज खाना तो है कचहरी के प्रांगण वाले "बेवकूफ़ होटल" में ही .. "

रेशमा - " हाँ ! .. क़ीमत भी कम और स्वाद में भी दम .."

मन्टू और रेशमा के साथ उसकी पूरी टोली हाँ में हाँ मिला कर ठहाके लगा के हँसते हुए रेशमा के बोले आख़िरी शब्द "दम" में सुर मिलाते हुए समवेत स्वर में गाने लगी है - " दमादम मस्त कलंदर ~ अली दा पैला नम्बर ~ हो लाल मेरी ~  हो लाल मेरी ~~.. "

यूँ ही चुटकी लेते हुए सभी को चुप कराने के उद्देश्य से ..

मन्टू - " बस-बस ! .. अब रुक भी जाओ आप सब, वर्ना .. 'ट्रैफिक पुलिस' चालान काट देगी .."

अब तक मन्टू की टोटो गाड़ी उस चौक तक पहुँच चुकी है, जहाँ से उसे कचहरी प्रांगण में जाने हेतु 'यू टर्न' लेना है। उसके बाद फिर से लगभग दो किलोमीटर और भी गाड़ी चला कर मन्टू अपने अगले गंतव्य पर पहुँचने वाला है।

रेशमा - " जब जितनी उन्नति होती है, उतनी ही कठिनाईयाँ भी बढ़ जाती हैं .."

मन्टू - " तुम्हारा मतलब .. शायद इन बने नए 'डिवाइडरों' से है .. है ना ? .. पर ये भी तो सोचो कि .. कुछ कठिनाईयों को झेलने से अगर हमारी सुरक्षा बढ़ जाती है, तो फिर .. ऐसी कठिनाईयों को झेल कर तो .. हमलोगों को खुश ही होना चाहिए .. नहीं क्या ? .."

रेशमा - " वो तो है .. पर यहाँ तो लोगों को शहर में चौड़ी सड़कों वाली तरक्क़ी भी चाहिए और .. दूसरी ओर सड़क चौड़ीकरण के लिए पेड़ों के कटने पर कार्यरत सरकार के विरुद्ध नारे लगाने के अवसर से कभी भी .. तनिक भी नहीं चूकते हैं .."

अब वापस से कचहरी के मुख्य द्वार के सामने वाले चौक से कचहरी प्रांगण में मन्टू अपनी टोटो गाड़ी को प्रवेश करा रहा है।

मन्टू - " लो जी आ गया .. अब कुछ ही देर में आप सभी का पसंदीदा "बेवकूफ़ होटल" .. जहाँ है .. क़ीमत भी कम और स्वाद में भी दम .. "

मन्टू की बात पर चुटकी लेते हुए रेशमा की तुकबंदी ..

रेशमा - " हम 'मिडल क्लास' वालों के लिए 'फाइव स्टार' से जो है नहीं कम .. "

सर्वविदित है, कि कोर्ट-कचहरी को अगर विशुद्ध हिंदी में बोलें तो .. न्यायालय ही कहते हैं .. जहाँ कथित तौर पर तो .. आम व ख़ास .. दोनों के लिए समान न्याय मिलते हैं .. पर .. सत्यता .. जिसे हर वयस्क इंसान जाने या ना भी जाने तो ..  कम से कम भुक्तभोगी तो इसकी कड़वी सच्चाई से पूर्णतः अवगत होता है। 

सुबह .. मतलब .. लगभग ग्यारह बजने वाला ही है। अभी कचहरी का पूरा प्रांगण एक बाज़ार में तब्दील है। प्रत्यक्ष रूप से भी .. परोक्ष रूप से भी .. शायद ...

कहीं झाल्मूढ़ी वाले तार सप्तक में अपना सुर अलाप रहें हैं, कहीं चना जोर गरम वाले अपनी सतही तुकबंदी की धुन से अपने ग्राहक लोगों को लुभाने में लगे हैं .. तो कहीं खोमचे पर मूँगफली की ढेर सजाए .. ताजा-ताजा मसालेदार नमक की पुड़िया बनाता हुआ विक्रेता अलग ही मंद्र सप्तक वाले सुर में "चिनिया बदाम ले लो, टैम पास ले लो" बोल-बोल कर ध्यान आकर्षित कर रहा है। 

एक तरफ कटे हुए मौसमी फलों से सजे ठेले के पीछे खड़ा फेरीवाला सभी को सेहत की राज बतलाते हुए 'फ्रूट सलाद' बेच रहा है। एक तरफ ठंडा फल, तो .. दूसरी तरफ गर्मा-गर्म 'ब्रेड' पकौड़ा, 'भेज' पकौड़ी, कचड़ी आदि से सजे ठेले पर एक तरफ जलते चूल्हे पर लोहे की कढ़ाही में छनती ताज़ी गर्म पकौड़ियाँ .. इसे बेचने वाले को आवाज़ नहीं लगानी पड़ रही, क्योंकि गर्म तेल में छनती पकौड़ियों की सोंधी-सोंधी सुगंध ही पर्याप्त है .. चटोरे ग्राहकों को ठेले तक खींच लाने के लिए .. जो कुछ तो अपनी पत्नी के मायके जाने के कारण या कुछ कुँवारे होने के कारण या फिर कुछ अपनी धर्मपत्नी से झगड़ा होने के कारण .. घर से खाली पेट आने की वजह से भी अपनी भूख और चटोरापन .. दोनों ही को इन पकौड़े-पकौड़ियों से शान्त करते हैं। 

ठीक इसके बगल में ही चाय की दुकान है .. जैसे कहते हैं ना कि .. सोने पे सुहागा। अगर मशहूर नमकीन के दुकान के बगल में अच्छी 'क्वालिटी' की चाय की दुकान हो, तब तो उसे भी ग्राहकों के लिए आवाज़ नहीं लगानी पड़ती है। ठीक वैसे ही .. जैसे .. अमूमन देशी शराब के ठेके के या फिर तथाकथित अंग्रेजी शराब की दुकानों के आसपास चखने की दुकान वालों को अपनी-अपनी दुकानों के लिए एक 'बैनर' या 'बोर्ड' तक लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती .. शराब के दुकान से ही इनकी दुकानें चलती रहती हैं, बल्कि यूँ कहें कि दिन-रात दौड़ती रहती हैं।

अभी यहाँ किसी मांसाहारी होटल में मरी मछलियों के टुकड़े "छन्-छन्" की आवाज़ के साथ तले जा रहे हैं या कहीं लोहे की कढ़ाही में बकरे (या बकरी) के गोश्त खदक रहे हैं, तो .. कहीं शाकाहारी होटल में पापड़ के टुकड़े तले जा रहे हैं या प्याज-मूली के सलाद काटे जा रहे हैं .. लकड़ी की चौकी पर .. "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ के साथ .. 

साथ ही इस "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ के साथ-साथ जुगलबंदी करती एक और "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ आ रही है .. 'टाइप राइटर मशीन' की .. जो अब आधुनिक वैज्ञानिक युग में एक लुप्तप्राय वस्तु बन गया है .. नहीं क्या ?

वैसे भी .. ना जाने कब कौन लुप्तप्राय हो जाए या ना जाने अगले पल कौन लुप्त हो जाए .. कहना कठिन है, क्योंकि कई सालों पहले तक बचपन-युवावस्था तक दिखने वाले श्मशानों के आसपास बैठे-मंडराते गिद्ध .. मालूम नहीं कब लुप्तप्राय हो गए .. वो तो पक्का पता तब चला, जब एक बार सपरिवार चिड़ियाघर घूमने जाने के दौरान .. वहाँ इसके एक जोड़े को बाड़ों के पीछे देखा। तब तो इस बात पर पक्की मुहर लग गयी, कि गिद्ध लुप्तप्राय प्राणी हो गए हैं। ठीक इस 'टाइप राइटर मशीन' की तरह जो अब केवल कचहरी में "खट्-खट्  खट्-खट्" की आवाज़ के साथ दिख जाते हैं या फिर कभी कभार पारंपरिक सामानों वाली दुकानों में या चोर बाज़ारों में भी बिकने के लिए मौन पड़े दिख पाते हैं।

अभी रोज की तरह कचहरी प्रांगण में तो स्वतंत्रता के वर्षों बाद भी स्वतन्त्र भारत में अंग्रेजियत से सराबोर काले 'कोट' और ख़ाकी वर्दी धारण किये वक़ील साहब और सिपाही जी नामक जीवित प्राणी भी इधर से उधर, उधर से इधर आते-जाते दिख रहे हैं। पेशकार, वादी-प्रतिवादी भी दिख रहे हैं। कुछ क्षीणकाय ग़रीब प्रतिवादी, तो कुछ चपर-चपर गुटखे चबाते तोंदिले धनी वादी भी दिख रहे हैं। 

गुटखे का क्या है साहिब .. गुटखे हों या धूम्रपान .. सार्वजनिक स्थलों पर इनके निषेध के अधिनियम बने होने के बावज़ूद भी ख़ाकी-खादी वाले या काले कोट वाले लोग भी कचहरी जैसे सार्वजनिक स्थलों पर इस अधिनियम की धज्जियाँ उड़ाते दिख ही जाते हैं .. इसके कारण .. हमारे और आपके जैसे कुशल नागरिक की जागरूकता ही है .. शायद ...  

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】