Thursday, April 2, 2020

पर्ची ... ( महिला- साक्षरता ).


Amity University में अध्ययनरत जनसंचार (Mass Communication) की एक छात्रा द्वारा लिपिबद्ध की गई  और स्वयं उसके खुद के लिए बनाए गए अपने College के एक Project work के तहत उसी की बनाई एक Google Drive Film - " पर्ची " के लिए मेरे अभिनय का एक प्रयास ... फिल्मांकन के दिन तब तो लॉक-डाउन नहीं था, बस उस एक रविवार के दिन का 9 से 10 घंटे लगे थे इस 3 मिनट की फ़िल्म के लिए। स्क्रिप्ट की सिटिंग रिहर्सल, डॉयलॉग याद करना, सहकलाकार को निर्देशन, रिटेक, दृश्य के अनुसार पोशाक का परिवर्तन ... मतलब कास्टिंग से The End तक ... सब कुछ एक ही दिन के 9 से 10 घंटे में ... उसी छात्रा की एक सहेली के घर, दूसरी किसी सहेली का कैमरा और कैमरा उसी छात्रा के एक बाल-मित्र ( Boy Friend ) के हाथ में ..


एक और ख़ास बात ... इस Google Drive Film को आप लोगों की सुविधा के लिए इसे Youtube Chhanel में परिवर्तित कर के "पाँच लिंकों का आनंद"  ब्लॉग टीम की यशोदा जी ने अपने Youtube Channel -  Yashoda Agrawal पर साझा करके मदद कीं हैं।
बस 3 - 4 मिनट ही आपका क़ीमती समय चाहिए ... तो बस ... शुरू हो जाइए ...
https://drive.google.com/file/d/1BgahWAmCRVjJ3tvmVe0oWjxK58NLf5

Tuesday, March 31, 2020

मुआवज़ा ...

आज Lock Down के 7वें दिन अगर आपके पास समय हो तो ... आप थोड़ा समय दीजिए और  ... 1989 में हुए भागलपुर दंगे के बाद उस घटना के आधार पर काल्पनिक स्वरचित लिपि के आधार पर 2018 में स्वएकलअभिनित Youtube Film - "मुआवज़ा" को ... इस एकलअभिनय के पागल चरित्र का रूप-सज्जा और पोशाक भी स्वयं का ही किया हुआ है ...
अब मत कह दीजिएगा कि ... अपने मुँह मियां मिट्ठू ...☺
बस अब अपना 7-8 मिनट क़ीमती समय मुझे साझा कीजिये ना .. बस यूँ ही ... 
( इस उपर्युक्त यूट्यूब की लिंक के अलावा नीचे की लिंक वाली नीली लकीर से कुछ बड़ी फ़िल्म चलेगी ... ).

Monday, March 30, 2020

याद आई भूली-बिसरी बातें ... ( बस यूँ ही ... कोरोना के बहाने ).

अनायास अनचाहे रूप से वैश्विक स्तर पर आई कोरोना नामक वायरस वाली विपदा या यूँ कहें विश्व वायरस युद्ध ने पूरे विश्व को एक मंच पर ला खड़ा किया है या यूँ कहें कि ला पटका है।
अमीर-गरीब के भेद, उच्च-नीच के भेद, जाति-धर्म के बँटवारे, देश-विदेश की सीमा-रेखाएँ, मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे-चर्च की असीम महिमाएँ ... इन सब को झुठला कर केवल और केवल सफाई, सावधानी, सामाजिक दूरी, लॉकडाउन और .. और अन्ततः विज्ञान के दरवाजे पर ला खड़ा कर दिया है। अस्पताल और वहाँ होने वाली जाँच, इलाज इत्यादि सभी ही/भी तो विज्ञान की ही देन है।
या यूँ कहें कि सत्यता से रू-ब-रू करवा दिया है। क़ुदरत या प्रकृति के बाद विज्ञान ही सबसे बलवान है .. बाकी सारी मिथक या मिथ्या वाली कोरी कल्पना बेमानी है।
किसी भी दुष्ट देश या समाज की विषाक्त सोचों के परिणाम से उपजे क़हर से लड़ने में हमारे-आपके हौसलों के साथ-साथ क़ुदरत और क़ुदरत से उपजा विज्ञान ही मदद कर पाता है।
ऐसे मौके पर इन से जुड़ी तीन भूली-बिसरी पुरानी बातों की यादें कौंधती है दिमाग में अनायास ही ...

(१) # पहली :- 

पहली भूली-बिसरी बात की याद आती है ... हाई स्कूल में अर्थशास्त्र विषय के तहत पढ़ाया गया एक अध्याय " माल्थस जनसंख्या सिद्धान्त " जिसे यूनाइटेड किंगडम के सामजिक अर्थशास्त्री - माल्थस जी की 1779 में  लिखी "जनसंख्या के सिद्धान्त" नामक किताब से ली गई थी।
जिसमें विश्लेषण किया गया है कि संसाधनों की उपलब्धता से जनसंख्या की वृद्धि होती है और वो भी ज्यामितीय या गुणोत्तर अनुपात में होता है। संसाधनों से समसामयिक मतलब मूलतः प्राकृतिक संसाधनों से था। उनके मतानुसार जनसंख्या एवं संसाधनों की अनुपात की तीन अवस्थाएं होती हैं।
1. जब संसाधन उस समय की जनसंख्या से अधिक हो
2. जब संसाधन और जनसंख्या दोनों लगभग समान हो
3. जब संसाधन के तुलना में जनसंख्या अधिक हो
इनमें से तीसरी अवस्था में जनसंख्या वृद्धि एक भयावह चुनौती बन कर सामने आती है। तब प्रकृति जनसंख्या को पूर्ववत लगभग संसाधन के समान करने या नियंत्रित करने के लिए युद्ध, प्राकृतिक आपदा, भुखमरी या महामारी द्वारा उपाय करती है।
वैश्विक स्तर पर कालान्तर में हालांकि माल्थस के सिद्धान्त को अस्वीकृत कर दिया गया।

(२) # दूसरी :-

दूसरी भूली-बिसरी बात की याद आती है .. अभी हाल ही में गुजरे वैश्विक रंगमंच दिवस के अवसर पर कि कभी विख्यात रहे रंगमंच कलाकार और नास्तिक डॉ श्रीराम लागू जी के वर्षों पुराने हमारे कॉलेज के जमाने में दिए गए दो वक्तव्य -
(१) " मैं ईश्वर को नहीं मानता, मुझे लगता है कि समय आ गया कि ईश्वर को रिटायर कर दिया जाए। " और ...
(२) " लोग कहते हैं कि भगवान ने इंसान को बनाया है; पर मैं मानता हूँ कि इंसान ने भगवान को बनाया है। "
आपको शायद ही यह ज्ञात हो कि वे अपने मन और रूचि की आवाज़ सुनकर आँख-नाक-गला के सर्जन वाले अपने जमे-जमाए पेशे को छोड़ कर अपने 42 वर्ष की उम्र में लगभग 1969-70 के आसपास पूर्णरूपेण मंच और फ़िल्म से जुड़ गए थे।
फिर साथ ही जर्मनी के महान दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे की प्रसिद्ध उक्ति की भी याद आती है कि -
" ईश्वर की मृत्यु हो गई है। "
साथ ही उनका कथन भी गूँजता है कि -
" व्यक्ति को रूढ़ियों का नहीं श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण करना चाहिए। "

(३) # तीसरी :-

तीसरी भूली-बिसरी बात की याद आती है ...  फ़रवरी 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म - " यशवंत " में समीर जी का लिखा और आनन्द श्रीवास्तव का संगीतबद्ध किए हए गाने की , जिसे गाया था  - नाना पाटेकर जी ने। इसे फिल्माया भी गया था नाना पाटेकर जी के धाँसू अभिनय के साथ। हम में से अधिकांश लोग गाने के बोल पर कम धुनों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। वैसे गज़लप्रेमी लोग विशेष कर गाने के बोल पर ध्यान देते हैं।
इसकी अतुकान्त पंक्तियों पर आज भी नज़र दौड़ाएंगें तो शायद आज भी आप इसकी समानुभूति से हाँफने और काँपने लगें शायद .. आपकी इन पंक्तियों को टटोलती नज़र शायद भींग जाए ...
तो आइए एक बार पढ़ते हैं .. फिर इस गाने को साझा किए गए लिंक पर सुनते भी हैं ...

"एक मच्छर, एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है
एक खटमल पूरी रात को अपाहिज कर देता है
एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है
मत आओ मेरे पास रहने दो मुझे अकेला
लड़ने दो मुझे अपनी लड़ाई
कभी न कभी तो झूठ का
गाला घोंटेगी सच्चाई
लेकिन साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
सुबह घर से निकलो
भीड़ का एक हिस्सा बनो
शाम को घर जाओ
दारू पीओ
और सुबह तलक फिर एक बार मर जाओ
क्यों कि आत्मा और अंदर का इंसान मर चूका है
जीने के घिनौने समझौते कर चुका है
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
ऊँची दुकान फीके पकवान
खद्दर की लंगोटी
चाँदी का पीकदान
सौ में से अस्सी बेईमान
फिर भी मेरा देश महान
टोपी लगाये मच्छर कहता है
देश के लोगों में
समता की भावना आ रही है
इसीलिए तो बड़ी मछली
छोटी को खा रही है
हमारे चुने हुए कुत्ते
हमे ही खाते हैं
हमारे हिस्से की रोटियाँ
आपस में बाँटते हैं
अमानुष गंध से भरी उनकी
आवाज से नंगे रस्ते काँपते है
कल पैदा हुए बच्चे
एक सांस लेते हुए हाँफते हैं
शैतानों की नाजायज औलाद
तहलका मचा रही है
और हम हम भगवान के
चहेते जानवर इंसान
ज़िन्दगी को गाली बनाये बैठे हैं .. क्या करें?
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
गिरो सालों .. गिरो, गिरो, गिरो , लेकिन गिरो तो
उस झरने की तरह जो पर्वत की ऊंचाई से
गिर के भी अपनी सुंदरता खोने नहीं देता
जमीन के तह से मिल के भी
अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं होने देता
लेकिन इतना सोचने के लिए
वक़्त है किसके पास
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में मर गये लाखों इंसान
धर्म और मजहब के नाम पर
हो गए हजारों कुर्बान
जिस ने अन्याय के विरोध में बाली को मारा
रावण को मौत के घाट उतारा
पुण्य को पाप से उभारा
मुझे उस राम की तलाश है मगर
लगता है इस युग के
राम को आजीवन वनवास है
क्यों कि आदमी को हिजड़ा बना देता है ये मच्छर
जिसका कीचड़ों में घर है
नालियों में बसेरा है
इसकी पहचान
ये है कि ..  ये न तेरा है .. न मेरा है
ये मच्छर हिजड़ा बना देगा
हिजड़ा बना देगा
कभी शैतान आएंगे
मेरे दरवाजे पर दस्तक देंगे
जहाँ की तलाशी लेंगे
फिर जल उठेंगे
उस वक़्त मैं डरूँगा नहीं
अपने शरीर को ढाल
हाथ को तलवार बनाऊँगा
एक न एक दिन तो
तुम मेरा हाथ चूमोगे
आज मुझे बदनाम करो नीलाम करो
नीलामी के लिए क्या है मेरे पास
बस जलते हुए आँसुओ का शैलाब
मगर तुम्हारी आखिरी गोली पर
मेरे दो साँसों के बीच का ठहराव
तुम्हें फ़ोकट में दूँगा
क्यों कि सालों एक मच्छर ने तुम्हें हिजड़ा बना दिया है...

फिलहाल आज घोषित 21 दिनों के लॉक डाउन का छठा दिन है ..अभी लॉकडाउन की इस अवधि में इस गाने का आंनद (?) लीजिए ...
अब ये मत कह दीजिएगा कि ... ये सर्वविदित कुतर्की .. हँसुआ के बिआह आ खुरपी के गीत गा रहा है ...
हाँ ... इस गीत के तर्ज़ पर कुमार विश्वास और राहत इंदौरी के नकल करने वाले कुछ नकलची रचनाकार बेशक़ पेरौडी गा कर ताली बटोर सकते हैं - " एक (साला) वायरस पूरे विश्व को निकम्मा बना देता है ..." ... ...