क़बीलों में बँटे आदिमानव सारे
प्रागैतिहासिक कालखंड के,
या फिर मानव हों तदुपरांत प्राचीन काल के।
मध्यकालीन या आधुनिक इतिहास को
क्रमशः क़ाबिल होकर काबिज करने वाले,
या पाषाण युग, धातु युग को गढ़ने वाले,
या फिर क्रमबद्ध सनातनी सत्य युग,
त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग के
क्रमबद्ध गवाह रहे मानव सारे।
सभ्यताएँ भी रहीं हो चाहे कोई भी,
मिस्त्र, मेसोपोटामिया, सुमेरिया, बेबिलोनिया,
असीरिया, चीन, यूनान, रोम या फिर
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो वाली सिंधु घाटी की सभ्यता।
हर बार देखी हैं किसी ने यूँ तो, या है सुनी,
या फिर किसी-किसी ने तो झेली भी हैं त्रासदियाँ,
युद्ध, विश्वयुद्ध, समर, महासमर, ग़दर, दंगे-फ़साद की।
पर साहिब ! वो तो कर रखे हैं कुछ ज्यादा ही
जानने वालों ने मुफ़्त में केवल कलियुग को ही
बदनाम बस बेकार .. बस यूँ ही ...
मारपीट, मारकाट, प्रहार, प्रतिकार,
मर्माहत, हताहत लोगबाग, रक्तप्रवाह, जनसंहार,
अफरा-तफरी, शोर-शराबा, खून-खराबा,
यातनाएँ, प्रताड़नाएं, व्यथाएँ,
कपसती व्यथाएँ, अथाह लाशें,
खंडहर, राख़-धुआँ, चीख पुकार,
बर्बरता, बर्बादी, वर्चस्व, बलात्कार, अनसुना चीत्कार,
दिखती तो हैं ऊपर-ऊपर बार-बार, हर बार।
पर .. बलात्कार .. कई-कईयों के साथ, कई-कई बार,
युद्धक्षेत्र की भरी दुपहरी हो या
शरणार्थी शिविर की मटमैली-सी रात।
और .. साहिब !! ... इस धरती पर पश्चात हर युद्ध के,
तदुपरांत ... उगती आयी हैं युग-युगांतर से,
उग ही आती हैं हौले से, चुपके से,
अनगिनत बलात्कारों के गह्वर में,
अनचाही, अनायास, अनगिनत संकर नस्लों की फ़सलें।
फिर कर लें चाहे जटाधारी शंकर नृत्य तांडव,
या झूम लें, गा लें, या फिर कितना भी हँस लें।
शायद .. ऐसे ही चलता है संसार .. बस यूँ ही ...
साहिब !!! .. ऐसे में ..
ऐसी पाशविकता से भी परे वाली वो कृतियाँ, विकृतियाँ,
कोंचती है अंतर्मना अंतर्मन को अक़्सर यहाँ
कि .. तदुपरांत ... अनगिनत शुक्राणुओं के महासमर के,
प्रतिक्षारत किसी एक अदद अंडाणु से संधि कर के,
लाने वाला हम मानव को अस्तित्व में,
महासमर का गवाह रहा,
एक अदद शुक्राणु ही तो कहीं .. कारण नहीं,
बुनियादी तौर पर हम इंसानों के फ़ितरती लड़ाकू होने का ?
साहिब ! .. सोच रहे होंगे आप भी ..
कर दिया खराब हमने छुट्टी के दिन भी,
आपका दिन, आपका मन, आपका सारा दिनमान।
अब .. हम भी भला अभी से क्यों हों परेशान !?
है ना !? .. हम तो हैं सुरक्षित (?) .. शायद ...
धरती के इस छोर पे, अपनी बला से बनते हों उस छोर पे,
सामूहिक क़ब्रिस्तान, धधकती हों, सुलगती हों श्मशान ...
धत् .. वैसे भी .. ये सारी कोई गूढ़ बातें तो हैं नहीं,
हैं बस .. मुझ बकलोल की एक अदद बतकही,
बस एक अदद 'टाइम पास' विचार .. बस यूँ ही ...